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नेपाल के PM ओली की भारत यात्रा ‘कामयाब’, पर मंडराया ड्रैगन का साया

भारतीय नेतृत्व ने अपनी नाखुशी जताने के लिए सत्ता परिवर्तन से लेकर आर्थिक दबाव तक, हर तरीके का इस्तेमाल किया.

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सारे संकेत यही बताते हैं कि नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की तीन-दिवसीय भारत यात्रा सफल रही. भारत के गृहमंत्री ने ओली की एयरपोर्ट पर अगवानी की, उन्हें विशेष गार्ड ऑफ ऑनर देकर राष्ट्रपति भवन में ठहराया गया और उनकी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ आमने-सामने की लंबी और खुली बातचीत हुई.

इसके बाद 12-सूत्री संयुक्त बयान जारी किया गया. इसमें द्विपक्षीय संबंधों को बराबरी, आपसी विश्वास, सम्मान और लाभ के आधार पर नई ऊंचाइयों पर ले जाने के दोनों प्रधानमंत्रियों के संकल्प पर जोर दिया गया. तीन समझौतों– भारत के एक सीमावर्ती शहर को काठमांडू से जोड़ने की रेल परियोजना, आंतरिक जलमार्ग कनेक्टिविटी और नेपाल में खेती के विकास – पर हस्ताक्षर किए गए.

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असंतोष के बाद जागा भरोसा

यात्रा का मुख्य उद्देश्य था दोनों देशों के बीच विश्वास फिर से बहाल करना, जो कि दो सालों से अधिक समय से बुरी तरह बिगड़ा हुआ था. भारत तब नए नेपाली संविधान में समावेश (मधेशियों को साथ लेकर चलने) और उसके धर्मनिरपेक्ष चरित्र (भारत ने अनौपचारिक तौर पर ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को हटाए जाने की उम्मीद की थी) संबंधी वायदों को लेकर ठगा हुआ महसूस कर रहा था.

ओली के नेतृत्व वाली यूनाइटेड मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट (एमाले) पार्टी को भारत के एजेंडे के विरोध के मुख्य स्रोत के रूप में देखा गया. भारतीय नेतृत्व ने अपनी नाखुशी जताने के लिए सत्ता परिवर्तन से लेकर आर्थिक दबाव तक, हर तरीके का इस्तेमाल किया.

ओली ने दृढ़ और निर्णायक कदम उठाए. उन्होंने भारत-विरोधी रुख के साथ नेपाली राष्ट्रवाद को हवा दी, भारत के इशारे पर उन्हें हाशिये पर डालने के इच्छुक राजनीतिक गठजोड़ों को परास्त किया तथा नेपाल की भारत पर निर्भरता कम करने के लिए चीन कार्ड खेला.

भारत को लेकर विभिन्न मुद्दों पर नेपाल में चल रहे भारी असंतोष ने उनकी सफलता सुनिश्चित कर दी. इनमें भारत की दखलअंदाजी और असंवदेनशील रुख, वायदों को पूरा नहीं किया जाना, और उचित महत्व नहीं देने की प्रवृति का योगदान रहा.

चीन- अदृश्य पर प्रत्यक्ष समस्या

स्पष्टतया दोनों नेतृत्वों की ये भावनात्मक प्रतिक्रियाएं थीं, जिनकी बुनियाद में अहंकारों का टकराव, पर्याप्त विचार किए बिना कदम उठाना और भारी गलतफहमी जैसे कारक थे. न दिखते हुए भी एक बड़ी समस्या चीन की थी, जो भारत के पड़ोस में आर्थिक और सामरिक दोनों ही तरह से मजबूत पैठ बनाने के लिए नेपाल समेत पूरे दक्षिण एशिया में भारत की कमजोरियों का फायदा उठाने का इच्छुक और सक्षम भी है.

इस बारे में एक प्रमुख और आकर्षक साधन के रूप में चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव की अहम भूमिका रही.

दोनों देशों के बीच भूगोल, सभ्यतामूलक संबंध, सांस्कृतिक और सामाजिक बंधनों की बुनियाद पर बने गहन और विस्तृत रिश्तों के रहते संबंधों में तनाव ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकता था.

दिसंबर 2017 में संविधान के तहत स्थानीय, प्रांतीय और संघीय स्तर पर हुए नेपाल के पहले चुनाव में ओली की प्रभावशाली जीत के तुरंत बाद भारत ने नुकसान को नियंत्रित करने का प्रयास किया. मोदी ने ओली को कॉल कर चुनावी जीत पर बधाई दी और ओली की आहत भावनाओं को शांत करने के लिए 'बीते दिनों की कटुता को भुलाने' के संदेश के साथ फरवरी 2018 में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को नेपाल भेजा.

ओली ने भी सकारात्म रुख प्रदर्शित किया और वे अपनी विदेश यात्रा के पहले गंतव्य के रूप में भारत को चुनने की परंपरा का पालन करने पर सहमत हुए. ओली ने यह भी महसूस किया कि चीन में भारत का विकल्प ढूंढने की उनकी मुद्रा आर्थिक वास्तविकता से अधिक एक राजनीतिक बयान थी. वह जानते हैं कि भारतीय सहायता और समर्थन के बिना विकास का उनका चुनावी वायदा पूरा नहीं हो सकता.

एक नाखुश भारत उनके लिए मुसीबत का कारण भी बन सकता है, क्योंकि दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के एकीकरण के बाद भी माओवादियों के साथ उनका गठजोड़ स्वाभाविक रूप से कमजोर और नाजुक बना रहेगा.
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ओली ने नई दिल्ली में अपनी शिकायतों को खुलकर सामने रखने में कोई संकोच नहीं किया. उन्होंने नेपाल की संप्रभुता और स्वतंत्रता की बात करते हुए नेपाल के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने और उसकी संवेदनशीलता का सम्मान किए जाने की मांग की. उन्होंने लंबित पड़ी और वायदा की गई परियोजनाओं को समयबद्ध रूप से तेजी से कार्यान्वित करने की मांग की, नेपाल के भारी द्विपक्षीय व्यापार घाटे को कम करने के लिए ठोस कदम उठाए जाने की उम्मीद जताई तथा नेपाल की राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक विकास के लिए हरसंभव सहायता की अपील की.

उन्होंने अपने सभी मध्यस्थों को बिल्कुल साफ बता दिया कि भारत के मूल सुरक्षा हितों का ध्यान रखने के साथ-साथ वह नेपाल के हितों को बढ़ावा देने के लिए अपने बाकी सभी पड़ोसियों के साथ स्वतंत्र रूप से बातचीत करेंगे. उनके विदेश मंत्री आगाह कर चुके थे कि नेपाल भारत के साथ संबंधों के बुनियादी पुनर्निर्माण की कोशिश कर रहा है.

भारत का दृढ़ संदेश

भारतीय पक्ष सभी सार्वजनिक बयानों में ओली की भावनाओं के अनुरूप दिखा, पर उसने चुपचाप सूक्ष्मता पर दृढ़ता के साथ अवगत कराया कि चीन और पाकिस्तान के साथ उनकी अनावश्यक गर्मजोशी नई दिल्ली को रास नहीं आएगी.

भारत दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (सार्क) के मुकाबले बंगाल की खाड़ी बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग उपक्रम (बिम्सटेक) को मजबूत करना चाहता है, और उसने सुझाव दिया कि ओली सार्क को सक्रिय करने की पाकिस्तानी मांग की वकालत करना छोड़ दें.

अगर नेपाल ने चीन को लेकर भारत की चिंताओं की परवाह नहीं की, तो भारत के पास चीनी सहायता से तैयार पनबिजली परियोजनाओं से बिजली नहीं खरीदने जैसे विकल्प मौजूद हैं. मधेशी मामले को भले ही ठंडे बस्ते में डाल दिया गया हो, पर छोड़ा नहीं गया है.

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चीन आसानी से ओली को जाने नहीं देगा

ओली की यात्रा और दिल्ली में भारत-नेपाल बातचीत की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि दोनों पक्ष किस हद तक अपनी प्रतिबद्धताओं और साथ ही एक-दूसरे की अपेक्षाओं पर खरे उतरते हैं.

निश्चय ही ओली के लिए अपनी दो राजनीतिक परिसंपत्तियों के महत्व को कम करना आसान नहीं होगा- नेपाली राष्ट्रवाद का राजनीतिक लाभ उठाना और चीन कार्ड का इस्तेमाल कर भारत से रियायतें हासिल करना. पहला उनकी राजनीतिक और चुनावी ताकत को दर्शाता है तथा दूसरा चीन के समर्थन और हितों से जुड़ा हुआ है.

नेपाल में राजनीतिक और सामरिक क्षेत्रों में निवेश की तैयारी कर चुका चीन ओली को अपने ड्रैगन आलिंगन से आसानी से नहीं निकलने देगा. इस बात में भी संदेह नहीं कि भारत नेपाल में अपने अहम सुरक्षा और आर्थिक हितों के मद्देनजर इन दोनों ही मामलों में ओली की बाध्यताओं को खुशी से स्वीकार नहीं करेगा.

काठमांडू तक रेल लिंक जैसी परियोजनाएं लेकर भारत ने जानबूझकर चीन के साथ एक ना जीती जानी वाली प्रतिस्पर्द्धा शुरू कर दी है. जहां चीन का वायदा 2022 तक तिब्बत से रेल लिंक काठमांडू लाने का है, भारत 2019 तक अपनी परियोजना का सर्वे कार्य ही पूरा कर पाएगा. ओली चाहते थे कि भारत रेल परियोजना के लिए पांच साल की डेडलाइन का भरोसा लिखित में दे, जो कि भारत जाहिर तौर पर नहीं कर सकता.

इन चुनौतियों को देखते हुए, आने वाले महीनों में ही साफ हो सकेगा कि क्या ओली की यात्रा ने भारत-नेपाल रिश्ते को मजबूती से दोबारा पटरी पर ला दिया है.

(एसडी मुनि जेएनयू के प्रोफेसर , एमिरिटस और भारत के पूर्व विशेष दूत व राजदूत हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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