शनिवार 26 फरवरी को रूस ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में यूक्रेन पर हमले के खिलाफ निंदा प्रस्ताव को अपने वीटो का इस्तेमाल कर रोक दिया. इस प्रस्ताव में ये भी मांग की गई थी कि रूस फौरन यूक्रेन से अपनी सेनाओं को वापस बुलाए. UNSC में वोटिंग के दौरान चीन गैरहाजिर रहा. वहीं 11 देशों ने अमेरिका प्रायोजित इस प्रस्ताव के पक्ष में वोटिंग की.
इस मुद्दे को लेकर हुई बहस और इसके बाद वोटिंग महत्वपूर्ण थी और 24 फरवरी को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन के यूक्रेन पर आक्रमण के खिलाफ कड़े विरोध का सबूत थी.
हालांकि जहां रूस के इस हमले के बाद दुनियाभर के कई देशों का उसके खिलाफ भारी गुस्सा दिखा. वहीं बीजिंग का विदेश मंत्रालय एक सीधे सवाल के जवाब में अनिश्चितता से भरा नजर आया. विदेश मंत्रालय ने साफ तौर पर संयम बरतने की बात दोहराई.
इसके बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में पहले अमेरिका और उसकी नीतियों को कटघरे में खड़ा किया गया और फिर भारत और चीन समेत कई देशों पर साइबर अटैक के आरोप भी अमेरिका पर लगाए गए.
चीन का नजरिया
चीन लंबे समय से रूस के उस विचार का समर्थन करता रहा है कि पूर्व में नाटो का विस्तार यूरोप में स्थायी शांति और स्थिरता के लिए नुकसानदेह होगा. चीन ने पश्चिमी देशों पर युद्ध की स्थिति को भड़काने का भी आरोप लगाया. ये चीनी प्रवक्ता ने रूस की कार्रवाई से ठीक पहले कहा.
नाटो का मुद्दा उस संयुक्त बयान से भी जुड़ा है, जो रूस और चीन ने कुछ समय पहले दिया था. विडम्बना ये है कि इस बयान में दोनों ही सहयोगियों की तरफ से शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की प्रतिबद्धता को लेकर बड़ी बड़ी बातें कही गई थीं.
यहां ये भी साफ है कि बीजिंग को भी दुनिया के बाकी देशों की तरह उम्मीद नहीं थी कि मॉस्को इतना बड़ा खतरा उठाएगा. उसने रूस की आक्रमण की कोई मंशा नहीं है, इस बात पर भी यकीन कर लिया.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के इमरजेंसी सेशन में चीन के स्थायी प्रतिनिधि ने ऐतिहासिक संदर्भ पर ध्यान दिलाया और इसके साथ वो संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के सिद्धांत को सरंक्षित करने की प्रतिबद्धता पर बात करते भी नजर आए. उन्होंने शांति वार्ता को बढ़ावा देने की बात कही.
इसके बाद चीन ने अपनी स्थिति बदली और उसका झुकाव रूस की तरफ हो गया और उसने कहा कि 3800 प्रतिबंधों से कुछ हासिल नहीं होने वाला और चीन के जायज अधिकारो और हितों को नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए.
दूसरी मीडिया ब्रीफिंग में चीन की कठपुतली माने जाने वाले ग्लोबल टाइम्स ने कथित तौर पर अमेरिका द्वारा 9 देशों के खिलाफ, जिसमें रूस और चीन भी शामिल थे, साइबर जासूसी के मामले को लेकर सवाल पूछा. यहां रोचक ये है कि इस मीडिया ब्रीफिंग में भारत और ऑस्ट्रेलिया दोनों ने कहा कि अमेरिका ने अपने Quad सदस्यों को भी नहीं छोड़ा था.
चीन को देखकर अभी तक यही लग रहा है कि उसने यूक्रेन ऑपरेशन का इस्तेमाल अमेरिका पर कीचड़ उछालने के लिए किया और रूस को एक संरक्षित समर्थन दिया. इस स्थिति में चीन के पास कुछ खोने के लिए नहीं है और असल में इससे फायदा ही होगा क्योंकि, अमेरिका का ध्यान फिलहाल चीन से हट गया है.
चीन के स्टैंड का मतलब
हालांकि ये स्थिति बीजिंग के लिए पूरी तरह से फायदे भरी नहीं है. 23 फरवरी को अपनी ब्रीफिंग में अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट के प्रवक्ता नेड प्राइस ने कहा कि चीन और हर जिम्मेदार देश का ये दायित्व बनता है कि वो अपने किसी भी प्रभाव का इस्तेमाल व्लादिमिर पुतिन के पीछे हटने और रूसी फेडरेशन के पैदा किए तनाव को कम करने के लिए करे.
प्राइस ने ये भी कहा कि संयुक्त बयान ऐसे संबंध की तरफ इशारा करता है जिसमें रूस और चीन दोनों इस तरह का वर्ल्ड ऑर्डर चाहते हैं, जो पूरी तरह से अनुदार हो.
पर यहां एक बात साफ थी कि बीजिंग को रूस के बीच बचाव में आना पड़ेगा अगर वो खुद को सच में उसका एक गंभीर सहयोगी मानता है.
प्रवक्ता का जवाब न सिर्फ चीन के उपनिवेश बसाने की बात को ताजा करने को लेकर था बल्कि ये अमेरिका के दूसरे देशों के खिलाफ तैयार होने को लेकर और उस सोच को लेकर भी था कि चीन सिक्योरिटी काउंसिल का एकमात्र स्थायी सदस्य है जिसने अभी तक टूटे इलाकों को एक राष्ट्र में जोड़ा नही है.
इस इवेंट में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पुतिन से शीत युद्ध की मानसिकता को खारिज करने और सभी के लिए वाजिब सुरक्षा चिंताओं का समर्थन करने को लेकर बहुत सावधानीपूर्वक और संतुलित तरीके से बात की. उन्होंने यूक्रेन के मामले को बातचीत से सुलझाने और एक संतुलित यूरोपियन सिक्योरिटी मेकैनिज्म को लेकर रूस का समर्थन किया.
प्रतियोगिता का अर्थशास्त्र
चीन, यूक्रेन का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है. यूक्रेन की State Statistics Service के मुताबिक, साल 2020 में यूक्रेन और चीन के बीच कारोबर का टर्नओवर $15.4 बिलियन डॉलर तक था. वहीं यूक्रेन से चीन में वस्तुओं का निर्यात 7.1 बिलियन डॉलर तक बढ़ा और चीनी सामान का यूक्रेन को आयात 8.3 बिलियन डॉलर तक रहा.
यूक्रेन की कोशिश रही कि वो अपने चाइना कार्ड का इस्तेमाल अमेरिका से अच्छी डील का फायदा उठाने के लिए करे और ये था, यूक्रेनियन स्टेट का Motor Sich के शेयर्स और ऐसेट्स पर अधिकार, जो पिछले साल दुनिया का सबसे बड़े एयरक्राफ्ट इंजन उत्पादक था.
इसके बाद यूक्रेन ने कई संवेदनशील सेक्टर्स जिसमें डिफेंस भी शामिल है, इसमें विदेशी निवेश को रोकने के लिए कानून बनाया. हालांकि चीन की कई बड़ी कंपनियां बेल्ट एंड रोड एनीशिएटिव के लिए काम कर रही हैं, जिस पर कीव ने हस्ताक्षर किए हैं.
चीन कारोबार में भी रूस का सबसे बड़ा सहयोगी है. चीन की कस्टम्स एजेंसी के मुताबिक, साल 2021 में चीन और रूस के बीच कारोबार रिकॉर्ड $146.9 बिलियन डॉलर के सबसे उच्च स्तर पर पहुंच गया. ये साल दर साल 35.8 प्रतिशत तक बढ़ा है. वहीं चीन का रूस से आयात, निर्यात से 10 बिलियन डॉलर से ज्यादा तक बढ़ा है. चीन ने ग्लोबल ट्रेड में अपने शेयर में 15 प्रतिशत तक की बढ़त हासिल की. वहीं रूस ने वर्ल्ड एक्सपोर्ट्स सिर्फ 1.49 प्रतिशत की बढ़त बनाई.
हालांकि ये दोनों मिलकर भी टोटल शेयर्स के मामले में G-7 अर्थव्यवस्थाओं की बराबरी नहीं करते, जो 45.8 प्रतिशत है. ऐसा माना जा रहा है कि ये सभी बातें चीन और रूस की पहुंच को खत्म कर सकती हैं. इसकी पहली झलक इटली के लग्जरी सामान के उत्पादकों और बेल्जियम के डायमंड मैन्यूफैक्चररर्स की ना में दिख गई है, जो प्रतिबंधों की व्यवस्था का हिस्सा बन गए हैं.
वहीं दुनिया को प्रतिबंधों वाले शासनों में बांटना आसान काम नहीं है. इस बीच भारत के लिए, चीन का क्षेत्रीय संप्रभुता और अखंडता को समर्थन देना विडंबना से भरा नजर आता है क्योंकि, लद्दाख और इससे लगी दूसरी सीमाओं पर वो लगातार टकराव की स्थिति पैदा करता रहा है. जबकि भारत की खुद को अंतरराष्ट्रीय संबंधों में तर्कशील स्तंभ के तौर पर बनाए रखने की रुचि साफ नजर आती है. यहां ये निश्चित नहीं है कि बीजिंग क्या चाहता है.
एक पुनर्जीवित मजबूत रूस जो मध्य एशिया और कहीं भी अपनी जगह वापस ले सकता है, वो मुश्किल से ही चीन की महत्वाकांक्षा को पूरा कर पाएगा.
वहीं एक कमजोर और खतरनाक ढंग से अस्थिर रूस भी पश्चिम में चीन की सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं कर सकता. इसलिए ऐसा लगता है कि चीन इस घटना का इस्तेमाल करके रूस और यूरोप को एक समझौते पर लेकर आना चाहता है और ये बताना चाहता है कि अमेरिका की लाइन इन दोनों के लिए हानिकारक है. ये वो बात है जिससे फ्रांस और जर्मनी में पहले ही कई लोग सहमत हैं.
भारत ने लद्दाख में चीन की क्रूर स्ट्रैटजी देखी है. यूरोप अब कूटनीतिक मामलों में इसी स्ट्रैटजी से चलने जा रहा है और इसे बड़ा समर्थन भी है.
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