"चीजें जितनी ज्यादा बदलती हैं, उतनी ही ज्यादा वे वैसी ही रहती हैं." यह कहावत विपक्ष के इंडिया (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस) गुट की मौजूदा हालत पर सटीक बैठता है. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी दलों ने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के खिलाफ एकजुट मोर्चा बनाने की कोशिश की थी, लेकिन असफल रहे थे, अब इस बार का राजनीतिक नाटक भी पिछली बार से अलग नहीं है.
असल में, बीजेपी से लड़ने के लिए, पिछले आम चुनाव से पहले व्यापक विपक्षी गठबंधन बनाने की कोशिशें और पिछले कुछ महीनों में विपक्षी दलों द्वारा आम लड़ाई की तैयारी के लिए किए गए प्रयासों के बीच एक आश्चर्यजनक समानता है.
दोनों उदाहरणों में, फोटो-ऑप्स देखने को मिले, जिसमें पार्टियों के अलग-अलग ग्रुप के नेता हाथ मिलाते, बीजेपी को चुनौती देने और लोकतंत्र को बचाने के व्यापक हित के लिए अपने मतभेदों को दूर करने का वादा करते हुए दिखाई देते. इस बार, विपक्षी दलों ने एक कदम आगे बढ़कर अपने गठबंधन के लिए एक नाम ढूंढ लिया, कई हाई-प्रोफाइल बैठकें कीं और अपनी संयुक्त चुनाव रणनीति के अलग-अलग पहलुओं को देखने के लिए कई समितियों का गठन किया.
लेकिन पहले के मामले की तरह, अहंकार की लड़ाई, राज्य-स्तरीय राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, आपसी रंजिश और नेतृत्व की भूमिकाओं पर एक अघोषित लड़ाई छह महीने पुराने विपक्षी गठबंधन के खत्म होने का खतरा पैदा कर रही है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी की "भारत जोड़ो न्याय यात्रा " विवाद का एक और मुद्दा है. इंडिया ब्लॉक पार्टियों का मानना है कि अकेले चलने के बजाय, एक संयुक्त अभियान और ज्यादा शक्तिशाली संदेश देता. यात्रा के वर्तमान स्वरूप को बीजेपी से मुकाबला करने की कोशिश के रूप में नहीं, बल्कि राहुल गांधी की गिरती छवि को पुनर्जीवित करने की कवायद के रूप में देखा जा रहा है.
इन घटनाक्रमों से कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है
अब एक पैटर्न बनता जा रहा है, बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यू) के अध्यक्ष नीतीश कुमार को लेकर अनुमान लगाया जा रहा है कि वह सीट-बंटवारे की बातचीत के दौरान एक बार फिर बीजेपी के साथ गठबंधन करने के लिए तैयार हैं, वहीं पश्चिम बंगाल और पंजाब में विपक्षी गठबंधन भी फेल साबित हो रही है. इन दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों - ममता बनर्जी और भगवंत सिंह मान - ने घोषणा की है कि उनकी पार्टियां आगामी लोकसभा चुनाव अकेले लड़ेंगी.
नीतीश कुमार इस बात से नाखुश हैं कि उन्हें इंडिया ब्लॉक का संयोजक नहीं बनाया गया. वहीं, राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ उनके रिश्ते पिछले कुछ हफ्तों से तनावपूर्ण चल रहे हैं. नीतीश कुमार की हालिया टिप्पणी कि कर्पूरी ठाकुर ने कभी भी वंशवादी राजनीति को प्रोत्साहित नहीं किया, पर आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव की बेटी ने सोशल मीडिया एक्स पर तीखी टिप्पणी की, जिसे बाद में उन्होंने डिलीट कर दिया, यह इस बात का ताजा उदाहरण है कि दोनों दल अब दूर हो गए हैं.
सभी INDIA गठबंधन की पार्टियों में से, यह कांग्रेस ही है जो इन घटनाक्रमों से सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है. तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी कांग्रेस से इस बात से नाराज हैं कि पश्चिम बंगाल कांग्रेस प्रमुख अधीर रंजन चौधरी लगातार उनपर हमले कर रहे हैं लेकिन पार्टी ने उन्हें नहीं रोका. वह इस बात से भी नाराज हैं कि कांग्रेस पार्टी ने अपनी सीट-बंटवारे की व्यवस्था को अंतिम रूप देने में देरी की है.
जबकि कांग्रेस ने अपनी मांग ऊपर रखी है, ममता बनर्जी राज्य में सबसे पुरानी पार्टी की मामूली मौजूदगी को देखते हुए दो से अधिक सीटें छोड़ने को तैयार नहीं हैं. वह यह भी चाहती हैं कि कांग्रेस भी मेघालय और असम में तृणमूल कांग्रेस को समर्थन दे. सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी से राहुल गांधी की निकटता ने तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के बीच तनाव बढ़ा दिया है. नतीजतन, ममता बनर्जी ने यह साफ कर दिया है कि कांग्रेस और वाम दलों दोनों के साथ गठबंधन का सवाल ही नहीं उठता.
असल में, कई दलों की मौजूदगी ममता बनर्जी के लिए फायदेमंद होती है क्योंकि तब तृणमूल कांग्रेस विरोधी वोट बंट जाते हैं. दो-मोर्चे की चुनावी लड़ाई में एंटी इनकंबेंसी वोट की वजह से बीजेपी को और ज्यादा फायदा होगा. वैसे भी, वाम दलों को खत्म करने के ममता बनर्जी के जुनून ने बीजेपी को आज पश्चिम बंगाल में मुख्य विपक्षी दल के रूप में स्थापित करने में मदद की है.
क्षेत्रीय दल मजबूती से बातचीत कर सकते हैं
पंजाब की कहानी भी अलग नहीं है. तृणमूल कांग्रेस की तरह, AAP अपना राजनीतिक पकड़ बनाना और अपना वोटबैंक बढ़ाना चाहती है. विधानसभा चुनावों में भारी जनादेश हासिल करने के बाद, AAP स्पष्ट रूप से लोकसभा में अपने हालत में सुधार करना चाहती है. चूंकि कांग्रेस के सात मौजूदा लोकसभा सदस्य हैं, इसलिए उसने अपने हिस्से की उतनी ही सीटें मांगी हैं. आम आदमी पार्टी का कहना है कि कांग्रेस की मांग अवास्तविक है क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से पंजाब में राजनीतिक परिदृश्य में बड़ा बदलाव आया है.
पिछले पांच वर्षों में कांग्रेस के सपोर्ट बेस में लगातार गिरावट आई है, जबकि पंजाब में AAP का ग्राफ बढ़ा है, आम आदमी पार्टी ने 2022 के विधानसभा चुनावों में 117 में से 92 सीटें जीती हैं.
सीट-बंटवारे की बातचीत में भी रुकावट आई है क्योंकि AAP चाहती है कि कांग्रेस हरियाणा और गुजरात में भी सीट दे, जैसे कि तृणमूल कांग्रेस ने असम और मेघालय में सीटों का उचित हिस्सा मांगा है.
हाल के विधानसभा चुनावों में खराब प्रदर्शन और बार्गेनिंग पावर कमजोर होने की वजह से कांग्रेस के पास शांत बयानों के साथ जवाब देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. यह क्षेत्रीय दल ही हैं जिनका पलड़ा भारी है क्योंकि वे अपने-अपने राज्यों में सहज स्थिति में हैं और बीजेपी से मुकाबला करने को लेकर आश्वस्त हैं. वे मजबूती के साथ बातचीत करने का जोखिम उठा सकते हैं. उनका शुरू से ही यह तर्क रहा है कि किसी राज्य में मजबूत पार्टियों को सहयोगियों के बीच सीटों के बंटवारे में अंतिम अधिकार होना चाहिए.
INDIA गुट की सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के रूप में, कांग्रेस का मानना है कि वह विपक्षी ग्रुप का आधार है. लेकिन क्या वह बीजेपी के लिए एक योग्य चुनौती के रूप में उभरने का दावा कर सकती है, खासकर उन राज्यों में जहां दोनों पार्टियां सीधे तौर पर आमने-सामने हैं. अब तक कांग्रेस का रिकॉर्ड खराब रहा है.
राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और कर्नाटक की 128 सीटों में से कांग्रेस 2019 में केवल चार सीटें जीत सकी थी. कांग्रेस को इन राज्यों में अपना गेम बढ़ाना होगा क्योंकि विपक्षी गठबंधन का अस्तित्व इस पर निर्भर करता है कि वो लोकसभा में क्या करते हैं.
विडंबना यह है कि, कांग्रेस INDIA गुट की सबसे बड़ी ताकत है, लेकिन सबसे बड़ी कमजोरी भी है.
(अनीता कत्याल दिल्ली स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे @anitaakat पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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