भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष आधार पर हमला हुआ है. अब जल्द ही व्यक्ति विशेष के धर्म से देश की नागिरकता तय होगी. संसद के दोनों सदनों ने नागरिकता संशोधन बिल (सीएबी) को पारित कर दिया है. राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद अब ये कानून बन चुका है. यह बिल अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के गैर मुस्लिम शरणार्थियों को विशेषाधिकार देता है.
घुसपैठ मिटा देने की महत्वाकांक्षा से जोड़कर प्रस्तावित नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन को देखने पर कहा जा सकता है कि यह बिल 20 करोड़ भारतीय मुसलमानों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है.
लोकसभा में विपक्ष की ओर से विरोध में उत्साहपूर्ण तर्क के बावजूद सीएबी के आसानी से पारित हो जाने को लेकर कोई संदेह नहीं था. बिल लाने वाली सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में इसके सहयोगी दलों ने लोकसभा में बहुसंख्यक होने का जश्न मनाया है.
राज्यसभा में इसे रोकने की कोशिश हो सकती थी, जहां सत्ताधारी गठबंधन के लिए अंकगणित अधिक चुनौतीपूर्ण है. लेकिन इस बाबत एनडीए खेमे से बाहर के राजनीतिक दलों और एनडीए के सहयोगी दलों, जिनकी अतीत में धर्मनिरपेक्षा में आस्था रही है, उनसे समर्थन लिया जाना था- या तो मुखर समर्थन या फिर मतदान से दूर रहकर.
राजनीतिक दल या अदालतें क्यों, संघर्ष बढ़ाना जरूरी
चिंता की बात यह है कि सीएबी को लागू करते समय इन राजनीतिक दलों की आंखें बंद नहीं थीं. राज्यसभा के पटल पर सीएबी से बाहर की गयी बातों पर ध्यान अधिक केन्द्रित किया गया. बिल पर मुहर लगाने से पहले ये दल अल्पसंख्यकों से मैत्री भाव बनाए रखने का शोर मचाना नहीं भूले. गैर बीजेपी दलों में से कई दलों को कोई खास फायदा होने वाला नहीं है जिन्होंने सुर में सुर मिलाए और सीएबी का समर्थन किया. अन्य बातों के बजाए यह कार्यकर्ताओं और मतदाताओं के बिखराव का ही डर था, जिसने इन्हें एक साथ आने को मजबूर किया.
सीएबी के कानून बनने और बड़े पैमाने पर राष्ट्रविहीनता (स्टेटलेस) की स्थिति पैदा होने की वाजिब आशंका को रोकने के लिए आलोचकों की उम्मीदें अब न्यायपालिका पर ठहर गयी हैं. बहरहाल जिस मजबूती और विश्वास के साथ आम लोगों ने देशवासियों और संविधान के साथ खड़ा होने का विकल्प चुना है, वह बताता है कि इस ताकत की अनदेखी मुश्किल होगी.
इस राह पर चलना आसान नहीं है. संविधान के अभिभावक के तौर पर अदालत की छवि, चाहे वो सही हो या गलत, समय के साथ डराने वाली रही है. लोकप्रिय इच्छा और साफ तौर से बहुमत के हितों को नुकसान कर सकने वाला फैसला मुश्किल होता है. ऐसा इसलिए भी कि इन दिनों भारत में स्पष्ट रूप से अल्पसंख्यको को अलग-थलग करने का सतत अभियान चल रहा है.
गंवाने के लिए वक्त नहीं है
स्पष्ट रूप से हम उस स्थिति में आ गये हैं जहां बेहद बेचैन करने वाले प्रस्तावों के कानून में शुमार होने की पूरे आसार हैं. निश्चित रूप से विपक्ष ने पहले भी देश को आगाह किया था और संसद में महत्वपूर्ण बिन्दु उठाए. इससे आगे चर्चा और बहस के लिए दबाव और स्थितियां बनीं (इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं), लेकिन बीजेपी और सीएबी पर इसका समर्थन करने वाले दूसरे दलों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वास्तव में इसे रोक पाने में मिली विफलता की वजह प्रतिकूल परिस्थितियां हैं.
यह मान लेना भ्रम होगा कि सीएबी अपने किस्म का आखिरी अवसर है. दूसरे भी इसकी चपेट में आ सकते हैं. जो लोग इसका प्रतिरोध करना चाहते हैं उन्हें सीएबी और हाल में पारित हुए अन्य विवादास्पद बिलों के अनुभव से सही सबक लेने की जरूरत है.
कई कारक हैं जिनसे संघर्ष करने की जरूरत हैं. बीजेपी वैचारिक अभियान चला रही है, उसकी राजनीतिक जरूरत है और वह मजबूत नियंत्रण के लिए संदेश देने में जुटी है. कई गैर एनडीए दल और एनडीए के सेकुलर माने जाने वाले दल सत्ता के लोभ में चुप हैं और उस संविधान के साथ खड़े नहीं हो रहे हैं जिसे बचाए रखने की उन्होंने शपथ ली है. विपक्ष की रणनीति कमजोर है.
नागरिकों का उठ खड़ा होना जरूरी
जिन लोगों ने साफ तौर पर सीएबी का विरोध किया है उनके लिए चीजें स्पष्ट हैं. आगे बढ़ने के लिए उन्हें एक होना होगा. चाहे वह चुने हुए प्रतिनिधियों के प्लेटफॉर्म हों या फिर ज़मीन का मोर्चा- दोनों मोर्चों पर इन्हें अपनी गिनती बढ़ानी होगी, अपना वजन बढ़ाना होगा. उन्हें अलग-थलग करने के लिए बचकाने तरीके सामने आएंगे, जैसे निश्चित जानिए कि इन्हें पाकिस्तान की भाषा बोलने वाला कहा जाएगा. सीएबी के विरोधियों को अपने प्रतिरोध की आवाज़ की निरंतरता बनाए रखनी होगी. विरोध प्रदर्शन के अवसरों को बीजेपी ने अपने लगातार प्रयासों से अपने अनूकूल ढाल लिया है और इस काम में इसके विशाल तंत्र ने खुद को झोंक रखा है.
अगर नीतीश कुमार को पसंद करने वाले उम्मीद में हैं कि इस उथल-पुथल से वे बच निकलेंगे, अगर अन्नाद्रमुक खामोश बनी हुई है और सीएबी में तमिल हितों की बात को नजरअंदाज कर पा रही है तो इसकी वजह ये है कि इसके कार्यकर्ताओं और मतदाताओं ने अतीत में आसानी से उन्हें ऐसा करने दिया है.
इस बार भी वे उन्हें क्षमा कर दे सकते हैं. लेकिन अगर सीएबी पर उनके निर्णय ने असंतोष की आवाज़ को भड़काया और पार्टी में इस्तीफे शुरू हो गये, तो भविष्य में चीजें बिल्कुल अलग तरीके से सामने आने वाली हैं.
आम नागरिकों के लिए एकजुट करने वाली सियासत को आगे बढ़ाना और किसी गलती को सही करना मुश्किल होता है. इसके लिए जरूरी है कि अहंकार, वर्तमान प्रतिद्वंदंविता और अतीत में हुए नफा-नुकसान के गणित से बाहर निकलें. और, सबसे महत्वपूर्ण है कि अपनी कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलें. लेकिन, कोशिश का यह अवसर न छोड़ें. हममें से जो लोग जानते हैं कि सामने आयी बातों को बिना लाग-लपट के दूसरो को बताना जरूरी है वे अनंत इंतज़ार के बजाए खुद को एक अवसर दें. इस बात को समझें कि हमने खुद के लिए जो संविधान बनाया है उसकी रक्षा के लिए हम दृढ़ प्रतिज्ञ हैं.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)