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मोदी कोरोना से जंग का नेतृत्व कर रहे, बाकी चीजें देख रहे अमित शाह

मोदी जब कोरोनावायरस महामारी से लड़ रहे हैं तब शाह भगवा एजेंडा की खोज में जुटे हैं.

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अमित शाह कहां हैं? जबसे कोरोना महामारी ने हमें अपनी चपेट में लिया है, यह सवाल शाह विरोधियों की ओर से उठाए जा रहे हैं. आपदा मंत्रालय के प्रभारी के तौर पर (आधिकारिक रूप से महामारी को राष्ट्रीय आपदा के तौर पर अधिसूचित किया गया है) निश्चित रूप से शाह आगे आकर नेतृत्व करते या कम से कम टीवी पर, सोशल मीडिया में, ऑपरेशनों के निर्देशन, प्रेस को ब्रीफ करते हुए दिखते. जिस तरह से न्यूयॉर्क के गवर्नर एंड्र्यू क्यूओमो न्यूयॉर्क में कर रहे हैं या फिर जैसे कोविड-19 प्रभावित इलाकों में दूसरे नेता चिंतित लोगों को भरोसा दिला रहे हैं.

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क्यों शाह सभी सार्वजनिक प्लेटफॉर्म से गायब रहे, जब पूरा देश अग्रिम मोर्चे पर तैनात म़ेडिकल कोरोना वॉरियर्स के साथ एकजुटता दिखाते हुए 22 मार्च को जनता कर्फ्यू वाले दिन तालियां बजा रहा था. सार्वजनिक तौर पर हर बात ट्वीट करने वाले व्यक्ति ने राष्ट्र के साथ समर्थन दिखाते हुए अपनी एक तस्वीर तक क्यों नहीं पोस्ट की, जबकि खुद प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी से कम उन्हें नहीं आंका जाता है.

स्नैपशॉट

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह सभी सार्वजनिक प्लेटफॉर्म से नदारद रहे.

कोरोना वायरस से जुड़े हर मामले में शाह की अनुपस्थिति अब भी ध्यान देने योग्य है क्योंकि वे मोदी 2 में हाई प्रोफाइल व्यक्ति हैं.

मोदी जब कोरोनावायरस महामारी से लड़ रहे हैं तब शाह भगवा एजेंडा की खोज में जुटे हैं. शाह ने बीजेपी के लिए राज्य को हासिल कर दिखाना अपना मिशन बना लिया है.

फरवरी के सांप्रदायिक दंगों की फास्ट ट्रैक जांच से दिल्ली पुलिस पीछे हट गयी है. गृहमंत्रालय ने चुपके से जम्मू और कश्मीर में नये डोमिसाइल रूल की अधिसूचना घोषित कर दी.

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‘लापता’ अमित शाह को लेकर अटकलें?

कोरोना वायरस से जुड़े हर मामले में शाह की अनुपस्थिति अब भी ध्यान देने योग्य है क्योंकि उन्होंने मोदी सरकार के दूसरी बार सत्ता में आने पर अपने लिए हाई प्रोफाइल वाली पोजिशन हासिल की है. वास्तव में वे सरकार का चेहरा हो गये हैं क्योंकि उन्होंने हिन्दुत्व के कोर एजेंडा को लागू करने में नेतृत्वकारी भूमिका निभाई- तीन तलाक पर रोक लगाने का कानून, अनुच्छेद 370 को जम्मू और कश्मीर से वापस लेना और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटना और नागरिकता संशोधन कानून को पारित करना जिसके बाद देशभर में प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया और कोरोना वायरस आने तक हर जगह छाया रहा. वास्तव में लोग कहने लगे थे कि क्या शाह ने सरकार चलाने की जिम्मेदारी मोदी से ले ली है!

महामारी आते ही मोदी और शाह ने बिना किसी बाधा के अपनी-अपनी स्थिति बदल ली है. शाह ने खुद को मददगार की भूमिका में बदल लिया है जबकि मोदी ने केंद्रीय भूमिका अपना ली है और क्या बात होनी , कैसे तय होनी है ये तय कर रहे हैं.

यह इतनी आसानी से और इतनी तेजी से हुआ कि शाह विरोधियों को उनकी अनुपस्थिति को समझने में भी वक्त लग गया. तब से शाह की भूमिका को लेकर अटकलों का तूफान उठ खड़ा हुआ है कि उनकी भूमिका सरकार में सबसे ताकतवर व्यक्ति की नहीं रह गयी है. राजनाथ सिंह को कोविड-19 पर मंत्रियों के समूह के प्रमुख तौर पर नियुक्त किया जाना (शाह के नोडल मिनिस्ट्री में प्रभारी होने के बावजूद) सत्ता के शक्ति संतुलन में बदलाव का एक और प्रमाण था. निजामुद्दीन मरकज में तबलीगी जमात संकट के दौरान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल को तैनात किया जाना गृहमंत्रालय की खुफिया चूक की पर्देदारी थी. इसी तरह अन्य घटनाएं भी हुईं.

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हमेशा की तरह व्यस्त रहे अमित शाह

सच से बड़ा कुछ नहीं होता. कोविड-19 के विरुद्ध संघर्ष में सामने से आकर नेतृत्व करना मोदी के जीवन की बड़ी घटना है और यह शाह को उनके हिन्दुत्व पर चलने के लिए रक्षा कवच भी. वे चुप हो सकते हैं, लेकिन सक्रिय वैसे ही हैं जैसे हमेशा रहते हैं. तरीका बदल गया है लेकिन चीजें नहीं बदली हैं. शाह भगवा एजेंडे पर बने हुए हैं.

गृहमंत्री के इन कदमों पर विचार करें जो निर्ममता के साथ अपने कारोबार को आगे बढ़ा रहे हैं जबकि समूचा देश कोरोना वायरस की महामारी की चपेट में है.

एक, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस सरकार पर राजनीतिक हमले में कोई कमी नहीं है जहां अगले मार्च-अप्रैल में चुनाव होने हैं.

शाह ने इस राज्य को बीजेपी के लिए हासिल करना अपना मिशन बनाया है.

एक ओर जहां मोदी जानलेवा वायरस के खिलाफ एकीकृत संघर्ष के लिए सहयोग मांगते हुए वाजपेयी की याद दिला रहे हैं तो शाह राजनीतिक हमले कर रहे हैं.

ताजा मामला ममता सरकार को अपने मंत्रालय से चेतावनी देना है कि 7 इलाकों में लॉकडाउन लागू करने में सरकार नाकाम रही. महत्वपूर्ण यह है कि इनमें से 5 मुस्लिम बहुल हैं. पत्र में यह बताने की कोशिश दिखती है कि लॉकडाउन के दौरान मुसलमानों को पूरी छूट दी गयी है जबकि हिन्दुओं को अपने घरों में रहने को विवश किया जा रहा है.

तृणमूल कांग्रेस के एक नेता ने ध्यान दिलाया कि हिन्दू इलाकों में मछली और मांस के बाजार खुले हैं लेकिन सरकार ने फोकस करने के लिए केवल मुस्लिम इलाकों को चुना है. निश्चित रूप से ममता और बीजेपी के साथ जुबानी जंग शुरू हो गयी और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ने सांप्रदायिक वायरस फैलाने का आरोप जड़ डाला. उन्होंने उस वीडियो कॉन्फ्रेन्स में भी यह मसला उठाया जिसमें मुख्यमंत्रियों के साथ मोदी मौजूद थे.

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गृहमंत्रालय ने दिल्ली पुलिस को खामोश कराया

दूसरा, उत्तर पूर्व दिल्ली में फरवरी में हुए सांप्रदायिक दंगों की फास्ट ट्रैक जांच और जामिया में सीएए विरोधी हिंसा एवं गिरफ्तारी को लेकर दिल्ली पुलिस पर गृहमंत्रालय का जबरदस्त दबाव है.

दो हफ्ता पहले गृहमंत्रालय की एक उच्चस्तरीय बैठक में पुलिस की खिंचाई की गयी और कहा गया कि वो अपना काम फुर्ती से करें.

उसके बाद कई गिरफ्तारियां हुईं. जामिया से दो छात्र नेता गिरफ्तार किए गये जिन पर किसी किस्म की गतिविधियों में शामिल होने के आरोप थे. और, दंगे में गिरफ्तारी की कुल सख्या 800 पहले ही पहुंच चुकी है. कहने की जरूरत नहीं कि दोनों मामलों में पकड़े गये लोगों में बड़ी तादाद में मुस्लिम हैं.

मार्च करते हुए शाह ने चुनी है ‘सैनिक’ की भूमिका

तीसरा, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा की इस अपील के बावजूद कि महामारी को सांप्रदायिक नहीं किया जाए और भारत में कोरोना फैलाने के लिए तबलीगी जमात पर आरोप नहीं लगाया जाए, सोशल मीडिया पर यह अभियान जारी है. इस हमले का नेतृत्व बीजेपी की आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय कर रहे हैं जिन्हें शाह ने बीजेपी अध्यक्ष रहते हुए इस काम के लिए चुना था. यह अभियान बारीकी से मुस्लिम विरोध के संदेश पर काम करता है जो शाह की बीजेपी की पहचान है और यह पार्टी के राजनीतिक रंग को गहरा बना रहा है.

चौथा, जबकि हर किसी का ध्यान वायरस के खिलाफ संघर्ष पर केंद्रित है, गृहमंत्रालय ने जम्मू-कश्मीर में नयी डोमिसाइल रूल की घोषणा करते हुए अधिसूचना जारी कर दी जिसके जरिए गैर कश्मीरी और गैर डोगरा लोगों के लिए संपत्ति का अधिग्रहण कर सकने और नौकरी पाने की सुविधा दी गयी है. यह आरएसएस की लम्बे समय से मांग रही थी. उसका मानना रहा है कि राज्य की डेमोग्राफी में बदलाव ही देश में इसके एकीकरण का रास्ता है.

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ये करने का समय भी दिलचस्प है. शायद शाह को उम्मीद थी कि महामारी में फंसे होने की वजह से अधिसूचना को कोई चुनौती नहीं मिलेगी.

बहरहाल यह एक मात्र पहल थी जिसमें उन्हें तुरंत अपने फैसले वापस लेने पड़े. ऐसा घाटी में राजनीतिक दलों की ओर से विरोध प्रदर्शनों के बाद हुआ, जिसमें न सिर्फ नवगठित अपना पार्टी भी शामिल थी बल्कि जम्मू में बीजेपी के नेता भी शरीक थे जो इस बात से गुस्से में थे कि इससे हृदय प्रदेश पर बाहरी लोगों का कब्जा हो जाएगा.

अधिसूचना वापस ले ली गयी और गृहमंत्रालय इस बात पर सहमत हो गया कि नौकरियों के लिए आवेदन करते समय पुरानी डोमिसाइल नीतियां जारी रहेंगी.

मोदी-शाह के संबंधों में कोई दिक्कत नहीं

जो लोग मोदी-शाह के बीच संबंधों को वर्षों से जानते हैं वे उन बातों पर हंसते हैं जिसमें कहा जाता है कि इनके बीच तनाव है. शाह मोदी का अभिमान हैं. अब वाजपेयी की भूमिका चाहते हैं मोदी जो सबको साथ लेकर चलने वाले थे, शाह हार्ड लाइनर आडवाणी बन गये हैं जिन पर हर हाल में हिन्दुत्व को लागू

करने की जिम्मेदारी है. वे परिदृश्य से गायब इसलिए हैं क्योंकि मोदी ने कोविड-19 के विरुद्ध संघर्ष के चेहरे के तौर पर अग्रिम मोर्चा संभाल लिया है.

(लेखिका दिल्ली में रहने वाली वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये लेखिका के अपने विचार हैं और इससे क्विंट का सरोकार नहीं है.)

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