तीन हिंदी भाषी राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अपनी हार से स्तब्ध कांग्रेस (Congress) को आने वाले दिनों में गंभीर आत्मनिरीक्षण करना होगा कि इन चुनावों में क्या गलत हुआ और पार्टी यहां से कहां जाएगी.
यह आसान काम नहीं है. कांग्रेस को इस अपमानजनक हार से उबरने में समय लगेगा. उसे भरोसा था कि वो इन तीन राज्यों में से दो में जीत हासिल करेगी. कांग्रेस को भरोसा था कि छत्तीसगढ़ में जीत पक्की है और भूपेश भगेल शानदार प्रदर्शन करेंगे.
वो मध्य प्रदेश को भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) से सत्ता छीनने के लिए भी उतनी ही आश्वस्त थी और उम्मीद कर रही थी कि राजस्थान में लगातार दूसरी बार जीत हासिल करेगी, हालांकि राज्य में हर चुनाव के साथ सरकार बदलने की परंपरा है.
हर चुनावी फैक्टर में बीजेपी ने कांग्रेस को हराया
कर्नाटक में अपनी सफलता से संकेत लेते हुए, कांग्रेस ने चुनाव की योजना और प्रबंधन का जिम्मा राज्य के नेताओं को सौंप दिया था. इसने विभिन्न वर्गों के लिए कल्याणकारी योजनाओं की का वादा करने के साथ अपने कर्नाटक प्लेबुक से भी कई चीजें उधार लीं.
राजस्थान में अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ में बघेल ने पहले ही महिलाओं, युवाओं, किसानों और आदिवासियों के लिए योजनाओं की एक सीरीज शुरू कर दी थी. इस वादे के साथ कि अभी भी बहुत कुछ आना बाकी है.
हालांकि, इस खेल में उसे बीजेपी ने हरा दिया. चुनाव से कुछ महीने पहले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लाडली बहना योजना शुरू करते हुए महिलाओं को 1200 रुपये की नकद राशि देना शुरू किया और कई मुफ्त सुविधाएं देने का भी वादा किया.
इसमें भारी मात्रा में धार्मिक ध्रुवीकरण भी शामिल थी. हालांकि कमलनाथ और बघेल ने धर्म का कार्ड खेलकर बीजेपी से बराबरी करने की कोशिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीजेपी का सबसे बड़ा दांव साबित हुए जिनकी लोकप्रियता पिछले दस सालों में कम नहीं हुई है. इन राज्यों में चुनावों का नेतृत्व मोदी ने किया जो पार्टी के चुनाव कैंपेन का मुख्य चेहरा थे.
राज्य के नेताओं को साइड कर दिए जाने के चलते, ये चुनाव मोदी और उनके मुफ्त सुविधाओं के वादे के इर्द-गिर्द घूमता रहा. खास तौर पर तीनों राज्यों के मतदाताओं ने प्रधान मंत्री पर भरोसा किया. बीजेपी ने समय-समय पर लोगों को आश्वासन देने के लिए "मोदी की गारंटी" की बात की और लोगों में उम्मीद जगाई कि उनसे किए गए वादे पूरे होंगे.
कर्नाटक की रणनीति हिंदी हार्टलैंड में काम नहीं करेगी
हिंदी पट्टी के राज्यों में कर्नाटक की रणनीति फेल होने के कारणों का विश्लेषण करने के लिए कांग्रेस को फिर से चिंतन करना पड़ेगा. दक्षिणी राज्य में अपनी जीत के बाद, कांग्रेस के रणनीतिकारों का मानना था कि रोजी-रोटी के मुद्दे उठाना और सामाजिक सुरक्षा के वादे जीत का फॉर्मूला हैं.
हालांकि, कांग्रेस बीजेपी की हिंदुत्व विचारधारा के भारी प्रभाव पर ध्यान देने में विफल रही, जिसपर यकीन करने वाले कर्नाटक की तुलना में हिंदी पट्टी में ज्यादा हैं.
"बजरंग बली" का नारा दक्षिण में काम नहीं आया, लेकिन सनातम धर्म विवाद और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का टैग उत्तर भारत में मतदाताओं के बीच गूंज उठा. कांग्रेस पिछले दस सालों से बीजेपी की वैचारिक चुनौती का जवाब खोजने के लिए संघर्ष कर रही है, लेकिन अब उसके लिए फिर से चुनौती खड़ी हो गई है.
देर से उठाए गए कदम में, कांग्रेस ने जाति कार्ड खेलने का फैसला किया, जिससे उसे उम्मीद थी कि ये धार्मिक ध्रुवीकरण में बीजेपी के प्रयासों को मात दे सकता है. इसकी शुरुआत सत्ता में आने पर राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना का वादा करके अन्य पिछड़े वर्गों को लुभाने से हुई.
यहां एक बार फिर उसे बीजेपी से मात खानी पड़ी है. बीजेपी ने सार्वजनिक रूप से इसका समर्थन नहीं किया है, लेकिन उसने पिछड़े वर्ग के नेताओं को अपने साथ लाकर और उन्हें पार्टी में पद देकर अपने सामाजिक आधार का विस्तार किया.
नए चुनाव परिणामों से ये स्पष्ट है कि कांग्रेस अपने जाति कार्ड को भुनाने में असमर्थ रही. पिछड़े वर्गों ने तीन राज्यों में बीजेपी को भारी वोट दिया, भले ही राजस्थान और छत्तीसगढ़ के निवर्तमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और भूपेश बघेल दोनों OBC हैं.
कांग्रेस को क्या करना चाहिए?
आगामी लोकसभा चुनाव के लिए स्वीकार्य राजनीतिक के नैरेटिव पर काम करने और अपनी वैचारिक दुविधा को हल करने के अलावा, कांग्रेस को युवा पीढ़ी के नेताओं को प्रोत्साहित करना होगा. साथ ही पार्टी संगठन को ठीक करने पर भी उन्हें ध्यान देना होगा.
पार्टी को हालिया चुनाव परिणाम से कुछ सबक लेना चाहिए और संगठन में पीढ़ीगत बदलाव के लिए आगे बढ़ना चाहिए. कमल नाथ और दिगिवजय सिंह जैसे दिग्गजों को पार्टी में सलाहकार की भूमिका दी जानी चाहिए, जबकि युवा चेहरे नेतृत्व की कमान संभालें और पार्टी का चेहरा बनकर उभरें.
कांग्रेस को उत्तरी राज्यों में अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन वापस हासिल करनी होगी, यहां अभी भी उसका आधार और संगठन मौजूद है. अगर यहां भी इसका पतन जारी रहा, तो उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल की तरह हाशिये पर सिमटने में ज्यादा समय नहीं लगेगा. इन सवालों के जवाब ढूंढते हुए, कांग्रेस को मतदाताओं के साथ विश्वास बनाने और अपनी विश्वसनीयता हासिल करने पर काम करना होगा.
बीजेपी के दस साल के लंबे प्रचार ने कांग्रेस की विश्वसनीयता को खत्म करने के लिए काम किया है. ये फिर से एक मुश्किल काम है, क्योंकि बीजेपी के इस संदेश पर कि कांग्रेस एक भ्रष्ट और वंशवादी पार्टी है, लोगों ने भरोसा कर लिया है और कांग्रेस को ये आत्मसात कर लिया है. दूसरी ओर, मोदी की विश्वसनीयता अपने उच्च स्तर पर बनी हुई है.
उनके सार्वजनिक बयानों और भाषणों को सच के रूप में स्वीकार किया जाता है. कांग्रेस के लिए किसी भी तरह की सफलता हासिल करने का एकमात्र तरीका प्रधानमंत्री की विश्वसनीयता को खत्म करना है, लेकिन अगर वो "चौकीदार चोर है" जैसे नारे लगाएंगे तो इससे पार्टी के उद्देश्य में मदद नहीं मिलेगी. वोटर्स ने इसे व्यक्तिगत हमले के रूप में लेकर खारिज कर दिया था.
चूंकि अगले लोकसभा चुनाव में पांच महीने से भी कम समय बचा है, इसलिए कांग्रेस को अपना घर दुरुस्त करने के लिए अपने प्रयास दोगुने करने होंगे. समय लगातार निकल रहा है.
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