31 अक्टूबर को भारत ने आधिकारिक रूप से चीन और पाकिस्तान के बीच बस सेवा के प्रस्तावित लॉन्च का विरोध किया. भारत के विरोध की वजह ये है कि बस सेवा कथित चीन-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर का हिस्सा है, जो कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) से भी गुजरेगी.
भारत ने 1963 के चीन-पाकिस्तान सीमा समझौते को गैरकानूनी और गलत बताते हुए इस बस सेवा को भारत की संप्रभुता और अखंडता के खिलाफ कहा है.
अगर ये बातें कठिन और असंगत लगती हैं, तो भी सच यही है कि यह शायद ही तर्कसंगत है और भारत के लिहाज से कुछ खास फायदेमंद भी नहीं है.
जिस काराकोरम राजमार्ग पर ये सर्विस शुरू होगी वो 1960 के दशक से है और इसे 1979 में लोगों के लिए खोला गया था. ये मार्ग कहीं से भी आसान नहीं है. और इससे जुड़ा तथ्य यही है कि इस पर 2006 में गिलगित और काशगर के बीच पहली बस सेवा शुरू की गई थी. इस रूट का खासतौर से व्यापारी और पर्यटक इस्तेमाल करते हैं और इसे लेकर भारत की आपत्ति का कोई पूर्व रिकॉर्ड भी मौजूद नहीं है.
भारत अब यह क्यों कर रहा है?
दरअसल, ये साफ नहीं है कि भारत ने सड़क निर्माण या इसे अपग्रेड करने के अलग-अलग चरणों का विरोध किया है.
दरअसल, ये समझौता जुल्फिकार अली भुट्टो की ओर से कश्मीर मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान की सीधी बातचीत को नाकाम करने के लिए किया गया था. 1963 में हुए इस समझौते में अमेरिका और ब्रिटेन की भी दखल थी.
संभव है कि इस बार भारत का विरोध इस बात की वजह से है कि पहले की तरह गिलगित और काशगर के बीच लोकल ट्रैफिक की जगह नई सर्विस पाकिस्तान के लाहौर से काशगर और उससे आगे होगी.
जब भी कश्मीर विवाद का जिक्र होता है, तो सामने पंडित नेहरू और सरदार पटेल की बनाई एक भारतीय रणनीति होती है. तब दिसंबर 1948 में भारत ने युद्धविराम को स्वीकार किया था और इससे हमने सैन्य केंद्र अपने पक्ष में कर लिया था.
वो रणनीति निश्चित तौर पर राज्य को इस रूप में व्यापक तरीके से विभाजित करेगी, जिसे पहले सीजफायर लाइन कहा गया और बाद में लाइन ऑफ कंट्रोल कहलाया. इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि देश का एक हिस्सा विभाजन की वजह से चला गया था, ऐसे में एक ऐसे राज्य के बंटवारे की सोचने में कुछ भी असामान्य नहीं था, जो दोनों ही की सीमा हो.
तब सीजफायर लाइन ने राज्य को इस तरह से बांटा कि कश्मीरी भाषी क्षेत्र भारत में बने रहे, जबकि पाकिस्तान का नियंत्रण ऐसे हिस्से पर हो गया, जो जातीय रूप से उनके करीब थे. इसके अलावा पाकिस्तान को आश्वस्त किया कि उनका पंजाबी हार्टलैंड भारत की तरफ से महफूज रहेगा.
लेकिन पाकिस्तानियों ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया. उन्होंने दलील दी कि 1963 में भुट्टो ने भारत के साथ बातचीत में कहा था कि भारत कठुआ तहसील को छोड़कर पूरा जम्मू-कश्मीर उन्हें सौंप देगा.
बेशक, बांग्लादेश युद्ध के बाद 1972 में शिमला वार्ता के दौरान एक तरीके से भुट्टो को दंडित भी किया गया. तब भारत के हाथों से 90000 पीओडब्लू वापस पाने के लिए बेचैन भुट्टो ने सीजफायर लाइन को लाइन ऑफ कंट्रोल मानने पर रजामंदी जता दी. इसका सीधा मतलब था कि अब ये इलाका युद्ध से हासिल किया गया नहीं था, बल्कि अधिग्रहण से हासिल हुआ क्षेत्र था.
इसके साथ ही भुट्टो ने इंदिरा गांधी के सामने इस बात की भी सहमति दी कि वे एलओसी को इंटरनेशनल बॉर्डर की शक्ल देने के लिए काम करेंगे. लेकिन ये वादा सिर्फ मौखिक था और बाद में पाकिस्तानी इसे नकारने लगे और यहां तक कहने लगे कि ऐसा कोई वादा भुट्टो ने भारत से किया ही नहीं था.
लेकिन परवेज मुशर्रफ की सत्ता जाने के साथ ही ये योजना भी ध्वस्त हो गई. इसलिए अब ये कहा नहीं जा सकता कि ये योजना सफल होती या नहीं?
पीओके को लेकर भारतीय रणनीति का एक और जिक्र 2006-07 में आया, जब नई दिल्ली ने इस्लामाबाद को एक बैक चैनल बातचीत का हिस्सा बनाया. इसमें चार बिन्दुओं का फॉर्मूला उभरकर आया और कहा गया कि जो सीमाएं थीं उसे उसी रूप में मान्यता दी जाए. लेकिन इसके साथ ही ये जोड़ा गया कि पाकिस्तान बेवजह के विवादों से दूर रहेगा.
लेकिन ये सारी बातें हमें ये बताती हैं कि असल में इंदिरा गांधी और नेहरू के फैसले जम्मू-कश्मीर के एक हिस्से को जाने देने के लिए तैयार दिखते हैं. ऐसे में एक बस सेवा को लेकर बड़ा विवाद औपचारिक रूप से सही है, लेकिन ये कुछ पेड़ों के लिए जंगल खोने की तरह है. खासतौर से ये देखते हुए कि ये बस सेवा ऐसे इलाके में है, जिससे भारत विशेष रूप से जुड़ा हुआ नहीं है.
चाहे वो भारत-चीन की सीमा हो या जम्मू कश्मीर की सीमा, ये पूरी तरह से निश्चित है कि आने वाले दशकों में ये चमत्कारिक रूप से बदलने नहीं जा रहे. चाहे वो भारत हों या चीन या फिर पाकिस्तान, हर किसी की परमाणु क्षमता को देखते हुए अपने दावों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए युद्ध मुमकिन नहीं है.
ऐसे में आपसी सहमति से हुआ समझौता ही सबके हित में है, जिससे कि ये देश सीमा पर होने वाले खर्चों से बच सकें. इसके बाद ही इन देशों के बीच सीमा के आर-पार व्यापार भी संभव हो पाएगा और स्थानीय लोगों में समृद्धि आएगी.
स्मार्ट डिप्लोमेसी करे भारत
इन सबके बीच चीन की स्थिति काफी सूक्ष्म है. 1963 का चीन-पाकिस्तान समझौते का आर्टिकिल-6 कहता है कि ये समझौता एक आखिरी संस्करण के साथ बदला जाएगा. और ये काम भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर विवाद के सेटलमेंट के बाद होगा.
सीपीईसी के लिए भारत ने इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया है क्योंकि ये गिलगित और बाल्टिस्तान से जाता है. चीन इस बात से इनकार करता है कि इससे यथास्थिति की बाध्यता में कोई बदलाव होता है. सितंबर 2017 में उनके प्रवक्ता ने कहा कि सीपीईसी से किसी की संप्रभुता का हनन नहीं होता है और न ही ये कश्मीर मुद्दे पर चीन की स्थिति में बदलाव है.
भारत की इस मान्यता को देखते हुए कि पाकिस्तान का जम्मू-कश्मीर के एक हिस्से पर गैरकानूनी कब्जा है, ऐसे में प्रवक्ता के बयान में चौंकाने जैसी कोई बात नहीं है. मगर एक थोड़ा अलग सवाल किया जा सकता है कि पाकिस्तान से चीन या फिर चीन से पाकिस्तान को जाने वाली किसी बस को लेकर हर बार दावे करते रहने में कोई फायदा है भी? या कि हमें इससे अलग स्मार्ट डिप्लोमेसी का परिचय देते हुए लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल के आर-पार आपसी सीमा व्यापार खोलने पर बात नहीं करनी चाहिए, जिसका कि सबको लाभ मिले?
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउन्डेशन, नई दिल्ली के प्रतिष्ठित फेलो हैं)
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