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धर्मांतरित दलित ईसाई और मुस्लिमों को आरक्षण देने के पीछे के तर्क

SC में एक याचिका पर चर्चा जारी है, जिसमें दलित ईसाइयों और मुस्लिमों को अनुसूचित जातियों में शामिल करने की मांग है.

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हाल ही में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में धर्मांतरण और आरक्षण के मुद्दे पर एक दो दिवसीय सम्मेलन का आयोजन किया गया. इस सम्मेलन में पूर्व और निवर्तमान जज, कुलपति, प्रोफेसर, पत्रकार और अनेकों बुद्धिजीवियों ने हिस्सा लिया. अखबारों में छपी खबरों के मुताबिक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) के हवाले से बताया गया कि संघ से जुड़े वक्ताओं ने धर्मांतरित व्यक्तियों ईसाइयों और मुस्लिम के लिए आरक्षण का विरोध किया.

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अखबारों में छपी इन खबरों में ऐसा दिखाया गया है मानो सरकार धर्मांतरित दलित ईसाइयों या मुस्लिम को आरक्षण देने पर विचार कर रही है. अतः इस बात को लेकर भ्रम फैलना स्वाभाविक है. आरक्षण संबंधी इस भ्रम को दूर करने के लिए दलित ईसाइयों और दलित मुस्लिमों की अवधारणा के बारे में स्पष्टता जरूरी है.

असल में इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका पर चर्चा की जा रही है, जिसमें दलित ईसाइयों और मुस्लिमों को अनुसूचित जातियों में शामिल करने की मांग की गई है.

इस संबंध में सरकार ने भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश और राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्री के जी बालाकृष्णन की अगुआई में एक तीन सदस्यों के आयोग का गठन किया है, जो इस मसले पर सरकार को अपनी दृष्टि स्पष्ट करने के लिए अध्ययन कर रहा है और 2024 में अपनी रिपोर्ट पेश करेगा.

इस पूरे क्रियाकलाप के पीछे मुस्लिम और ईसाई संगठन की एक मांग है, जिसमें वह खुद को अनुसूचित जातियों में शामिल करने की मांग कर रहे हैं. अभी तक केवल हिन्दू, सिख और नव-बौद्धों के अस्पृश्य एवं बहिष्कृत वर्गों (जातियों) को ही संवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 के तहत अनुसूचित जाति के तौर पर अनुसूचित किया गया है.

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मुस्लिम और ईसाई संगठनों का तर्क

इसी बात को लेकर मुस्लिम और ईसाई संगठनों का कहना है कि संविधान के अनुच्छेद 341 में किसी भी धर्म विशेष का जिक्र नहीं है, इसलिए राष्ट्रपति द्वारा अनुसूचित जाति संबंधी 1950, 1956 और 1990 में दिए गए आदेश संविधान में अनुच्छेद 14 में दिए गए समता, अनुच्छेद 15 के केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या भाषा के आधार पर भेदभाव के अधिकार और अनुच्छेद 25 के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं.

जैसा कि ईसाई और इस्लाम दोनों ने हमेशा ही खुद को अस्पृश्यता-मुक्त बताया है और दोनों ही अपने-अपने धर्मों में अस्पृश्यता नकारते रहे हैं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट में पेश गाजी सादुद्दीन बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र एवं अन्य की दीवानी अपील और जनहित याचिका के जरिए मुस्लिम और ईसाई संगठन क्या साबित करना चाहते हैं?

वैश्विक स्तर पर संगठित और संस्थागत तौर पर सशक्त मुस्लिम और ईसाई समाज आखिर समाज के सबसे कमजोर तबके में क्यों शामिल होना चाहते हैं?

इन्हीं सवालों को केंद्र मे रखकर भारत सरकार ने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश (सेवानिवृत्त) न्यायमूर्ति के जी बालकृष्णन की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय आयोग नियुक्त किया है. यह आयोग उन लोगों के अनुसूचित जातियों में शामिल होने के दावे पर विचार करेगा, जो धर्मांतरण कर मुस्लिम या ईसाई बन गए और ऐतिहासिक रूप से अनुसूचित जाति के होने का दावा करते हैं.

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अनुसूचित जातियां कहां से आईं?

मुस्लिम और ईसाइयों का प्रमुख सवाल अनुसूचित जातियों में शामिल होने का है इसलिए यह समझना जरूरी है कि अनुसूचित जातियां या इससे संबंधित शब्दावली की शुरुआत कैसे हुई.

भारत को उत्तरदायी शासन सौंपने के लिए ब्रिटेन में तीन गोलमेज सम्मेलन हुए. इन सम्मेलनों में डॉक्टर अंबेडकर के प्रयासों के चलते ब्रिटिश सरकार ने भारत के “बहिष्कृत और अस्पृश्य” के लिए 1932 में अलग निर्वाचन का ऐलान किया.

इसके तुरंत बाद गांधी जी ने इसके खिलाफ आमरण अनशन कर दिया. इस अनशन की परिणति गांधीजी के नेतृत्व में हिन्दू समाज और डॉक्टर अंबेडकर के नेतृत्व में अस्पृश्य समाज के बीच पूना पैक्ट हुआ. इसी पूना पैक्ट के बाद ब्रिटिश संसद ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट 1935 पारित किया, जिसमें दलित वर्गों के लिए सीटों का आरक्षण शामिल किया गया, जिसे 1937 में लागू किया गया.

शेड्यूल्ड कास्टस (अनुसूचित जातियों) को इसी एक्ट में पहली बार परिभाषित किया गया. इस संबंध में ब्रिटिश भारत सरकार (अनुसूचित जाति) आदेश, 1936 में ब्रिटिश-प्रशासित प्रांतों में जातियों का एक शेड्यूल (या अनुसूची) शामिल थी. इस शेड्यूल (अनुसूची) में होने की वजह से ही “अस्पृश्य और बहिष्कृत जातियों” का नाम अनुसूचित जातियां पड़ा.

आजादी के बाद संविधान सभा ने अनुसूचित जातियों की पहले से चली आ रही परिभाषा को जारी रखा और राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 341 के तहत कान्स्टिटूशन (शेड्यूल्ड कास्ट) आदेश, 1950 में जातियों का एक शेड्यूल या लिस्ट जारी किया.

1956 में राज्यों के पुनर्गठन के बाद इसे कान्स्टिटूशन (शेड्यूल्ड कास्ट) आदेश, 1956 और वर्ष 1990 में “अस्पृश्य और बहिष्कृत” नव-बौद्धों को भी शामिल करने के लिए 1990 का आदेश जारी किया गया. केन्द्रीय सरकार ने संशोधित आदेश में स्पष्ट किया कि कोई भी व्यक्ति को, जो हिंदू, सिख या बौद्ध धर्म को छोड़ अन्य किसी धर्म को मानता है, वह अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जाएगा.

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सरकार का यह आदेश संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुरूप है, जिसमें सिख, बौद्ध और जैन को हिंदुओं की बृहत्तर परिभाषा में रखा गया है.

केन्द्रीय सरकार की कार्रवाई

कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार ने मार्च 2005 में पूर्व मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र की अध्यक्षता में “राष्ट्रीय धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक आयोग” का गठन किया. इस आयोग को “आरक्षण के संबंध में 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा तथा साथ ही अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल किए जाने की रीतियों के संदर्भ में संवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 के पैरा 3 से संबंधित उच्चतम न्यायालय तथा कतिपय उच्च न्यायालयों में दायर की गई रिट याचिकाओं में उठाए गए मुद्दों के संबंध में सिफारिशें प्रस्तुत करना” था. न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट को 18 दिसंबर 2009 को संसद के दोनों सदनों में पेश किया गया, जहां विचार-विमर्श के बाद उसकी सिफारिशों को स्वीकार नहीं किया.

इसके अलावा यूपीए सरकार ने मार्च 2005 में मुस्लिम के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थितियों का अध्ययन करने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया.

सच्चर कमेटी के नाम से प्रसिद्ध इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि धर्मांतरण के बाद दलित मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हुआ.
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जस्टिस मिश्र आयोग और जस्टिस सच्चर कमेटी रिपोर्टों ने अलग-अलग तरीके से ईसाई और मुस्लिम धर्मों की “अस्पृश्य और बहिष्कृत जातियों” को अनुसूचित जातियों में शामिल करने की पैरवी की. जस्टिस मिश्र आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है कि अन्य पिछड़ा वर्ग की राज्यवार तैयार सूची में धर्म और जाति निर्पेक्ष अल्पसंख्यक समुदाय शामिल किए गए थे. कई राज्यों में नव-बौद्ध, ईसाइयत और इस्लाम में परिवर्तित अनुसूचित जातियों को इन सूचियों मे शामिल किया गया.

इसलिए महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जब अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) में दलित-मूल के ईसाई और मुस्लिम को पहले से ही सरकारी सेवा और शिक्षा में ओबीसी के तहत आरक्षण प्राप्त है, तो संघ द्वारा धर्मांतरित दलित ईसाइयों और मुस्लिम के आरक्षण के विरोध के क्या कुछ और भी निहितार्थ हैं?

(लेखक नेशनल कॉन्फेडरेशन ऑफ दलित एंड आदिवासी ओर्गानाईजेशन्स (नैकडोर) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)

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