केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने ये भ्रामक दावा देश के सामने पेश किया है कि भारत में कोरोना संक्रमण के फैलने की दर दुनिया के तमाम विकसित देशों से बेहतर और सन्तोषजनक है. दावा है कि 1 अप्रैल के बाद से देश में कोरोना के संक्रमितों की ‘वास्तविक’ संख्या में 40 फीसदी की कमी आयी है और राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की सफलता की वजह से देश में संक्रमितों की संख्या के दोगुना होने की अवधि 3 दिन से बढकर 6.2 दिन हो गयी है! और, भारत के 19 राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों में लॉकडाउन और अन्य उपायों ने उत्साहजनक नतीजे दिये हैं.
दिलचस्प बात ये भी है कि 17 अप्रैल का ये दावा किसी सियासी हस्ती की ओर से नहीं, बल्कि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) की ओर से किया गया है, ताकि यदि आगे चलकर ऊँट दूसरी करवट बैठ जाये तो राजनेताओं की छीछालेदर नहीं हो.
फिलहाल, ऐसे भ्रामक दावों से सरकार जो हासिल करना चाहती थी वो तो कमोबेश उसने हासिल कर लिया, क्योंकि मीडिया ने ICMR के दावों को वैसे ही ‘प्लांट खबर’ के रूप में पेश कर दिया, जैसा कि सरकार चाहती थी. वो भी तब जबकि ये तय करना बेहद आसान है कि ICMR का दावा कैसे भ्रामक है? इसका नियम भी बहुत आसान है कि ‘Compare the comparable’ यानी, ‘तुलना का आधार समान होना चाहिए’.
विज्ञान ने हमें सिखाया है कि दो आँकडों के बीच छोटे-बडे का अन्तर तय करने के लिए उनकी इकाई (यूनिट) का एक होना जरूरी है. इसीलिए हमें रुपये की तुलना डॉलर से करने से पहले एक्सचेंज रेट का हिसाब रखना पडता है. किलोमीटर और मील, दोनों दूरियाँ हैं लेकिन दोनों के आँकडों की तुलना उन्हें किसी एक यूनिट में बदलकर ही की जाती है. सेल्सियस और फैरनहाइट, दोनों तापमान की इकाई हैं, लेकिन दोनों की तुलना करने से पहले हमें संख्या को किसी एक इकाई में बदलना पडता है.
जरा आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं
आइए अब इन्हीं सामान्य नियमों के आधार पर ICMR के आँकडों को परखें. ICMR का कहना है कि केरल, उत्तराखंड, हरियाणा, लद्दाख, चंडीगढ, पुडुचेरी, बिहार, ओडीशा, तेलंगाना, तमिलनाडु, आँन्ध्र प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, असम और त्रिपुरा में कोरोना संक्रमितों की संख्या के दोगुना होने की दर राष्ट्रीय औसत से बेहतर है. 15 मार्च से 31 मार्च के दौरान इन प्रदेशों में नये संक्रमितों के पाये जाने का ग्रोथ फैक्टर 2.1 था, जो 1 अप्रैल से 15 अप्रैल के दो हफ्तों में गिरकर 1.2 हो गया है. यानी, 40 फीसदी का सुधार. ग्रोथ फैक्टर का मतलब है – हरेक पुराने संक्रमित से नये व्यक्ति के संक्रमित होने की रफ्तार.
अब सवाल ये है कि यदि भारत में टेस्ट ही बेहद कम होंगे तो सही तस्वीर कैसे सामने आएगी? लेकिन ICMR यहाँ सवाल को घुमा देता है और बताता है कि भारत में अब तक 130 करोड की आबादी में से महज 3,18,449 लोगों की ही टेस्टिंग हुई है, लेकिन हमें तो अभी तक देश में सिर्फ 14,098 पॉजिटिव केस मिले हैं.
दूसरे शब्दों में, भारत में 24 लोगों की टेस्टिंग करने पर एक पॉजिटिव मिला है, जबकि जापान में हरेक जापान में हरेक 11.7 व्यक्ति में एक पॉजिटिव मिला है. इसी तरह, इटली में 6.7 लोगों की जाँच के बाद एक पॉजिटिव मिला है तो अमेरिका में यही अनुपात 5.3 व्यक्ति का है तो ब्रिटेन में 3.4 व्यक्ति का.
ये आँकडे तभी तक प्रभावशाली लगेंगे, जब तक कि आप इस तथ्य पर गौर नहीं करेंगे कि इन विकसित देशों और भारत की जाँच के पैमाने में क्या फर्क है? भारत में अभी सिर्फ उन लोगों की कोरोना जाँच की जा रही है, जिन्होंने बीते महीने-डेढ महीने में विदेश यात्रा की है और जिनमें खाँसी, बुखार, कफ या साँस लेने में तकलीफ की शिकायत उभरी है, या जिन्होंने 14 दिन का क्वारनटीन (एकान्तवास) पूरा किया है या फिर जो अन्य लोग इनके सम्पर्क में आये हैं और जिनके बारे में ये तय करना जरूरी है कि कहीं वो संक्रमित नहीं हो चुके हैं. इनके अलावा भारत अभी तक सिर्फ उन चिकित्साकर्मियों की जाँच कर रहा है जो संक्रमित लोगों के इलाज से जुडे हुए हैं.
आंकड़ों की बाजीगरी
जबकि ज्यादा टेस्टिंग करने वाले देशों की असली चिन्ता उन लोगों की पहचान करने की है जो संक्रमित तो हैं, लेकिन जिनमें कोरोना के लक्षण अभी नहीं उभरें हैं. इन्हें asymptomatic कहते हैं और यही लोग न चाहते हुए भी कोरोना को फैलाने का जरिया बनते हैं. चीन और सिंगापुर में व्यापक पैमाने पर हुई टेस्टिंग से पता चला है कि ऐसे लक्षण-रहित लोगों की संख्या 48 से लेकर 62 प्रतिशत तक है. भारत में टेस्टिंग कम हो रही है इसकी सबसे बडी वजह ये है कि हमारे पास इसकी क्षमता ही बेहद मामूली है. फिर चाहे बात टेस्टिंग लैब की संख्या की हो या टेस्टिंग किट की उपलब्धता की. यही वजह है कि हम ये कहते हैं कि भारत के 10,000 संक्रमितों का पता लगाने के लिए जहाँ 2.17 लाख टेस्ट करने पडे वहीं अमेरिका को इतने ही संक्रमितों का पता लगाने में 1.39 लाख और ब्रिटेन को 1.13 लाख टेस्ट करने पडे. इटली के लिए ये आँकडा करीब 73 हजार लोगों का रहा तो कनाडा के लिए 2.95 लाख लोगों का.
यहीं पर आँकडों की बाजीगरी शुरू हो जाती है. ICMR की ओर से इन आँकडों को सुलभ करवाते वक्त जानबूझकर इस तथ्य को कमतर करके (यानी डाउन प्ले) पेश किया जाता है कि भारत का पूरा जोर सिर्फ उन संक्रमितों की जाँच पर रहा है जिनमें लक्षण उभरे हैं, जबकि उन देशों का जोर ऐसे संक्रमितों का भी पता लगाने पर है, जिनमें अभी तक लक्षण उभरे नहीं हैं.
भारत जहाँ अब प्रति दस लाख की आबादी पर करीब 126 टेस्ट के स्तर तक पहुँचा है, वहीं विकसित देश करीब 10 हजार टेस्ट कर रहे हैं. उनका मकसद संक्रमितों को ढूँढना है लेकिन हमारा मकसद पॉजिटिव और नेगेटिव का पता लगाना है. यही है, टेस्टिंग के अलग-अलग पैमानों की महिमा! जाहिर है कि यदि पैमाने अलग-अलग हैं तो फिर आँकडों की तुलना कैसे हो सकती है?
लक्षण-विहीन संक्रमितों के मामले बढ़े तो हालात हो सकते हैं भयावह
भारत सरकार इस तकनीकी पक्ष से पूरी तरह वाकिफ है. इसीलिए, उपरोक्त तमाम आँकडों को मीडिया को देने के बाद ICMR की ओर से एक तरफ तो कहा जाता है कि 130 करोड लोगों की विशाल आबादी वाले देश की तुलना विकसित देशों से नहीं की जा सकती, लेकिन हमारे यहाँ फलाँ-फलाँ आँकडे बेहतर हैं. अरे! जब हमारी और उनकी तुलना नहीं हो सकती तो हमारे आँकडे बेहतर कैसे हो गये? दूसरी तरफ, हमें आने वाले दिनों में खतरा साफ दिख रहा है, तभी तो हम ये भी बताते हैं कि हम लगातार टेस्टिंग की रफ्तार बढा रहे हैं, लाखों नयी टेस्टिंग किट का आयात कर रहे हैं, रोजाना टेस्टिंग सेंटर्स की संख्या बढा रहे हैं, नयी और तेज टेस्टिंग तकनीकें ढूँढ रहे हैं, कोरोना से लडने के लिए अस्पताल बना रहे हैं, वहाँ मरीजों के बिस्तरों की संख्या बढा रहे हैं और ज्यादा मास्क, सुरक्षा उपकरणों (PPE) तथा वेटिंलेटर्स का इन्तजाम करने में जुटे हुए हैं.
इतना ही नहीं, हमें इस बात का भी अनुमान है कि भारत में कोरोना संक्रमितों की संख्या मई में अपने चरम को छूने वाली दशा में पहुँचने वाली है. उन्हीं खौफनाक दिनों के लिए सारी तैयारियों की बातें हो रही हैं. भारत में कोराना के लक्षण-विहीन संक्रमितों के मामले बढे तो हालात बहुत भयावह हो सकते हैं. लेकिन तब ऐसे सियासी बयान सामने आएँगे कि अप्रैल के मध्य तक तो भारत का प्रदर्शन शानदार था, लॉकडाउन की उपलब्धि शानदार थी, लेकिन इसके बाद राज्यों ने ढिलाई दिखायी जिससे हालात बेकाबू होकर हाथ से निकल गया. फिलहाल, ICMR के आँकडों ने आने वाले बेहद तकलीफ के दिनों के लिए सरकार को अपनी मुँह छिपाने का एक बहाना थमा दिया है. इसीलिए, आँकडे भ्रामक हैं. इन्हें ठीक से समझना जरूरी है.
(ये आर्टिकल सीनियर जर्नलिस्ट मुकेश कुमार सिंह ने लिखा है. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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