जैविक विविधता की सुरक्षा केवल पर्यावरण पर कोई अहसान करना नहीं है, बल्कि इसके लिए सोच, जीवनशैली और सामाजिक प्रथाओं में बदलाव जरूरी है.
लोगों की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए पर्यावरण को नुकसान को मंजूर करने के बजाय हदों के अंदर रहते हुए जीना पर्यावरण सुरक्षा को लेकर एक नई समझ पैदा करता है.
यह निर्धारित करने के लिए चर्चा की आवश्यकता है कि कौन से सामुदायिक मूल्य और प्राथमिकताएं स्थापित की जा सकती हैं. इसके साथ ही यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि क्या बाजार ही तय करेगा कि क्या मूल्यवान है, क्या उत्पादन किया जाना है और क्या उपभोग किया जाना है?
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, मानव उपयोग के लिए उत्पादित सभी खाद्य पदार्थों का लगभग एक-तिहाई हिस्सा नष्ट हो जाता है या बर्बाद हो जाता है. हालांकि वैश्विक स्तर पर जैव विविधता पर इसके प्रभाव का अनुमान लगाना मुश्किल है. लेकिन खाद्य अपशिष्ट अनावश्यक तौर पर एकल-फसल और जंगली क्षेत्रों में कृषि विस्तार से जैव विविधता को होने वाली हानि में बढ़ोत्तरी करता है.
भूमि, पानी और जैव विविधता के नुकसान के साथ ही साथ जलवायु परिवर्तन के हानिकारक प्रभाव भारी सामाजिक लागतों को दर्शाते हैं जिनका अभी तक अनुमान नहीं लगाया जा सका है.
एक नया वैचारिक ढांचा है : आहार प्रभाव
खाद्य अपशिष्ट के मुद्दे पर प्रकाश डालने के लिए प्राकृतिक संसाधन रक्षा परिषद (Natural Resources Defense Council) ने तीन प्रमुख अमेरिकी शहरों : डेनवर, न्यूयॉर्क और नैशविले से प्राप्त ठोस आंकड़ों का विश्लेषण किया है. इसके अनुसार बेकार भोजन की सूची में सबसे ऊपर हैं सेब, ब्रेड, संतरा और आलू इसके साथ ही इसमें बचे हुए या छोड़े गए डेयरी उत्पाद भी शामिल हैं.
सर्वे में शामिल 44% प्रतिभागियों ने कहा कि वे अक्सर बिना खाए हुए भोजन को फेंक देते हैं, 20% ने फफूंद लगे या खराब हुए भोजन की जानकारी दी, वहीं 11% ने दावा किया कि उन्होंने बचा हुआ खाना फेंक दिया.
अध्ययन में पाया गया कि न्यूयॉर्क शहर में एक ही धारा में अपने कचरे का निपटान करने वाले परिवारों की तुलना में जो परिवार कंपोस्ट कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे थे, उनके यहां अधिक कचरा निकलता था. इस अध्ययन व रिपोर्ट के लेखकों ने उपभोक्ताओं को यह याद दिलाने की सिफारिश की कि "खाद्य अपशिष्ट को रोकना, फूड वेस्ट से खाद बनाने से बेहतर है."
काफी बेहतर प्रदर्शन करती हैं एशियाई सभ्यताएं
बाहर खाने पर भोजन की बर्बादी को कम करने के लिए चीन ने पिछले कुछ वर्षों में “Clean Your Plate” (क्लीन योर प्लेट) नाम से एक व्यापक अभियान शुरु किया है. रेस्तरां और डाइनिंग हॉल में एंटी फूड वेस्ट पोस्टर और बैनर लगाए जाते हैं. वहीं मीडिया भी खाद्य अपशिष्ट में कमी लाने के लिए अपने प्रोग्राम्स को इस मुद्दे के अनुरुप तैयार करके प्रसारित करता है. स्थानीय सरकारों ने खाद्य अपशिष्ट को कम करने के साथ-साथ अपशिष्ट छंटाई को प्रोत्साहित करने के प्रयासों के लिए कई पहलों को लागू किया है.
भारत की बात करें तो यहां प्रत्येक व्यक्ति औसतन प्रति वर्ष केवल पाँच किलो मांस (Meat) खाता है, जबकि यूरोपीय यूनियन में यह आंकड़ा 60 किलोग्राम से अधिक है. यूरोप की एग्रीकलचरल प्रैक्टिसेस काफी कुशल व प्रभावी होने के बावजूद वहां 2.2 पाउंड सब्जियों के उत्पादन के लिए लगभग 3.2 वर्ग फुट फार्म की आवश्यकता होती है, लेकिन मुर्गी पालन के लिए 78.5 वर्ग फुट, सूअर के मांस (पोर्क) के लिए 95.8 वर्ग फुट और बीफ के लिए 225 वर्ग फुट की आवश्यकता होती है.
शहरीकरण के पहले चरण में दूसरी जगहों की तुलना में विकासशील देशो में खाने की कम बर्बादी होती है.
प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को निर्धारित करते हैं सभ्यता के मूल्य
पूरी तरह से बाजार आधारित जैव विविधता संरक्षण के दृष्टिकोण के बजाय एक सभ्यता के लिए बहुपक्षीय ढांचे में पांच बदलावों की आवश्यकता है.
पहला :- स्थिरता का तात्पर्य प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और वितरण से है न कि उनकी कमी से, वहीं प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास जैव विविधता संकट का एक लक्षण है, कारण नहीं.
दूसरा :- अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और जैविक विविधता के क्षेत्रों तथा उत्पाद की खपत के क्षेत्रों के बीच मौजूद अलगाव जो जैव विविधता के नुकसान का कारण बनते हैं. उनकी वजह से पारिस्थितिकी तंत्र के नुकसान को समझना, उनकी निगरानी करना और उन्हें रोकना मुश्किल हो जाता है.
तीसरा :- सामूहिक प्रतिबद्धताओं की अवधारणा पृथ्वी प्रणाली के सामूहिक परिवर्तन की दोषपूर्ण धारणा से निकली है. यह कुछ स्थानों पर प्राकृतिक संसाधनों के अक्षम उपयोग की उपेक्षा करती है और फिर वैश्विक संसाधन अभिसरण की धारणा के आधार पर मॉडल विकसित करती है, जो कि पश्चिमी संस्कृति की विशिष्टता है. भौतिक खपत और विकास के ट्रैक को देखने से पता चलता है कि एशियाई और अफ्रीकी सभ्यताएं पश्चिमी सभ्यता द्वारा निर्धारित रुझानों का पालन नहीं कर रही हैं, जो अत्यधिक खपत के कारण विश्वव्यापी समस्या के लिए पूरी तरह जिम्मेदार हैं.
चौथा :- इस प्रगति को सामाजिक परिवर्तन द्वारा भौतिक बहुतायत के रूप में चित्रित किया गया था, जिसने पश्चिमी सभ्यता को कच्चे माल और ऊर्जा स्रोतों के लिए दुनिया की तलाश करने के लिए यूरोपीय सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों से दूर जाने के लिए प्रेरित किया. यह वैश्विक दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से विकासशील देशों पर लागू नहीं होता है, जो पारिस्थितिक सीमाओं के भीतर रहते हुए समृद्ध व संपन्न हुए हैं.
पांचवा :- शहरीकरण के परिणामस्वरूप सामग्री की खपत में वृद्धि होती है जो कि विनिर्माण और ग्रामीण समुदायों की तुलना में काफी अधिक है. पारिस्थितिक सीमाओं के भीतर रहने की वैश्विक समस्या का कारण और समाधान, दोनों ही शहरी मध्यम वर्ग में समाहित हैं.
(मुकुल सनवाल, लेखक क्लाइमेट चेंज और सस्टेनेबिल्टी मुद्दे पर भारत के विशेषज्ञ हैं. आपने संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के कार्यकारी निदेशक के नीति सलाहकार और जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के कार्यकारी सचिव के रूप में कार्य किया है. लेख में प्रयोग किया गया कंटेंट बीजिंग स्थित चाइना-इंडिया डायलॉग द्वारा उपलब्ध कराया गया है. लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं, क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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