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CAA लागू होने से पहले नागरिकता पर नई अधिसूचना गैरकानूनी-तर्कहीन  

यह मूल कानून का विरोधाभासी है और नागरिकता एक्ट और भारत के संविधान, दोनों का उल्लंघन करता है

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28 मई, 2021 को गृह मामलों के मंत्रालय ने अधिसूचना जारी की है. इस अधिसूचना के जरिए गुजरात, छत्तीसगढ़, राजस्थान, पंजाब और हरियाणा के 13 जिलों के डिस्ट्रिक्ट कलेक्टरों और हरियाणा और पंजाब के होम सेक्रेटरी को अधिकार दिया गया है कि वे अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों को रजिस्ट्रेशन और नेचुरलाइजेशन के जरिए नागरिकता देने वाले आवेदनों पर कार्रवाई कर सकते हैं.

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हालांकि इस अधिसूचना में जिन समुदायों और देशों को चुना गया है, वे नागरिकता संशोधन एक्ट, 2019 (CAA) के ही समान हैं, लेकिन इस अधिसूचना को नागरिकता एक्ट, 1955 के सेक्शन 5 और 6 के असंशोधित प्रावधानों के तहत ही जारी किया गया है.

इस नई अधिसूचना के क्या मायने हैं

कई रिपोर्ट्स में कहा गया है कि इस अधिसूचना के जरिए केंद्र सरकार धर्म आधारित नागरिकता को लागू करने की कोशिश कर रही है क्योंकि सीएए के तहत नियम अभी बनाए नहीं गए हैं, लेकिन यह इस नई अधिसूचना की सही व्याख्या नहीं है.

28 मई की अधिसूचना में वह आधार नहीं दिया गया है जिसके तहत नागरिकता दी जाएगी- इसमें सिर्फ यही कहा गया है कि अधिसूचना के तहत अधिकृत अधिकारी नागरिकता के आवेदनों पर कार्रवाई कर सकते हैं, लेकिन इन 3 देशों के सिर्फ इन 6 धर्मों के लोगों को. लेकिन आवेदनों पर उन्हीं पूर्व मानदंडों के तहत कार्रवाई की जाएगी.

इसे ऐसे समझा जा सकता है कि विभिन्न जिलों में रीजनल ट्रांसपोर्ट ऑफिसेज़ यानी आरटीओ के वर्कलोड को कम करने के लिए परिवहन मंत्रालय ताल्लुका स्तर पर कई अतिरिक्त आरटीओ विंडो खोल रहा है. लेकिन अधिसूचना कहती है कि इन आरटीओ काउंटरों पर मुसलमानों के वाहन के रजिस्ट्रेशन और ट्रांसफर आवेदन को प्रोसेस नहीं किया जाएगा, और उन्हें अब भी क्षेत्रीय मुख्यालयों में ही आवेदन करना होगा.

इस तरह रजिस्ट्रेशन/ट्रांसफर के आवेदनों पर कार्रवाई करने का आधार मुसलमानों और गैर मुसलमानों के लिए पहले जैसा ही रहेगा, पर गैर मुसलमानों को अतिरिक्त केंद्रों की सुविधा दे दी गई है, जहां उनके आवेदनों को फाइल और प्रोसेस किया जा सकता है. यह अंतर इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह अधिसूचना उस मकसद को भी पूरा नहीं करती, जिसका सीएए में दावा किया गया था. यह धर्म के आधार पर एक ही स्थिति में रहने वाले लोगों के बीच भेद करती है, और इसका कोई तर्कसंगत कारण भी नहीं बताती.

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नियम और अधिसूचनाएं कानून से परे नहीं जा सकतीं

हमें यह बात माननी होगी कि सीएए को संसद में पास किया गया था और यह एक वैधानिक अधिनियम है जो नागरिकता का आवेदन करने वाले विदेशी नागरिकों को धर्म और देश के आधार पर दो वर्गों में बांटता है. वैसे इस मुद्दे को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है कि संसद के पास धर्म के आधार पर गैर नागरिकों के बीच भेद करने का अधिकार है या नहीं. पर किसी शासकीय आदेश के जरिए ऐसा वर्गीकरण करना पूरी तरह से गैर कानूनी है.

इस अधिसूचना को नागरिकता एक्ट के सेक्शन 5 और 6 के तहत जारी किया गया है जिसमें सीएए ने संशोधन नहीं किया था.

सेक्शन 5 बताता है कि ऐसे किसी भी शख्स को रजिस्ट्रेशन के जरिए नागरिकता दी जा सकती है जो ‘अवैध प्रवासी नहीं है’. सेक्शन 6 में भी आवेदन प्रक्रिया वैसी ही है. इसके तहत ‘पूरी उम्र और क्षमता का कोई व्यक्ति, जो अवैध प्रवासी नहीं है’ को नेचुरलाइजेशन के जरिए नागरिकता दी जा सकती है.
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संविधान और कानून का उल्लंघन

इस कानूनी सिद्धांत से सभी वाकिफ होंगे कि नियम और अधिसूचनाएं कानून से परे नहीं जा सकतीं और कार्यकारिणी को मिली शक्तियां भी कानून के दायरे में ही आती हैं. इसलिए जब कानूनी प्रावधान सभी गैर नागरिकों के लिए नागरिकता के आवेदन के लिए एक ही रास्ता बताते हों तो प्रावधानों के तहत मिली शक्तियों का इस्तेमाल करके गैर नागरिकों के बीच एक उप वर्ग नहीं बनाया जा सकता, वह भी धर्म के आधार पर.

यह मूल कानून का विरोधाभासी है और नागरिकता एक्ट और भारत के संविधान, दोनों का उल्लंघन करता है.

और, अब यह भी साफ है कि सीएए में चुनिंदा समुदायों को नागरिकता देने की बात कही गई थी, लेकिन यह अधिसूचना इन तीन देशों के गैर मुसलमानों को आवेदन के लिए एक अलग विंडो देती है ताकि वे 1955 के कानून के तहत नागरिकता के लिए दरख्वास्त दे सकें. अब सवाल यह है कि यह जरूरी क्यों है?

चलिए, आंकड़ें ही खंगाल लें

यह कदम कानून के खिलाफ है, अगर इस बात को किनारे रखें, तो इसका सिर्फ एक तर्क हो सकता है. वह यह, कि इन 3 देशों के 6 समुदाय के लोगों के आवेदनों की संख्या इतनी ज्यादा है कि लॉजिस्टिक वजहों से और अधिक काउंटर बनाने की जरूरत पड़ गई है. पर यह सच्चाई नहीं है.

मार्च 2020 में राज्यसभा में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने केरल के भाकपा सांसद के. सोमाप्रसाद के लिखित सवाल के जवाब में कहा था कि 2014-2020 के दौरान 2,935 पाकिस्तानियों, 914 अफगानों और 172 बांग्लादेशियों को नागरिकता दी गई (2015 में बांग्लादेश के साथ कॉन्क्लेव के आदान-प्रदान की गिनती नहीं गई).

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यह संख्या उन आंकड़ों के लगभग बराबर ही है जो सितंबर 2020 में लोकसभा के एक तारांकित सवाल के जवाब में दिए गए थे. इस समय नित्यानंद राय ने कहा था कि 2015 और 2019 के बीच नियमित आवेदन प्रक्रिया के तहत आवेदकों (इसमें मुसलमानों सहित सभी धर्म के लोग थे) में पाकिस्तान के 2,668, अफगानिस्तान के 665 और बांग्लादेश के 148 लोग शामिल थे.

इन आंकड़ों में मुसलमानों सहित सभी धर्मों के लोग शामिल थे, चूंकि मंत्री महोदय ने कहा था कि सरकार धर्म के हिसाब से उन लोगों का डेटा नहीं रखती जिन्हें नागरिकता दी जाती है. इस संख्या में से भी आपको मुसलमान आवेदकों की संख्या को घटाना होगा.

कानूनी रूप से संदिग्ध आदेश बार-बार क्यों जारी किए जाते हैं

गृह मंत्री अमित शाह ने सीएए पर बहस के दौरान संसद में एक भाषण दिया था. इसमें ऐसी ही रिपोर्ट का हवाला था और उन्होंने कहा था कि इस तय समय में 566 मुसलमानों को नागरिकता दी गई. यह संख्या इतनी नहीं कि इनमें से गैर मुसलमानों को छांटने के लिए राज्यों में अतिरिक्त अधिकारियों की नियुक्ति की जाए. इसके अलावा 23 अक्टूबर, 2018 को भी ऐसी ही एक अधिसूचना जारी की गई थी. इसमें 6 राज्यों और नई दिल्ली में 16 जिलों के डिस्ट्रिक्ट कलेक्टरों की नियुक्ति की गई थी ताकि सेक्शन 5 और 6 के तहत नागरिकता के आवेदनों पर कार्रवाई की जा सके. इसमें उन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के होम सेक्रेटरीज़ को भी यह काम करने का अधिकार दिया गया था जहां नागरिकता का आवेदन करने वाले लोग रहते हैं.

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तो, यह नया शासकीय आदेश सिर्फ इतना करता है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के 6 गैर मुसलमान समुदाय के लोगों के लिए अलग से एक विंडो बनाता है और इन लोगों के आवेदनों की संख्या इतनी ज्यादा नहीं है कि इस काम को निपटाने के लिए अतिरिक्त लोगों की नियुक्ति की जाए. फिर बार-बार कानूनी रूप से संदिग्ध आदेशों को क्यों जारी किया जाता है?

यह दिलचस्प है, और इत्तेफाक भी कि अक्टूबर 2018 की अधिसूचना, 2019 के आम चुनावों से ऐन पहले आई थी? अब उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव आने वाले हैं, और यह नई अधिसूचना लाई गई है. क्या इसका यह मायने है कि केंद्र सरकार कोविड-19 संकट की बदइंतजामी से लोगों का ध्यान खींचना चाहती है? यह कयास लगाने वाला मैं कौन होता हूं? इस जवाब तो हवा में तैर रहा है- आप खुद अंदाजा लगाइए.

(निजाम पाशा नई दिल्ली में रहने वाले एक वकील हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @MNizamPasha है. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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