एक महिला ने एक रसूखदार व्यक्ति पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है. उस प्रभावशाली व्यक्ति पर आरोप लगे कि वो महीनों तक डराने और दूसरे आपराध को अंजाम देता रहा. क्या आप अनुमान लगाएंगे कि आज भारत के सर्वोच्च न्यायालय पर किसने कलंक लगाया है? संस्थान की पवित्रता को खतरे में डालने के लिए इसे निंदा झेलनी पड़ी.
स्पॉइलर अलर्ट: आदमी को नहीं.
सुप्रीम कोर्ट की एक जूनियर कोर्ट असिस्टेंट ने 19 अप्रैल को अदालत के 22 जजों को खत लिखा और मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर अक्टूबर 2018 में यौन उत्पीड़न करने का आरोप लगाया. साथ ही मुख्य न्यायाधीश पर उसे नौकरी से बर्खास्त करने, उसके परिवार को परेशान करने और उनके विरुद्ध आपराधिक शिकायत दर्ज कराने का इल्जाम लगाया. इनमें एक मामले में पुलिस थाने में अपशब्दों के इस्तेमाल और मारपीट के भी आरोप थे.
आरोप गंभीर हैं, जिन्हें विस्तार से आप यहां पढ़ सकते हैं. लेकिन इसके बाद जो कुछ हुआ, उसने पूरे मामले को और गंभीर बना दिया.
‘सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वुमेन एट वर्कप्लेस एक्ट (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल)’ 2013 के मुताबिक, ऐसे आरोप लगने पर सुप्रीम कोर्ट की ‘इंटर्नल कम्प्लेंट्स कमेटी’ को आरोपों की जांच कर 90 दिनों के भीतर अपनी रिपोर्ट देना अनिवार्य है. पूरी प्रक्रिया गोपनीय होनी चाहिए. इस मामले में पीड़ित महिला ने आरोपों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड न्यायाधीशों की कमेटी बनाने की मांग की है.
एक और स्पॉइलर अलर्ट: इनमें से कुछ नहीं हुआ
साजिश और चरित्र हनन की थ्योरी
तीन जजों के बेंच की ‘आपात बैठक’ बुलाई गई (जिनमें दो पुरुष जजों के अलावा स्वयं आरोपी मुख्य न्यायाधीश शामिल थे). बैठक में ‘न्यायपालिका की स्वायत्तता के हनन के गंभीर विषय’ पर विचार किया गया. अब आप पूछेंगे कि यौन उत्पीड़न का भला न्यायपालिका की स्वायत्तता से क्या लेना-देना? जवाब मिल जाए तो हमें भी बताइएगा.
ठीक है, तो उस आपात बैठक में क्या हुआ? क्या मुख्य न्यायाधीश ने खुद पर लगे आरोपों का हवाला देकर ICC से स्वतंत्र जांच करने का ऐलान किया? या फिर एक ओपन कोर्ट में सुनवाई का ऐलान किया, जिसमें पीड़िता की पहचान गुप्त रखी जाए? या इस मामले से स्वयं को अलग रखकर वरिष्ठ जजों (अपने बाद के) को आगे की कार्रवाई के लिए अधिकृत किया? क्या इस जांच प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट की महिला जजों को शामिल किया गया?
आप इन सवालों के जवाब की कल्पना कर सकते हैं, और सही जवाब है: उपरोक्त में से कोई नहीं.
सुप्रीम कोर्ट ने सबसे प्रभावशाली शख्सियत एकत्र किए – इनमें उच्चतम न्यायिक अधिकारी, कार्यकारिणी के वैधानिक अधिकारी, यानी अटॉर्नी जनरल, सॉलिसिटर जनरल, राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के सदस्य (ध्यान दें, सभी पुरुष थे) शामिल थे. सबने मिलकर आरोपी पर चरित्र हनन की कार्रवाई करने से पहले साजिश रचने की थ्योरी पर चर्चा की.
उसके ‘आपराधिक बैकग्राउंड’ और उसके खिलाफ चल रहे मामलों का हवाला दिया गया (ध्यान देने लायक बात है कि ये मामले यौन उत्पीड़न का नतीजा हो सकते हैं, ताकि आरोप लगाने वाली और उसके परिवार को धमकाया जा सके). मुख्य न्यायाधीश ने खुद को निर्दोष साबित करने के लिए देश के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और अपने बैंक बैलेंस का भी हवाला दे डाला, जिसकी जरूरत कम से कम इस मामले में तो समझ में नहीं आई.
तय प्रक्रिया किधर है?
बैंक बैलेंस का हवाला देने का क्या औचित्य है? इनमें किसी भी दलील से ये कैसे साबित होता है कि उन्होंने पीड़िता पर हाथ नहीं रखा या स्वयं को पकड़ने के लिए नहीं कहा या पीड़िता से प्रतिदिन टेक्स्ट भेजने को नहीं कहा था? आपको जवाब मिले, तो कमेंट्स में बताइएगा .
इस बैठक में न सिर्फ इस बुनियादी सिद्धांत की अवहेलना की गई कि कोई व्यक्ति खुद पर लगे आरोप में जज नहीं हो सकता है, बल्कि इसने जांच की पूरी प्रक्रिया पर पानी फेर दिया.
इतना ही काफी नहीं था. बैठक में न्यायपालिका की स्वायत्तता पर ‘बेहद गंभीर खतरे’ पर चिंता जताई गई. ये भी कहा गया कि इससे अच्छे लोगों को अपना काम करने में रुकावट होगी. वैसे, ये कहना अनुचित नहीं होगा कि अच्छे लोग यौन उत्पीड़न करने वालों से कोसों दूर रहना पसंद करेंगे.
मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने मामले को अलग जामा पहनाते हुए यहां तक चेतावनी दे डाली कि ‘मुख्य न्यायाधीश के पद को कमतर करने के लिए’ ‘और बड़ी साजिश’ रची जा सकती है.
इस सुर में सुर मिलाने वालों में अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल भी शामिल थे, जिन्होंने इन आरोपों को ‘ब्लैकमेल’ करार दिया. उन्होंने ये भी आरोप मढ़ा कि उनके कामों में भी रुकावट डाली जाती है. लेकिन किसके द्वारा? और इस मामले में इन आरोपों का औचित्य है ही क्या?
अंत में ये चेतावनी दी गई कि अगर इस प्रकार के इल्जाम लगते रहे तो कोई न्यायाधीश फैसला नहीं सुनाएगा. मुख्य न्यायाधीश ने हर किसी को भरोसा दिया वो व्यक्तिगत रूप से आरोपों की परवाह किये बगैर अपना काम करते रहेंगे. इस प्रकार न्यायपालिका बच गई! अब हर कोई अपने घर चला जाए.
संक्षेप में कहा जाए, तो मुख्य न्यायाधीश खुद प्रतिक्रिया देने के योग्य नहीं थे, लिहाजा उन्होंने देश के सर्वोच्च न्यायालय में सबसे प्रभावशाली लोगों को प्रतिक्रिया देने के लिए इकट्ठा किया और खुद पर लगे आरोप खारिज कर दिए. ये प्रतिक्रिया कोई नई बात नहीं है. पुरुषों ने अनादि काल से पीड़िता के हितों का हनन किया है और खुद को मानवता का निस्स्वार्थ सेवक बताते रहे हैं. लेकिन इस बार इस काम के लिए जिस मंच का इस्तेमाल किया गया, वो तय प्रक्रिया का घोर उल्लंघन है.
नाम में क्या रखा है? और प्रक्रिया की चिंता किसे है?
किस न्यायिक प्रक्रिया के तहत ये आपात बैठक बुलाई गई? ऐसा लगता है कि इस आपात बेंच को बुलाने के लिए किसी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया. बैठक का विषय था - “In Re: Matter of great public importance touching upon the independence of the judiciary: जिसका जिक्र भारत के सॉलिसिटर जनरल श्री तुषार मेहता ने किया. जाहिर तौर पर ये सुनवाई सू मोटो रिट पिटीशन के तहत की गई.
सुप्रीम कोर्ट में Writ Petition पर सुनवाई मौलिक अधिकारों के हनन के मामलों में की जाती है. इस मामले में किसके मौलिक अधिकार का हनन हुआ? कौन किस पर मुकदमा कर रहा है? सुनवाई की बेंच में स्वयं आरोपी कैसे बैठ सकता है?
अदालत का दावा है कि कोई ‘न्यायिक आदेश’ पारित नहीं किया गया, लेकिन (a) आदेश पारित हुआ, (b) कोर्ट का दिया गया हर आदेश न्यायिक आदेश होता है और (c) ये निश्चित रूप से एक आदेश था.
पूरा मामला कितना एकतरफा था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुख्य न्यायाधीश बेंच की अध्यक्षता कर रहे थे, लेकिन रिकॉर्ड से उनका नाम जान-बूझकर हटा दिया गया. न तो सुप्रीम कोर्ट और न ही कार्रवाई के रिकॉर्ड में इस बेंच में उनकी उपस्थिति दर्ज की गई. धन्य हैं मुख्य न्यायाधीश, जिन्होंने ‘विशेष’ सुनवाई में पहले खुद पर लगे आरोपों का रोना रोया और फिर अपने दफ्तर का इस्तेमाल करके अपना नाम रिकॉर्ड से मिटवा दिया.
सबकुछ नियंत्रण में रखने के लिए बेंच ने मीडिया से भी आग्रह किया कि वो मामले की रिपोर्टिंग में ‘संयम बरते’, ताकि ‘खोखले और बेबुनियाद’ आरोपों से न्यायालय की प्रतिष्ठा को आंच न पहुंचे. कोई तो बताए, कि बिना जांच के ये कैसे जाना जा सकता है कि आरोप खोखले और बेबुनियाद थे?
ताकत का दुरुपयोग?
“लोकतंत्र की रक्षा के लिए न सिर्फ स्वतंत्र जजों और निर्भीक पत्रकारों की जरूरत है, बल्कि कभी-कभी स्वतंत्र पत्रकार और निर्भीक जज भी जरूरी हैं”जस्टिस गोगोई, जनवरी, 2018
आरोप सही थे या नहीं, कानूनी रूप से मजबूत थे या नहीं, इन बातों को परे रखते हैं. लेकिन आरोपी के रूप में अपने बेइंतहा ताकतवर मंच का इस्तेमाल न्यायिक सुनवाई के लिए करना सबसे दुखद बात थी. ऐसे मामलों में ताकत का संतुलन हमेशा एकतरफा होता है.
इस मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा एक पूर्व जूनियर कोर्ट असिस्टेंट के विरुद्ध अपना पक्ष रखने के लिए देश के सर्वोच्च न्यायालय का इस्तेमाल करना ताकत का दुरुपयोग नहीं तो और क्या है?
ये आरोपी की मिलीभगत का संकेत है. ये संकेत है कि ताकतवर व्यक्तियों की सुनने वालों और मंच की कमी नहीं, वो अपनी बात कहने तथा अपने विरुद्ध किसी भी आवाज को दबाने के लिए अपने दफ्तर और कोर्ट के प्रतिष्ठित परिसर का भी इस्तेमाल कर सकते हैं.
व्यक्तिगत प्रेस कांफ्रेंस के बजाय सुनवाई के एक अनुचित तथा सवालिया तौर-तरीके का चयन करने का संदेश साफ है – जब तक आप संस्थान के पराक्रम की बराबरी न करें, तब तक आवाज न उठाएं.
ये न सिर्फ आरोपी को नुकसान पहुंचाता है, बल्कि उन लोगों को भी निराशा करता है, जो ताकतवरों के हाथों पीड़ित होते हैं (और ऐसे उदाहरण अनगिनत हैं). और जिनके पास संस्थागत ताकत और भारी समर्थन प्राप्त है, उन लोगों को अपनी मनमानी करने की पूरी छूट देता है.
हर जज की तमन्ना होती है कि वो एक ऐसा उदाहरण पेश करे, जिसे वर्षों तक याद रखा जाए. उम्मीद है कि मुख्य न्यायाधीश गोगोई की ये तमन्ना सफल नहीं हुई है.
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CJI Gogoi’s Misuse of SC as a Platform Sets Back #MeToo Movement
(लेखिका एक वकील हैं, जिन्होंने हाल ही में यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड से मानवाधिकार कानून में एम. फिल किया है. आलेख में दिये गए विचार उनके निजी विचार हैं और क्विंट का उससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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