मेट्रो में जोर-जोर से हंसती-खिलखिलाती लड़कियों को देखकर किसी ने ताना मारा- इतनी हंसने की क्या बात है. आजकल की लड़कियां भी, ना.... इस टिप्पणी पर उत्तर देने से पहले जब अपना स्टेशन आ गया तो उतरने पर देखा- एक अकेली लड़की ट्रेन के इंतजार में बेंच पर अधलेटी थी. सभी उसे घूर रहे थे- एक ने हल्की आवाज में कहा, ये क्या सोने की जगह है? खयाल आया, लड़कियों के लिए शहरों में पब्लिक स्पेस कहीं है ही नहीं. वो जबरन शहरों में अपना स्पेस छीनने की कोशिश करती हैं.
शहरों को लड़कियों-औरतों के लिहाज से तैयार ही नहीं किया जाता. उनकी रचना करने वाले पुरुष हैं और वे अपने नजरिए से ही शहरों को बनाते हैं. दिल्ली से लेकर मुंबई, और सिडनी से लेकर दुबई तक- सभी जगहों पर मशहूर इमारतें बनाने वाले पुरुष हैं. दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर और मुंबई के छत्रपति शिवाजी इंटरनेशनल एयरपोर्ट को पुरुषों ने डिजाइन किया है. सिडनी के ऑपेरा हाउस और दुबई के बुर्ज खलीफा, इनके रचनाकार भी पुरुष ही हैं. इसीलिए औरतों के लिए शहरों में अपनी कोई जगह नही है. वे बस रह रही हैं और अपने स्पेस के लिए लगातार संघर्ष कर रही हैं.
अमेरिकी लेखिका रेबेका सोलनित जिसे मैनस्पेलिंग कहती हैं, शहरी योजना यानी अर्बन प्लानिंग का आधार वही है. मैनस्पेलिंग का अर्थ है, पुरुषों का बेहतर ज्ञान का दावा और वस्तुओं के अर्थों को नियंत्रित करना. बेशक, वह अपने नजरिए से ही बातें और चीजें स्पष्ट करता है.
पुरुषों के नजरिए से हमारी शहरी चेतना का विकास हुआ है. उसके दृष्टिकोण से भव्य और आलीशान शहरी संसार. वही तय करते हैं कि दुनिया कैसी होगी और वही बताता है कि दुनिया ऐसी होगी.
शहर औरतों के लिए नहीं बनाए जाते!
शहरों की रचना आदमी, आदमियों के लिए ही करते हैं. शहरों में महिला सुरक्षा पर शिल्पा फड़के, समीरा खान और शी रानाडे ने एक किताब लिखी है ‘वाय लॉयटर’. इसमें शहरी संरचना और जेंडर पर शोधपरक जानकारियां हैं. किताब बताती है कि शहरों का विकास दो तरह से होता है- वर्टिकल और हॉरिजोंटल. वर्टिकल में विकास ऊपर की तरफ किया जाता है, मतलब हाई राइज बिल्डिंग्स. हॉरिजोंटल में शहरों का विस्तार किया जाता है. औरतों के लिए हॉरिजोंटल विकास ज्यादा अहम और मित्रवत होता है. वर्टिकल विकास में गगनचुंबी इमारतों के साथ सड़कें ज्यादा सुनसान होती हैं और सेग्रेगेशन बढ़ता है.
ऑफिस स्पेस, इंटरटेनमेंट जोन्स और रिहायशी इलाके, सब अलग-अलग. इससे ऑफिस स्पेस से रिहाइशी इलाके तक आने वाली सड़कें लंबी और असुरक्षित होती हैं. हॉरिजोंटलर विकास औरतों के लिए अच्छे इसलिए होते हैं क्योंकि सड़कों के किनारे कभी सुनसान नहीं होते. जोन्स अलग-अलग न हों तो और भी अच्छा. क्योंकि तब हर वक्त, हर स्थान पर चहल-पहल होती है. किताब शोध-अनुसंधान से साबित करती है कि औरतें शहरों में केयॉस और भीड़भाड़ पसंद ज्यादा करती हैं.
शहरों का भूगोल बदल गया है
भारतीय महानगर अब नए भूगोल के साथ लोगों के बीच हैं. यहां सार्वजनिक स्पेस, निजी स्पेस तक पहुंचने का जरिया भर रह गए है. आप दफ्तर से निकलकर सड़क पर तब चलते हैं, जब घर पहुंचना होता है. सड़कें भी फर्राटा दौड़ती गाड़ियों के लिए बनी हैं. लंबे-लंबे फ्लाईओवर्स, तब बहुत अच्छे लगते हैं, जब आपके पास बड़ी सी गाड़ी हो.
साइकिल सवार को यही सड़कें काट खाने को दौड़ती हैं, क्योंकि बहुत कम सड़कों पर उसके लिए साइकिल ट्रैक हैं. उसे तेज रफ्तार गाड़ियों से रेस लगानी पड़ती है. भले ऐसी स्टडी नहीं है कि शहरों में पुरुष और महिला ड्राइवरों का अनुपात क्या है लेकिन आंखों देखी सड़कों पर पुरुष ड्राइवर ही अधिक नजर आते हैं. तो ड्राइवरों के लिए ही ये सड़कें हैं. अधिकतर ड्राइवर आदमी हैं तो जाहिर सी बात है, सड़कें आदमियों के लिए, उनकी सुविधा के लिए ही बनी हैं.
वियना का उदाहरण
शहरों की प्लानिंग में यूजर सबसे अहम होता है. लेकिन शहरों की डिजाइनिंग में यूजर का कोई लिंग तय नहीं होता. जब तक यूजर की पहचान निर्धारित नहीं की जाएगी, शहर कैसे बनेंगे. इस सिलसिले में वियना का उदाहरण लिया जा सकता है. उस शहर को सिटी विद अ फीमेल फेस कहा जाता है.
1985 में वियना के आस-पास के इलाकों को महिला योजनाकारों को सौंपा गया. इसके बाद शहर की कायापलट हो गई. सड़कों के किनारे फुटपाथ चौड़े किए गए. फुटपाथ पर अच्छे बड़े बेंच बनाए गए. पब्लिक स्पेस ज्यादा हुए.
महिला योजनाकारों ने एक अध्ययन किया जिसमें यह पाया गया कि शहरों में पुरुषों के मूवमेंट के पैटर्न का अनुमान लगाया जा सकता है. लेकिन औरतों के मूवमेंट का पैटर्न उनकी दिनभर की जिम्मेदारियों के हिसाब से तय होता है. अध्ययन से यह भी पता चला कि औरतें पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल आदमियों से ज्यादा करती हैं और आदमियों के मुकाबले पैदल भी ज्यादा चलती हैं. इसे देखते हुए योजनाकारों ने पैदल यात्रियों के हिसाब से शहर की योजना बनाई.
महिलाओं के लिए रात को पैदल चलाना आसान हो, इसलिए सड़कों पर अतिरिक्त लाइटें लगवाईं. उन्होंने विकलांगों, बुजुर्गों वगैरह को भी शहर की प्लानिंग में हिस्सेदार बनाया.
महिलाओं के हाथ में कमान
जब शहरी योजना की कमान औरतों के हाथों में आएगी, तो शहरों पर उनका दावा मजबूत होगा.
दिल्ली में खोज नामक एनजीओ निम्न आय वर्ग की किशोर लड़कियों के साथ काम करता है. कई साल पहले खिड़की एक्सटेंशन की कई दीवारों पर उन लड़कियों ने लड़कियों के तस्वीरें उकेर दिए. किसी दीवार के चित्र में लड़कियां यूं ही बैठी बतिया रही थीं, कहीं किताबें पढ़ रही थीं.
मुद्दा यह था कि पब्लिक स्पेस में लड़कियों की मौजूदगी होनी चाहिए. यह सुरक्षा से भी आगे की बात है. चूंकि औरतों को शहरों से सिर्फ सुरक्षा नहीं चाहिए- यह शहरों में अपने अस्तित्व का भी सवाल है.
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