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सचिन और सिंधिया: कलह पर कितनी अलग नई, पुरानी पीढ़ी की प्रतिक्रिया

सिंधिया और पायलट ने मुसीबत में पार्टी का साथ जरूर छोड़ा, पर इसमें कुछ दोष पार्टी नेतृत्व का भी है

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जो हुआ, वह ऐसा होना तय नहीं था. कभी ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, अशोक तंवर, कीर्ति प्रद्योत देब बर्मन, अजय कुमार, मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह का नाम कांग्रेस पार्टी के ‘जेन नेक्स्ट’ नेताओं में शुमार होता था.

राहुल गांधी ने भविष्य की अपनी कोर टीम में उन्हें शामिल किया था, ठीक वैसे ही जैसे कभी उनके पिता राजीव गांधी ने किया था. राजीव की कोर टीम में अशोक गहलोत, अहमद पटेल, राजेश पायलट, माधवराव सिंधिया, दिग्विजय सिंह और आरिफ मोहम्मद खान जैसे नेता शामिल थे. यूं अधिकतर लोगों को लगता था कि पार्टी के पुराने धुरंधर यानी ‘ओल्ड गार्ड’ किसी न किसी समय राहुल और उनके नेतृत्व का विरोध करेंगे या उनके खिलाफ खड़े हो जाएंगे. पर हुआ इसका उलट. जिन लोगों को राहुल तैयार कर रहे थे, उन्होंने खुद पार्टी छोड़ने का विकल्प चुना. सिंधिया, अजय कुमार, तंवर कांग्रेस को छोड़कर जा चुके हैं, और सचिन पायलट भी इसी रास्ते पर हैं. वह या तो ऐसा कर चुके हैं, या जल्द ही ऐसा करने वाले हैं, और इसकी जानकारी समाचार पत्रों से मिल सकती है.

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सिंधिया सीनियर और पायलट सीनियर आंतरिक कलह के बावजूद कांग्रेस में बने रहे

माधवराव सिंधिया और राजेश पायलट का दौर भी तमाम उतार-चढ़ावों से भरा था. पर वे पार्टी में गुटबाजी और छोटे मोटे झगड़ों को झेल गए. आखिरकार उन्होंने पार्टी के भीतर और बाहर अपनी जगह बनाई, यह बात और है कि दुर्भाग्यवश मौत ने उनका राजनैतिक सफर असमय ही खत्म कर दिया.

अगर माधवराव सिंधिया को कांग्रेस के भीतर अर्जुन सिंह, शुक्ला बंधुओं और दिग्विजय सिंह के विरोध का सामना करना पड़ा तो बाहर भाजपा का. 2001 में 30 सितंबर को तेज बारिश भरी दोपहरी में उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ और इसमें उनकी मौत हो गई.

राजेश पायलट का अंत भी इससे कुछ अलग नहीं था. पार्टी अध्यक्ष के पद के लिए उन्होंने सीताराम केसरी के खिलाफ चुनाव लड़ा, वह हारे और कांग्रेस वर्किंग कमिटी से हटा दिए गए. लेकिन गृह राज्य मंत्री के तौर पर वह बने रहे और बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के बाद दिल्ली में रैली निकालने के भाजपा के मंसूबों पर पानी फेरा. 2000 में कार दुर्घटना में त्रासद मौत से पहले तक पायलट विरोधियों का मुकाबला करते रहे.

सिंधिया और पायलट ने मुसीबत में पार्टी का साथ जरूर छोड़ा, पर इसमें कुछ दोष पार्टी नेतृत्व का भी है
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माधवराव सिंधिया और राजेश पायलट ने आंतरिक कलह के बावजूद पार्टी के प्रति अपनी वफादारी बनाए रखी. एक छोटा सा अरसा रहा जब माधवराव ने पार्टी का साथ छोड़ा लेकिन फिर घर वापसी कर ली.

1996 में टिकट न मिलने से माधवराव सिंधिया नाराज हुए और मध्यप्रदेश विकास कांग्रेस बनाई थी, यूनाइटेड  फ्रंड के सहयोगी भी बने लेकिन 1998 में वापस कांग्रेस में आ गए. 1999 में कांग्रेस लोकसभा चुनाव हारी, तब भी वे पार्टी के साथ खड़े थे. वे दोनों कांग्रेस के उन अग्रणी नेताओं में शामिल थे जिन्होंने वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के खिलाफ मोर्चा संभाला था, न सिर्फ संसद के भीतर, बल्कि बाहर भी.

सिंधिया और पायलट ने मुसीबत में पार्टी का साथ जरूर छोड़ा, पर इसमें कुछ दोष पार्टी नेतृत्व का भी है

क्या सिंधिया और पायलट ने सिद्धांतों के लिए पार्टी छोड़ी है

ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, अशोक तंवर और अजय कुमार को दूसरे युवा नेताओं में से चुना गया क्योंकि वे राहुल गांधी के दोस्त थे और लगभग एक सी पृष्ठभूमि वाले थे. सभी नाजों से पाले गए थे, विदेश से पढ़ाई करके आए थे, वे वाकपटु और कई भाषाओं पर पकड़ रखते थे. उनमें भविष्य की उम्मीद देखी गई. राहुल गांधी उन्हें बढ़ावा देते रहे और कुछ को यूपीए सरकार में मंत्री पद भी दिया गया. उन्हें ऐसे कई युवा नेताओं से ज्यादा तवज्जो दी गई जोकि सामान्य पृष्ठभूमि से आते थे और लाइमलाइट से दूर रहना पसंद करते थे. वैसे इससे यह भी पता चलता है कि राहुल गांधी की पसंद कैसी थी- इन बड़े नामों ने तूफान में फंसे जहाज से कूदने का फैसला किया, जबकि दूसरे लोग झंझावात में भी टिके हुए हैं.

ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट, दोनों दुनिया जहान को यह विश्वास दिलाने की कोशिश करेंगे कि अपने सिद्धांतों के कारण उन्होंने पार्टी छोड़ी है. पर क्या यह सच है?

हद से हद यह हो सकता है कि उनकी पार्टी ने अपने वादे को पूरा नहीं किया. दोनों का यह कहना है कि उन्हें क्रमशः मध्य प्रदेश और राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाए जाने का ‘वादा’ किया गया था. दूसरी तरफ केंद्रीय नेतृत्व का कहना है कि इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं की गई थी. कांग्रेस में केंद्रीय नेतृत्व के करीबियों के मुताबिक, राहुल गांधी ने दोनों को आश्वासन दिया था कि उनका समय आएगा और फिलहाल उन्हें तसल्ली करनी चाहिए. लेकिन दोनों में अपने-अपने पिता के मुकाबले धैर्य की कमी है.

अब इन नेताओं ही नहीं, गांधी परिवार के लिए भी राजनीति के सुर बिगड़ गए हैं- खासकर राहुल गांधी के लिए. 2019 में जबरदस्त हार के बाद उन्होंने पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ दिया. हालांकि उनके ‘कमबैक’ की सुगबुगाहट है, फिर भी वह एकांतवास का लुत्फ उठा रहे हैं.

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कांग्रेस या तो राहुल को मनाए या कोई दूसरा मुखिया चुने

कांग्रेस के मौजूदा संकट ने गांधी परिवार की सत्ता और प्रभुत्व को चोट पहुंचाई है. उन्होंने एक लंबे समय तक पार्टी को एकजुट रखा है. उनके नेतृत्व में गुटबंदियां टूटी भी हैं. लेकिन 2014 और 2019 में लगातार हार और नेतृत्व से जुड़े भ्रम के कारण गांधी परिवार के फैसलों का असर कम होने लगा है.

सिंधिया और पायलट ने मुसीबत में पार्टी का साथ जरूर छोड़ा, पर इसमें कुछ दोष पार्टी नेतृत्व का भी है. उसने नेताओं के असंतोष पर ध्यान नहीं दिया और फैसला लेने से बचता रहा. इसके चलते भी कांग्रेस जैसी बड़ी और पुरानी पार्टी मंझधार में फंसी है.

राजस्थान में कांग्रेस नेतृत्व सत्ता का बंटवारा कुछ इस तरह कर सकता था कि अशोक गहलौत के मुख्यमंत्री रहने के बावजूद सचिव पायलट को पर्याप्त जिम्मेदारी दी जाती और सरकार चलाने में उनसे भी राय ली जाती.

कांग्रेस के लंबे इतिहास का यह सबसे कठिन दौर है. अगर उसे एक लंबी दौड़ के लिए खुद को तैयार करना है तो सबसे पहले अपने नेतृत्व के मसले को हल करना चाहिए. इसके अलावा अपने सैद्धांतिक भ्रम को दूर करना चाहिए और संगठन को दोबारा तैयार करना चाहिए. उसे ऐसा नेरेटव गढ़ना चाहिए जोकि न सिर्फ विशिष्ट, बल्कि रचनात्मक भी हो.

सबसे जरूरी यह है कि कांग्रेस को या तो राहुल गांधी को इस बात के लिए मनाना चाहिए कि वे नेतृत्व संभालें या किसी ऐसे व्यक्ति को चुनना चाहिए जो इस जिम्मेदारी को उठाने को तैयार हो. कांग्रेस लंबे समय से इस मसले को टाल रही है. अगर वह ऐसा नहीं करती तो गहरे गर्त में गिर सकती है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. वह @javedmansari पर ट्वीट करते हैं. ये लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है)

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