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लॉकडाउन: ये वक्त महिलाओं से सीखने का है, उनका मजाक उड़ाने का नहीं

जैसा कि हर संकट काल में होता है, औरतों पर अतिरिक्त दबाव आ जाता है

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दोस्तों के WhatsApp ग्रुप पर एक लतीफा आया- 21 दिन, 24 घंटे बीवी के साथ समय बिताना, तुम क्या जानो नरेंदर बाबू. इस नहले पे दहला आया- बीवियां कोरोना की तरह होती हैं. इन्हें मारने या डांटने-डपटने का कोई फायदा नहीं होता- साबुन (या मक्खन) लगाने से ही काम बनेगा. इन लतीफों पर आपत्ति दर्ज कराने पर लेक्चर मिल गया. संकट काल को सहजता से लेने को कहा गया. लतीफा, लतीफा ही होता है. पर आपत्ति लतीफे पर नहीं, उसकी विषयवस्तु पर थी. इसकी विषयवस्तु औरतें थीं- उनके खिलाफ नारी द्वेष यानी मिसॉजनी था. ऐसे कंटेंट पर कोई औरत कैसे हंस सकती है.

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घर काम बांटना आता नहीं, मुसीबत बढ़ा रहे हैं

यह संकट का समय है. सभी के लिए. जैसा कि हर संकट काल में होता है, औरतों पर अतिरिक्त दबाव आ जाता है. फिलहाल औरतें दोहरे बोझ का शिकार हैं- हर औरत. कामकाजी औरतों को वर्क फ्रॉम होम के कॉन्सेप्ट के कारण घर को ही दफ्तर बनाना पड़ा है. हाउस हेल्प्स न होने के कारण घर काम का भी भार आ गया है. दूसरी तरफ गृहिणियों को रोजमर्रा के कामों के बीच परिवार के हर सदस्य की जी-हुजूरी भी करनी पड़ रही है. पहले घर उनका अपना स्पेस होता था- अब इस स्पेस में हर सदस्य की दखल है.

आम तौर पर काम बांटने की पहल कम ही घरों में होती है. पुरुष सदस्यों को घर काम आता भी नहीं- जिस पर लॉकडाउन में फ्रस्टेशन से भरे पड़े हैं. ऐसे में औरतों के लिए मुसीबत बढ़ा रहे हैं. पहले चीन से खबरें थीं, अब देश में राष्ट्रीय महिला आयोग ने बताया है कि 23 से 30 मार्च के दौरान उन्हें महिलाओं के घरेलू उत्पीड़न की 58 शिकायतें ईमेल से मिली हैं. बाकी चिट्ठी लिखकर शिकायत दर्ज कराने वाली महिलाओं की संख्या तो आने वाले दिनों में पता चलेगी. 

जाहिर सी बात है, जिस लतीफे में 21 दिन चौबीसों घंटे बीवी के साथ बिताने को समस्या बताया गया है, वह इस प्रकार फलीभूत होता दिखता है.

भार बांटें, दर्द नहीं

शेयर द लोड नाम से एक हैशटैग कई साल पहले चलाया गया था. इसके अलावा एक मशहूर वॉशिंग पाउडर भी अपना प्रोडक्ट इसी टैगलाइन के साथ बेच रहा है. पिछले दिनों इसके एक विज्ञापन में एक महिला अल्लसुबह वॉशिंग मशीन में कपड़े धोते-धोते झपकी ले रही है. पति देखता है तब उसके साथ कपड़े धोना शुरू करता है. विज्ञापन बताता है कि सत्तर प्रतिशत से ज्यादा औरतें घर काम के चलते ठीक से सो नहीं पातीं. इसलिए औरतों के काम में उनका हाथ बंटाएं.

वैसे वॉशिंग पाउडर का विज्ञापन घर काम में कायम गैर बराबरी के मुद्दे को उठाता है. 2018 में नीलसन के एक सर्वे में 52 प्रतिशत पुरुषों ने कहा था कि घर के काम औरतों या बेटियो की जिम्मेदारी होते हैं. ये सर्वे किसी छोटे शहर में नहीं, मुंबई, दिल्ली, बेंगलूरु और चेन्नई में किए गए थे.   

ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट के आंकड़ों के मुताबिक, औरतें एक दिन में पुरुषों के मुकाबले घर काम में 577% अधिक समय बिताती हैं.

वैसे भी दुनिया भर में ज्यादातर अनपेड वर्क औरतें ही करती हैं. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि अगर औरतों के अनपेड वर्क को राष्ट्रीय आय में जोड़ा जाए तो इससे जीडीपी में करीब 15% से 50% इजाफा हो सकता है. यूं ऑक्सफेम इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट कुछ आगे की बात करती है. वह कहती है कि 15 साल और उससे अधिक उम्र की औरतें जो केयरवर्क करती हैं, उसकी कीमत सालाना 10.8 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा है. रिपोर्ट एक डोमेस्टिक वेज को शुरू करने की वकालत करती है या वह एक मैरिज कॉन्ट्रैक्ट हो जिसमें अधिक कमाने वाला पार्टनर, दूसरे पार्टनर को अपने वेतन का कुछ परसेंटेज दे. वैसे यह बात हाइपोथिकल है. अगर हम ज्यादा कमाने वाले यानी अधिकतर मर्दों को इसके लिए राजी भी कर लें तो औरतें खुद इस वेतन को लेने के लिए शायद ही तैयार हों. उनकी कंडीशनिंग ऐसी की गई है कि वे खुद ही घर काम की जिम्मेदारी लिए रहती हैं.

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फिर हर मजाक, मजाक नहीं होता

बात फिर सेक्सिएस्ट जोक्स की. हमारा मानना है कि हर मजाक, मजाक नहीं होता. यह हमारी साइकी का हिस्सा होता है. मजाक के पीछे आपका मानस काम करता है तो यह बिना सिर पैर की बात नहीं होती. अमेरिका की वेस्टर्न कैलोरिना यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान विभाग ने एक अध्ययन किया है ‘सेक्सिस्ट ह्यूमर नो लाफिंग मैटर’.

इसमें कहा गया है कि सुनहरे बालों वाली लड़कियों और महिला ड्राइवरों के बारे में चुटकुले सुनना कोई हार्मलेस फन या गेम नहीं है. इससे महिलाओं के खिलाफ शत्रुतापूर्ण भावनाओं और भेदभाव को बढ़ावा मिलता है. अध्ययन में कई प्रयोग किए गए. परिणाम के तौर पर कहा गया कि सेक्सिस्ट ह्यूमर व्यक्ति के पूर्वाग्रहों को मुक्त करने का जरिया होता है. ऐसे जोक्स से लोगों में यह विश्वास बढ़ता है कि भेदभावपूर्व व्यवहार सामाजिक स्वीकार्यता के दायरे में आता है.

इटैलियन थ्योरिस्ट और राजनीतिज्ञ अंतोनियो ग्राम्शी ने जिस ‘हेजेमनी’ की बात कही थी, यह उससे अधिक कुछ नहीं. जब हम किसी व्यक्ति को शारीरिक रूप से बलपूर्वक कुछ करने को विवश नहीं करते. वह अपने आप ही हमारे इशारों पर नाचता रहता है. बेशक, ‘हेजेमनी’ जैसे शब्द का अर्थ सत्ताधारी वर्ग और जनता पर उसके नियंत्रण की अवधारणा को स्पष्ट करता था. लेकिन यहां भी हम उसी हेजेमनी को काम करते देखते हैं.

औरतें खुद पर बनने वाले जोक्स पर हंसती रहती हैं. भारी शरीर वाले और सांवले लोग चुपचाप व्यंग्य बाण सहते रहते हैं. किसी खास जाति के लोगों को लगता है कि उनका उत्पीड़न इतना भी बुरा नहीं. ह्यूमर उसे सही ठहराता रहता है. दरअसल ह्यूमर यहां उस हेजेमनी का ईजी टूल बन जाता है.

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मजाक के नतीजे दूर तलक जाते हैं

मजाक, सिर्फ मजाक इसलिए नहीं होता क्योंकि इसके नतीजे दूर तलक जाते हैं. 2015 में एक रैप सॉन्ग आया था- ‘बोल ना आंटी’. इसमें एक लड़का किसी आंटी के साथ सेक्स संबंध बनाना चाहता है- आंटी मना कर रही है. इस साल फेसबुक के ह्यूमर पेज पर मजाक-मजाक में इस गाने की खोज की गई. मजाक-मजाक में ही मुंबई में एक फेसबुक पेज पर एक ईवेंट क्रिएट किया गया और लोगों को दिल्ली के कनॉट प्लेस में आकर इस गाने को चिल्ला-चिल्लाकर गाने को आमंत्रित किया गया. 500 लोग मजाक-मजाक में जमा भी हो गए. फिर एक महिला पत्रकार ने जब इस गाने और इस गाने को बढ़ावा देने वालों के खिलाफ खबर लिखी तो उसे ऑनलाइन रेप की धमकियां मिलने लगीं. मजाक, एक ऐसे अवांछित व्यवहार, सेक्सुअल हैरेसमेंट का बायस बन गया.

मजाक या ह्यूमर रुचिकर हो सकता है, जब किसी कमजोर को आधार न बनाए. वह मजेदार तब होता है, जब पंच नीचे से ऊपर की तरफ हो, ऊपर से नीचे की ओर नहीं. यह परिहास की सबसे परिपक्व स्थिति होती है जिसे हम सटायर यानी प्रहसन करते हैं. स्त्री द्वेष से भरे मजाक को आप सिर्फ मजाक नहीं कह सकते. संकट काल में ही, समझने और महसूस कीजिए कि अनपेड वर्क की क्या अहमियत है. यह सारा अनपेड वर्क औरतों की ही जिम्मेदारी क्यों है. इसीलिए हर मजाक को मजाक में नहीं लिया जा सकता- कभी-कभी उस पर सीरियस ऑब्जेक्शन की भी जरूरत होती है.

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