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तिब्बती भिक्षुणियों पर जुल्म और उनकी पहचान मिटाने पर तुला है चीन

तिब्बत पर चीनी कब्जे के बाद यहां धर्म कई बदलावों से गुजरा है

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चीन तिब्बत में महिलाओं पर जुल्म ढा रहा है. लगातार तिब्बती बौद्धों की निगरानी की जा रही है. एक एजेंडे के तहत उनकी विचारधारा को बदलने की कोशिश हो रही है. खासकर तिब्बती बौद्ध भिक्षुणियों को  उनकी पहचान खत्म कर चीनी बनाने की कोशिश की जा रही है.

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तिब्बती महिलाओं के बारे में विरोधी नजरिया

चीनी मीडिया द्वारा प्रोपेगैंडा और पक्षपातपूर्ण कवरेज दिखाया जा रहा है, इसमें यह कहा जा रहा है कि चीन के कम्युनिस्ट शासन में तिब्बती महिलाओं को ताकतवर बनाया गया और बढ़ावा दिया गया. जबकि हकीकत ये है कि शी जिनपिंग के शासन में आने के बाद भिक्षुणियों की स्थिति बेहद दयनीय है. उन्हें अपनी परंपराओं और धार्मिक प्रथाओं का पालन करने से रोका जा रहा है और तिब्बती पहचान खत्म कर चीनी बनाने की कोशिश की जा रही है.

देश की अनिवार्य नीति ये बताती है कि धर्म का किस तरह का पालन करना चाहिए, लेकिन जिस तरह तिब्बती नन अपने धर्म का पालन करती हैं, वह अपनी धार्मिक नैतिकता और मूल्यों को बनाए रखती हैं.

इनमें से हाल ही में एक पॉलिसी तिब्बत लागू की गई है, जिसे 'चार मानक' कहा जाता है. इसकी प्रैक्टिस अक्टूबर 2019 में तिब्बत के शुगसेप महिला मठ में की जा चुकी है.

'चार मानक' राष्ट्रीय स्थिरता बनाए रखने के लिए भिक्षुओं और ननों को देश के प्रति वफादार होने के लिए मजबूर करते हैं. अभी हाल ही में चीनी सरकार ने भिक्षुओं और ननों को एक आदर्श भिक्षुओं और ननों का खिताब देकर इस धार्मिक नीति को लागू किया है. इस कारण से ऐसा दिखाई देता है कि तिब्बती महिलाओं का सशक्तीकरण सरकार समर्थित और चीनी उपनिवेशिक विमर्श का हिस्सा है. जबकि इसके उलट, देश की धार्मिक नीति और तिब्बती मठों में बढ़ती घुसपैठ ने ननों की तिब्बती पहचान को पूरी तरह नकार दिया है.

तिब्बत में चीन की धार्मिक नीतियां

तिब्बत पर चीनी कब्जे के बाद यहां धर्म कई बदलावों से गुजरा है. 1949 में पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चीन के गठन के साथ ही तिब्बत उसका उपनिवेश बन गया और तिब्बती बौद्ध प्रथाओं और उनकी महत्वों की निंदा की जाने लगी.

माओ की सांस्कृतिक क्रांति (1966-1976) के दौर में तिब्बती बौद्धधर्म में बहुत बड़ा उलटफेर हुआ, जिसके नतीजे में तिब्बती बौद्ध धर्म का काफी नुकसान हुआ. सांस्कृतिक क्रांति के बाद के सालों में सरकार ने इस तरह की कुशल नीतियां बनाई, जो धर्म को पूरी तरह से खारिज तो नहीं करती थीं. हालांकि उसने तिब्बती समुदाय और उनके मठों के बीच धार्मिक प्रथाओं पर अंकुश लगाया, जो संभवत: उनकी तिब्बती राष्ट्रीय पहचान की ओर ध्यान आकर्षित करती है.

तिब्बत में सरकार की धार्मिक नीति की अधिकता की वजह से आज तिब्बती बौद्ध धर्म को व्यापक रूप से देश के समाजवादी विमर्श में शामिल किया है.

पिछले कुछ सालों से पुरुषों और महिलाओं के मठों में तिब्बती मठ प्रणाली में सरकार की गहन निगरानी ने तिब्बती बौद्ध धर्म के पारंपरिक प्रबंधन प्रणाली को पूरी तरह से कमजोर किया है.

जियांग जेमिन की 'आवास नीति' में कहा गया है कि देश की जरूरतों के लिए धर्म को 'पालना-पोसना' चाहिए, जिसने प्रभावी रूप से धार्मिक नैतिकता को कमजोर किया और इससे राष्ट्रीय हित को सर्वोपरी रखने में बढ़ावा मिला.

तिब्बती बौद्ध धर्म पर यह पद्धतिबद्ध कार्रवाई एक बड़े समाजवाद का दिखावाभर है, जो शी जिनपिंग के दौर में व्यापक रूप से प्रभावी हाे रहा है.
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लारुंग गार और यचेन गार की कहानी

सेर्ता लारुंग गार और यचेन गार तिब्बत के खाम प्रांत की दो सबसे महत्वपूर्ण बौद्ध एकेडमी हैं. इन्हें इनके संस्थापकों की महान दूरदर्शिता के कारण काफी शाेहरत मिली. इसके दो संस्थापक खेन्पो जिग्मे फुन्स्टोक और अचुक रिन्पोच महत्वपूर्ण तिब्बती बौद्ध गुरु हैं. सांस्कृतिक क्रांति के दौरान हुए भारी नुकसान के बाद इन दोनों संस्थानों की स्थापना को तिब्बती बौद्ध धर्म के पुर्नरुद्धार के लिए एक मील का पत्थर माना जाता है.

1990 से तिब्बती ननों को खेन्मो डिग्री (यह पीएचडी के बराबर मानी जाती है) दी जाती थी. जिससे इन संस्थानों में महत्वपूर्ण बदलाव आया, इसके पीछे भी इन संस्थापक तिब्बती गुरुओं की सोच थी.

1990 से तिब्बती ननों को खेन्मो डिग्री (यह पीएचडी के बराबर मानी जाती है) दी जाती थी. जिससे इन संस्थानों में महत्वपूर्ण बदलाव आया, इसके पीछे भी इन संस्थापक तिब्बती गुरुओं की सोच थी.

इस प्रकार, ये दो धार्मिक संस्थान न केवल तिब्बती धार्मिक अध्ययन को आगे बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि तिब्बती ननों के लिए महिलाओं के सशक्तीकरण और उनके धार्मिक उत्थान के लिए बेहद अहम हैं.

चूंकि खेन्मो डिग्री तिब्बती बौद्ध समुदाय के इतिहास में एक महान उपलब्धि है. इसलिए संस्थानों की महान प्रतिष्ठा के वजह से तिब्बत के कई इलाकों से कई नन यहां शामिल होने आईं. हालांकि इन संस्थानों में सरकारी निगरानी की वजह से ननों को काफी तकलीफ हुई है. खासकर इस बात काे लेकर कि वह कैसे अपनी धार्मिक रस्मों को निभाती हैं और अध्ययन करती हैं.

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तिब्बती बौद्ध ननों की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को मिटाना

इसके अलावा, 2001 में और शी जिनपिंग प्रशासन के दौर में कई ननों को यहां से बेदखल किया गया और लारुंग गार और यचेन गार में ननाें के आवासों को भी ध्वस्त किया गया. यहां से बाहर की गई ननों को सरकार ने पकड़ लिया और उन पर वापस एकेडमी में अध्ययन करने पर भी पाबंदी लगा दी. तिब्बती सेंटर फॉर राइट्स एंड डेमोक्रेसी (टीसीएचआरडी) की 2016 की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, यचेन गार और लारुंग गार से निकाली गई ननों को सरकार द्वारा दोबारा से राजनीति की शिक्षा दी गई.

जिन ननों को यहां रहने की अनुमति दी गई, उन्हें 2016 में लारुंग गार में जुलाई से अक्टूबर तक कानूनी शिक्षा में भाग लेने के लिए मजबूर किया गया.

2016 में 6वें वर्क फोरम कॉन्फ्रेंस और द सेकंड नेशनल वर्क कॉन्फ्रेंस के दौरान प्रशासन ने फैसला लिया, जिसके बाद लारुंग गार को ध्वस्त करना शुरू किया गया. 2019 में, यचेन गार में भी ननों को एक बार फिर से विध्वंस और बेदखली का सामना करना पड़ा.

अगस्त 2020 में आयोजित 7वें तिब्बत वर्क फोरम में शी जिनपिंग के बयानों से साफ जाहिर है कि तिब्बत में अब तिब्बती बौद्ध धर्म को खत्म कर उन्हें चीनी बना देना है.

'चीन के राष्ट्रीय सपने' को साकार करने के लिए तिब्बत के अधिकांश मठ, महिला मठ और संस्थान अब सरकार के अधीन हो गए हैं. चीन तिब्बती ननों को हिरासत में लेकर, बेदखल करके और उन्हें दोबारा से शिक्षा देने वाले कार्यक्रम में शामिल कर उनकी पहचान खत्म कर रहा है, तिब्बती बौद्ध स्थानों पर सरकार के कब्जा ननों को कमजोर करने की ओर कदम है.

यह तिब्बती ननों को उनके सांस्कृतिक और धार्मिक जड़ों से वंचित करने के बराबर है. जिनके लिए बौद्ध नैतिकता और मूल्य कई सदियों से सशक्तीकरण का स्रोत रहे हैं. हालांकि तिब्बतियों के लिए किसी भी रूप में विरोध करना सामान्य तौर पर मुश्किल है, इसमें कम्युनिस्ट शासन द्वारा अलगाववादी करार दिए जाने का खतरा भी है.

(ताशी चोईदोन तिब्बत पॉलिसी इंस्टीट्यूट में रिसर्च फैलो हैं. यह एक ओपनियन लेख है. ये लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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