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सिनेमाघरों में विज्ञापनों की भरमार, जाने-अनजाने ठगे जा रहे आप

टीवी की विज्ञापन फिल्में जहां 10-15 सेकेंड की होती हैं, सिनेमाघरों में यही अवधि 30-60 सेकेंड की होती है.

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सोमवार से शुक्रवार तक नौकरी, काम और ट्रैफिक की रेलमपेल में घिसते रहने वालों के लिए रविवार देर शाम की फिल्म देखने जाना बहुत कठिन फैसला होता है. फिर भी इंसान नहीं किए जा सकने वाले सभी काम अपनी संतान के लिए ही करता है. दिल को बहलाने के लिए ये तसल्ली भी दी गई कि अंग्रेजी फिल्म है, कुल जमा नब्बे मिनट की, ग्यारह बजते-बजते घर लौट आएंगे.

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सो बच्चों से किया अपना वादा निभाने के चलते हमने सोमवार और डेडलाइन, दोनों के आतंक को परे सरकाकर शहर के बड़े मल्टीप्लेक्सेस में से एक की राह पकड़ी और पार्किंग की जद्दोजहद को पार कर हांफते-दौड़ते ठीक समय पर अपनी सीट तक पहुंच ही गए. फिल्म शुरू नहीं हुई थी, इश्‍तेहार शुरू हो गए. लंबे, ज्यादा तफ्सील वाले इश्‍तेहार, आने वाली फिल्मों के अलावा कारों, ब्रांडेड कपड़ों, महंगे घरों और पर्फ्यूम के इश्‍तेहार. एक, दो, दस, पन्द्रह...हमारा सब्र जवाब देने लगा.

घड़ी की सुई फिल्म के तय समय से दस मिनट आगे खिसक गई थी, हाथ में पकड़ा 220 रुपए के पॉपकार्न का पैकेट करीब-करीब खत्म होने को था कि राष्ट्रगान का ऐलान हुआ. हमारी सांस में सांस आई. लेकिन 52 जज्बाती सेकेंड गुजर जाने के बाद स्क्रीन पर एक बार फिर इश्‍तेहार ही नजर आए.

आखिरकार, फिल्म तय समय से 20 मिनट की देरी से शुरू हुई. यूं अमेरिका में थिएटर में इंटरवल नहीं होते, लेकिन चूंकि पॉपकॉर्न और चिप्स के बिना हमारी फिल्म आउटिंग पूरी नहीं होती, सो अंग्रेजी फिल्मों में भी किसी बेढब से मोड़ पर इंटरवल का ऐलान कर दिया जाता है. इंटरवल वापस नियत समय से लंबा खिंचा, नतीजा ग्यारह के बजाय हम पौने बारह बजे घर पहुंच पाए. ग्राहक और दर्शक के तौर पर थोड़ा ठगा महसूस करते हुए.

तय समय पर फिल्म शुरू न होना अब आम बात

विज्ञापनों की भरमार की वजह से मल्टीप्लेक्स में फिल्मों का तय समय से काफी देर से शुरू होना अब काफी आम हो चला है. फिल्म जितने बड़े बजट की होगी, विज्ञापन उतने ही लंबे चलेंगे. बड़े बजट की फिल्मों जैसे ‘टाइगर जिंदा है’ और ‘पद्मावत’ के साथ 200 से ज्यादा ब्रांड सिनेमाघरों से जुड़े. सिनेमाघर के विज्ञापन हाल के सालों तक केवल स्थानीय व्यापारियों और दुकानों तक सीमित थे.

मल्टीप्लेक्स कल्चर ने सिनेमा स्क्रीनिंग के व्यवसाय को काफी हद तक संगठित करने के अलावा इस माध्यम को लेकर विज्ञापन कंपनियों में जागरूकता भी बढ़ा दी. सिनेमाघरों के भीतर विज्ञापन दिखाकर अपनी बड़ी पहचान बनाने वाले ब्रांडों की सफलता ने भी कंपनियों का उत्साह बढ़ाया है.

दूसरी वजह ये है कि अभी भी टीवी चैनलों और अखबारों के मुकाबले सिनेमाघरों में विज्ञापन की दर बेहद कम है और यहां दिखाए जाने वाले विज्ञापन फिल्में काफी लंबी भी होती हैं.

टीवी की विज्ञापन फिल्में जहां 10-15 सेकेंड की होती हैं, सिनेमाघरों में यही अवधि 30-60 सेकेंड की होती है. इस वजह से विज्ञापन कंपनियों को अपनी पूरी कहानी कह पाने की सहूलियत होती है. हाल ही में विज्ञापन और मीडिया प्लानिंग कंपनी ग्रुप एम की एक रिसर्च ने बताया कि विज्ञापन दिखाने के बाकी माध्यमों के मुकाबले सिनेमाघरों में दिखाए जाने वाले विज्ञापन लोगों को सबसे ज्‍यादा समय तक याद भी रहते हैं, शायद इसलिए, क्योंकि अपनी फिल्म शुरू होने का इंतजार करते दर्शकों पूरी तरह एकाग्रचित रहते हैं.

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दर्शक कंटेट के पूरे पैसे कभी नहीं देते

टीवी, अखबार हो या रेडियो, विज्ञापन, हर तरह के कंटेट की जरूरत है, क्योंकि दर्शक या पाठक कंटेट के पूरे पैसे कभी नहीं देता. हालांकि किताबों और फिल्मों के संदर्भ में ये सबसे कम लागू होता है. मतलब, विज्ञापन इनकी लागत की भरपाई नहीं करते. किताबों में खामियाजा लेखक को भुगतना होता है, जबकि फिल्मों में दर्शकों की जेब काटी जाती है.

टिकट के तीन सौ रुपयों के अलावा 20 रुपए के पॉपकार्न के लिए 160 रुपए और 30 रुपए के कोक के लिए 120 रुपयों की वसूली दर्शक अपनी जेब हल्की करके देते हैं. इसके बावजूद जाने किस नियम से मल्टीप्लेक्स हमारा कीमती 20 मिनट विज्ञापन दिखाने में बर्बाद करती हैं?

कुछ साल पहले निजी टीवी चैनलों की नियामक संस्था टीआरएआई ने विज्ञापनों की अधिकता को दर्शकों के अधिकार के हनन से जोड़ते हुए चैनलों पर विज्ञापन दिखाए जाने की अधिकतम सीमा 60 मिनट में 12 मिनट तय कर दी थी. इसमें 2 मिनट चैलन अपने सेल्फ प्रमोशन और 10 मिनट बाहरी विज्ञापनों के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं.

इस नियम को लाने के पीछे ये तर्क दिया गया था कि दर्शक टीवी पर कार्यक्रम देखने के लिए अपने समय का व्यय करते हैं और कार्यक्रमों के स्टैंडर्ड को बरकरार रखने के लिए ये जरूरी है कि विज्ञापन की मात्रा पर लगाम रखी जाए. इसका मतलब हर चार मिनट के कंटेंट के लिए केवल एक मिनट का विज्ञापन.

ये तब, जब टीवी के दर्शकों के लिए कार्यक्रम की लागत का बड़ा हिस्सा विज्ञापन कंपनियां देती हैं, जबकि ये गणित सिनेमाघरों में जा रहे दर्शकों पर लागू नहीं होता. वो टिकट की पूरी कीमत तो देते ही हैं, एक बार मल्टीप्लेक्स पहुंच गए, तो अंदर खाने-पीने की हर चीज की बाजार की कीमत से दोगुनी-तिगुनी रकम भी उन्हें देनी पड़ती है.

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विज्ञापन बाजार में सिनेमाघरों की हिस्सेदारी

देश में 50 हजार करोड़ से ज्यादा के विज्ञापन बाजार में सिनेमाघरों की हिस्सेदारी केवल एक प्रतिशत है. वजह यहां विज्ञापन की बेहद कम दर. छोटे शहरों के सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों में जहां एक हफ्ते के विज्ञापन स्लॉट 3000 रुपए में बिकते हैं, वहीं मेट्रो के मल्टीप्लेक्स में ये दर 15 से 20 हजार के बीच होती है. लेकिन पिच मेडिसन की 2018 की एडवर्टाइजिंग रिपोर्ट के मुताबिक, सिनेमाघरों में विज्ञापन पर खर्च डिजिटल मीडिया के बाद सबसे तेज रफ्तार से बढ़ा है और ये चलन आने वाले कुछ सालों तक बरकरार रहेगा.

यूं सिनेमाघरों में फिल्में दिखाए जाने को लेकर सरकार की आचार संहिता काफी लंबी-चौड़ी है. इसमें स्क्रीन से पहली कतार की सीटों की दूरी, दो सीटों के बीच दूरी, एग्‍ज‍िट गेट से हर सीट की अधिकतम दूरी, एक निश्चित क्षेत्रफल में अधिकतम सीट संख्या से लेकर आवाज का डेसिबल तक शामिल है.

लेकिन विज्ञापन दिखाने को लेकर इसमें कोई बात नहीं कही गई है. जब तक इस मुद्दे पर नियम बनाने वालों का ध्यान नहीं जाता, यकीनन मल्टीप्लेक्स मालिक मौके का पूरा फायदा उठाने में कोई चूक नहीं करना चाहेंगे. ऐसे में दर्शकों के समय के नुकसान पर किसी का ध्यान नहीं होगा.

(डॉ. शिल्पी झा जीडी गोएनका यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ कम्यूनिकेशन में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. इसके पहले उन्‍होंने बतौर टीवी पत्रकार ‘आजतक’ और ‘वॉइस ऑफ अमेरिका’ की हिंदी सर्विस में काम किया है. इस लेख में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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