1991 में, कुवैत पर सद्दाम हुसैन के हमले ने भारत के लिए भयानक तेल संकट पैदा कर दिया था. आज, कोविड-19 की वजह से देश में अभूतपूर्व तौर पर मांग में कमी आई है. हालांकि ये दोनों संकट विषय और बनावट में बहुत अलग लगते हैं, लेकिन नुकसान की गंभीरता के नजरिए से दोनों पूरी तरह से तुलना के लायक हैं.
- तब भारत को सरकारी कर्ज का भुगतान ना कर पाने के कलंक से बचने के लिए 67 टन सोना गिरवी रखना पड़ा था. आज, अर्थव्यवस्था दोहरे अंकों में सिकुड़ रही है और राजस्व को लेकर केंद्र सरकार राज्यों से अपनी प्रतिबद्धता पूरी करने में चूक रही है.
- उस वक्त, भारत की आर्थिक हैसियत घटकर 'कबाड़' के बराबर हो गई थी, जबकि आज शायद उन्हीं वजहों से हम पर नजर रखी जा रही है.
- फिर, उस समय जहां जरूरी आयात के लिए हमारा विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो चुका था. आज, बेरोजगारों की बढ़ती भीड़ के लिए हमारे पास नौकरियां खत्म हो चुकी हैं; कई दशकों की गिरावट के बाद गरीबी फिर बढ़ती जा रही है.
इसलिए, प्रधानमंत्री मोदी और वित्त मंत्री सीतारमण को अगर लीक-से-हटकर किसी विचार की जरूरत है, तो नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की बनी बनाई नीति उनके पास मौजूद है जिससे उन्होंने निराशा की खाई से निकालकर देश में आर्थिक चमत्कार को अंजाम दिया था. 90 के दशक की शुरुआत में मिले तीन ‘सकारात्मक झटकों’ में ऐसी कई सीख छिपी है – जब साहसी, जोखिम भरे, करीब-करीब हताशा में उठाए गए कदमों ने नाटकीय बदलाव को जन्म दे दिया.
दोहरे अवमूल्यन के जवाब में दोहरा ऋण-स्थगन
आम तौर पर संयमित रहने वाले डॉ मनमोहन सिंह को ‘Hop, skip और jump’ करते हुए कल्पना कीजिए – (जल्दबाजी में शुरू किए गए ऑपरेशन को यही नाम दिया गया था). सोमवार, 1 जुलाई 1991 को सरकार के आदेश से रुपये का नौ फीसदी अवमूल्यन कर दिया गया. यह तेजी से घटते विदेशी मुद्रा भंडार पर रोक लगाने के लिए बेसब्री में उठाया गया कदम था. लेकिन पहले से घबराए बाजार में इससे और भगदड़ मच गई. इसलिए, इससे निजात पाने के लिए दो दिन बाद, 3 जुलाई 1991 को सरकार ने रुपये का मूल्य और 11 फीसदी कम कर दिया, इस वादे के साथ कि आगे ऐसा नहीं किया जाएगा. इससे बाजार में शांति आई और बिकवाली पर रोक लगी. आखिरकार, दो साल बाद, भारत ने काबू में रखी करेंसी को ‘नियंत्रित विदेशी मुद्रा विनिमय दर’ के हवाले कर दिया. जैसे ही आर्थिक झटके खत्म हुए, यह एक साहसिक और सुंदर फैसला साबित हुआ.
आज ऋणों में बदलाव का फैसला सैद्धांतिक तौर पर रिजर्व बैंक के पास होने के बावजूद, क्योंकि इस पर आखिरी मुहर एक कमेटी लगाती है, ये सवाल बना है कि - क्या इसे कॉरपोरेट और व्यक्तिगत कर्ज के ‘अयोग्य’ बदलाव की अनुमति देनी चाहिए, या इसे रोके रखना चाहिए? मुझे लगता है कि इसका जवाब राव/सिंह की पहल, यानी कि ‘जुड़वां ऋण-स्थगन’, में मौजूद है:
- जहां तक कॉरपोरेट कर्ज की बात है, इसे बिना किसी वैकल्पिक अपवाद के, वास्तविक तौर पर संकटग्रस्त कर्जदारों के लिए, कम से कम एक बार पुनर्गठन की अनुमति दे देनी चाहिए, जबकि आदतन कर्ज का भुगतान ना करने वालों के लिए इसमें कोई राहत की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए.
- अनुशासित निजी कर्जदारों के लिए ‘सोना गिरवी रखकर और कर्ज’ देने की योजना के बजाय नए विचार के साथ ‘इक्विटी टॉप-अप’ प्लान लाना चाहिए. मैं आपको विस्तार से बताता हूं. कल्पना कीजिए कि मिस्टर X ने पांच साल पहले एक घर खरीदने के लिए एक करोड़ रुपये उधार लिए. अब घर की कीमत 50 फीसदी बढ़ गई है, लेकिन मिस्टर X इस बीच मूलधन से 30 लाख रुपये बैंक को लौटा चुके हैं. इसलिए, वो अब वो मौजूदा गारंटी के दम पर बिना EMI बढ़ाए 80 लाख रुपये अतिरिक्त कर्ज ले सकते हैं (जिससे कि उनकी कुल बकाया राशि 70 लाख से 1.50 करोड़ रुपये हो जाएगी), लेकिन कर्ज चुकाने की अवधि बढ़ जाएगी. अब इसमें कोई हैरान होने की बात नहीं कि मिस्टर और मिसेज X मिलकर एक नई कार, रेफ्रिजरेटर या कुछ और खरीदते हैं... क्या आप समझ गए?
लाइसेंस से मुक्ति से लेकर ‘मारुति विनिवेश के मॉडल’ तक: साहसिक, मौन सुधार
बिलकुल नरसिम्हा राव के अंदाज में, सबसे प्रबल आर्थिक सुधार सबसे ज्यादा मौन भी था. 24 जुलाई 1991 को (रुपये के नाटकीय अवमूल्यन के सिर्फ 20 दिन बाद), राव ने उद्योग मंत्रालय का पदभार अपने पास होने के बावजूद, छोटे-पद वाले मंत्री पी जे कुरियन को संसद में ‘1991 की नई औद्योगिक नीति’ पेश करने को कहा. वह एक विस्फोटक दस्तावेज था. जिसमें 18 नियंत्रित उद्योगों को छोड़कर, सभी की लाइसेंस की जरूरत को खत्म कर दिया गया था. उद्योगपति नई दिल्ली की इजाजत की चिंता किए बैगर किसी भी क्षेत्र में दाखिल होने और क्षमता बढ़ाने के लिए स्वतंत्र थे. अब तक 40 प्रतिशत तक सीमित विदेशी स्वामित्व को एक और बड़े ‘Hop, skip और jump’ के साथ 51 प्रतिशत की अहम सीमा के ऊपर ले जाया गया था.
एकाधिकार कानून को समाप्त कर दिया गया. सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के शेयरों को बेचने की अनुमति दे दी गई. बदलाव की ये रफ्तार बेदम कर देने वाली थी.
अब प्रधानमंत्री मोदी भी राव के साहस की बराबरी करते हुए ऐसे ही निडर और ‘मौन’ सुधार को अंजाम दे सकते हैं, जैसे कि ‘सार्वजनिक क्षेत्र के विनिवेश का मारुति मॉडल’ जिसमें बैंकों और रणनीतिक भागीदारों समेत प्रत्येक यूनिट में 26 फीसदी हिस्सा बेचने के बाद सरकार ने भारी फायदे के साथ अपना ‘नियंत्रण हटा लिया’.
जो लोग इस मॉडल से अपरिचित हैं, वो इन जानकारियों पर एक नजर डाल लें:
- भारत सरकार मारुति उद्योग लिमिटेड की मुख्य शेयरधारक थी, लेकिन इसका नियंत्रण सुजुकी के हाथ में था, इसके बावजूद कि ये एक unlisted कंपनी थी और इसकी साझेदारी सिर्फ 26 प्रतिशत थी.
- 1982 और 1992 में सुजुकी को अपना शेयर बढ़ाने की इजाजत दी गई, पहले 26 से 40 फीसदी, और फिर 50 फीसदी तक.
- लेकिन भारत सरकार, जिसके पास लगभग बराबर की हिस्सेदारी थी, ने सुजुकी को और अधिक अधिकार दे दिए, बदले में उसे कई कीमती रियायतें हासिल हुई, जिसमें बड़े निर्यात बाजारों तक पहुंच और भारतीय प्लांट में वैश्विक मॉडल का निर्माण शामिल था. नतीजा ये हुआ कि साझा उद्यम का मूल्य कई गुना बढ़ गया.
- इसके बाद सरकार ने मास्टरस्ट्रोक खेलते हुए अपने शेयर राइट्स से छुटकारा पाकर 400 करोड़ रुपये कमाए और नियंत्रण खत्म करने के एवज में ऊपर से 1000 करोड़ रुपये का प्रीमियम भी हासिल किया. इसने सुजुकी से 2300 रुपये प्रति शेयर के हिसाब से जनता को ऑफर-ऑफ-सेल भी दिलवाए.
- भारत सरकार ने इसके जरिए निवेश पर शानदार कमाई (ROI) की – ये सब इसलिए मुमकिन हुआ क्योंकि स्वामित्व रखते हुए नियंत्रण छोड़ने का फैसला लिया गया, और साझा उद्यम में अपने साथी को मूल्य में जबरदस्त बढ़ोतरी करने का मौका दिया.
अपने अडिग इरादे को साबित करने के लिए, प्रधानमंत्री मोदी को अगले छह महीनों के भीतर एयर इंडिया, बीपीसीएल और कॉनकोर को बेचने की कोशिश करनी चाहिए, इस प्रतिबद्धता के साथ कि अगले पांच साल में हर साल ‘मारुति मॉडल’ की तर्ज पर दो दर्जन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का विनिवेश कर दिया जाएगा, यानी कि पूर्व मारुती जैसी 120 PSU तैयार की जाएंगी. भारत में सुधार की कहानी से दुनिया भर के बोर्डरूम में बिजली कौंध जाएगी, अरबों डॉलर की उगाही होगी और सरकार के पास नए निवेश के लिए अतिरिक्त रकम मौजूद होगी.
निडरता से अमेरिकी डॉलर जुटाकर भारतीय बचतकर्ताओं में ‘कर्ज परंपरा’ शुरू करने की जरूरत
90 के दशक की शुरुआत में, राव और सिंह ने अमेरिकी डॉलर को साधने और देश में इक्विटी की परंपरा शुरू करने के लिए बिलकुल अनदेखे फैसलों को अंजाम दिया. भारत के बंद, दमघोंटू, और घोटालों से भरे शेयर बाजार को विदेशी निवेशकों के लिए खोल दिया. नियंत्रित और नाजुक रुपये को आंशिक रूप से पूंजी खाते में तब्दील किए जाने लायक बनाया गया. गंदे अस्तबल को साफ करने के लिए भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (NSE) जैसे दो नए संस्थानों का उद्घाटन किया गया. जल्द ही, भारत के शानदार digitized शेयर बाजार ने, उस समय शायद दुनिया में सबसे आधुनिक, विदेशियों का दिल जीत लिया. और भारत में शेयर की परंपरा का जन्म हुआ!
अब मोदी और सीतारमण के पास भारत के लिए अत्यावश्यक-लेकिन-हमेशा-से-उपेक्षित कॉरपोरेट बॉन्ड बाजार तैयार करने का बेहतरीन विकल्प मौजूद है. असल में वो डॉलर बॉन्ड के अपने साहसिक विचार को भी दोबारा जिंदा कर सकते हैं – दुर्भाग्य से जिसे जोखिम-से-भागने-वाले उनके नौकरशाहों ने ही खत्म कर दिया – और राव/सिंह की तरह हिम्मत दिखा सकते हैं.
अब, इस पर विचार कीजिए:
- भारत ‘सरकारी डॉलर बॉन्ड’ से शिकागो, लंदन और सिंगापुर बॉन्ड मार्केट से 10 बिलियन डॉलर जुटाता है, वो भी ऐसे समय में जब डॉलर कमजोर हो रहा है और अमेरिका में डॉलर की सरकारी दर 1 फीसदी से नीचे है. इस नकदी का उपयोग एक नई इकाई, यानी इंडियन कॉरपोरेट बॉन्ड AMC के पूंजीकरण में किया जाता है, जो कि NYSE और LSE में सूचीबद्ध है.
- इसके साथ ही, एक सीमा से बड़ी भारतीय कंपनियों को निर्देश दिया गया कि वो अपने ऋणपत्र (Debentures) को नेशनल बॉन्ड एक्सचेंज (NBE) पर सूचीबद्ध करें, जो कि NSE का नया मंच है.
- मार्जिन, प्रोविजन और लेवरेज से जुड़े पुराने कानूनों की झाड़ी हटा कर आधुनिक तौर तरीकों को मंजूरी दी जाए.
- इंडियन कॉरपोरेट बॉन्ड एएमसी, जिसमें सरकार के पास $10 अरब मौजूद है, को बाजार में पूरी सक्रियता दिखाने का अधिकार हासिल है - संक्षेप में, हर वो उपाय कीजिए कि NBE के पैस फंड कमी न हो; AMC को अपनी एसेट बुक का फायदा उठाकर अपनी पूंजी और बढ़ाने की आजादी मिलनी चाहिए.
- फिर क्या, भारत में एक मल्टी-बिलियन डॉलर का कॉरपोरेट बॉन्ड एक्सचेंज वजूद में आ जाएगा, जिससे कि बचतकर्ताओं के लिए नई ‘कर्ज परंपरा’ शुरू हो जाएगी, एक निवेश क्रांति का आगाज हो जाएगा.
मुझे इस कयास के साथ इसे खत्म करने दीजिए कि आलोचकों के दिमाग में अभी क्या चल रहा होगा: ‘ये पतंग उड़ा रहा है, मुमकिन ही नहीं है, काफी जोखिम भरा है’. लेकिन बस इतना याद रखिएगा कि 1991 में भी इन लोगों ने यही बातें कही होंगी, लेकिन नरसिम्हा राव अपने इरादे से हिले नहीं थे.
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