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कोविड-19 ने खोल दी पोल- मूर्खता मनुष्य का शाश्वत स्वभाव है

कोरोना वायरस संकट के दुष्काल ने हमारे कई सारे भ्रम तोड़ डाले हैं

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हम सब इंसानी इतिहास के बेहद घटनापूर्ण काल के चश्मदीद गवाह हैं. इंसानी व्यवहार पर कई दशकों तक हम इस दौर का गहरा असर देखेंगे. हमारी अगली पीढ़ी भी. कोविड ने हमारी पोल खोल दी है- हम आधुनिक हैं, समर्थ हैं, समझदार हैं, तर्क और विज्ञान से चलते हैं, विचार और कल्पना के बूते एक बेहतर दुनिया की तरफ छलांग लगा रहे हैं - इस दुष्काल ने हमारे ये सारे भ्रम तोड़ डाले हैं.

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समाज, देश, दुनिया और सबसे अहम एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से व्यवहार - इन सब की छीजन हमारी आंखों के सामने है. इसको समझने में वक्त लगेगा लेकिन हमारी एक प्रवृत्ति का पर्दाफाश हमारी आंखों के सामने है. वो है - मनुष्य की असीम मूर्खता का अद्भुत प्रदर्शन. ये इक्का दुक्का घटनाएं नहीं हैं, हमारी मूर्खता का प्रदर्शन विश्व व्यापी है, चौतरफा है. कोविड का प्रकोप शुरू हुआ तो हमें जो भाव दिखे वो थे - घबराहट, उदासीनता और हिमाकत थी. लेकिन इन सब में जो सबसे स्तब्धकारी भाव है वो है मूर्खता का तांडव. ऐसे लोगों के लिए एक नया शब्द भी बन गया - कोविडियट (Covidiot

कोविड से घबराए हुए सामान्य लोग तो ये सोच सकते थे कि कोविड से बचने के लिए मास्क बेकार है, लेकिन दुनिया के सबसे आधुनिक देश अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने ऐसा सोचा, कहा और जिद की. वैज्ञानिकों के मना करने के बावजूद उन्होंने मलेरिया की गोली का नीम हकीम इलाज बेचा. ब्लीचिंग पाउडर का घोल पीने की सलाह दी. इस महामारी को झुठलाते हुए उन्होंने करोड़ों लोगों की जिंदगियां तबाह कर डाली.

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने अस्पताल में जा कर मरीजों और नर्सों से हाथ मिलाया. बीमार पड़े. अपने नागरिकों को गुमराह किया. भारत में कुछ पोंगापंथी सामाजिक और राजनीतिक नेताओं ने गोबर से कोविड के इलाज की विधियां समझायीं. किसी ने ऐतराज किया तो संसद में संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति ने कहा कि ये तो आस्था का विषय है.

हम सब तो उस देश के वासी हैं जहां कैपिलियरी एक्शन को गणेश जी का दुग्धपान समझ कर मीलों लम्बी कतारों में पुण्य कमाने खड़े हो चुके हैं. इसलिए ये स्वाभाविक ही था कि कोविड के मुकाबले के लिए हम मोमबत्ती, ताली, थाली से स्वास्थ्यकर्मियों का हौसला बढ़ाते. दलित चेतना का एक संदेशवाहक जब मंत्री बन गया तो उसकी समझ का हाल हमने देखा - गो कोरोना गो का मंत्रोच्चार. हम उदार लोग हैं. इस मूर्खता को मनोरंजन मान कर हम मुस्कुराए और आगे बढ़ गए. हमारे यहां तो मूर्खता के तीरथ खुद चलकर हमारे पास आते हैं.

साधारण सी बात है. हम जिन समूहों में रहते हैं, उनका एक हिस्सा दिमाग से कमजोर और भीरू लोगों का होता है, अंधविश्वास का अनुचर बनने को तैयार रहता है, तर्क से दूर वो किसी भी आज्ञा का पालन करने को तत्पर रहता है. मतिमंद लोगों की यही वो उर्वर जमीन है जहां मूर्खता, अज्ञानता और बेवकूफी की फसल लहलहा जाती है.
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कोविड के पहले भी पूरी दुनिया ने एक और बीमारी को स्वीकर कर लिया. हम उसे अब जीवन का अभिन्न और स्वाभाविक अंग मान चुके हैं. वो है फेक न्यूज. जो टेक्नोलॉजी हमें ताकतवर बनाने आयी थी, वो पैसे और पावर के सौदागरों के हाथ में जा कर एक हथियार बन गयी जिससे झूठ, प्रोपेगंडा और साजिश का एक महाजाल बुना जाता है. फेकन्यूज अब एक मुख्यधारा का खेल हो गया है. कोविड खुद अगर किसी एक महामारी का शिकार हुआ तो वो है कोविड से जुड़े फेक न्यूज का प्रकोप. इसके शिकार को पता भी नहीं चलता कि उसकी बुद्धिमता - कॉमन सेंस - कुन्द हो चुकी है. हमारी स्टूपिडिटी का ये जीता जागता वैश्विक उदाहरण हर पल हमारे सामने खड़ा है. आप उन लोगों की मूर्खता को भी मापिए जो रोजाना धर्म भाव से अपने वॉट्सऐप से झूठे समाचार और सूचनाएं आगे बढ़ाते रहते हैं. स्टूपिडिटी की एक खास बात ये भी है जो होता है, उसे पता नहीं होता कि वो स्टूपिड है.

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पूरे मानव समाज की मूर्खता का एक और सबूत है जलवायु परिवर्तन - क्लाईमेट चेंज. आर्थिक और राजनीतिक ताकतों ने मिल कर सदियों से हमारे परिवेश में जहर घोला है.अब दुनिया इतने बड़े संकट में घिरी है. दशकों से बात हो रही है कि पर्यावरण को बर्बाद होने से रोका जाए. लेकिन ये गिरावट रुक नहीं रही है. चुने हुए प्रतिनिधियों की सरकारें हों या निरंकुश हुकुमतें, अगर सत्ता की ताकत ही सयानेपन की गारंटी होती तो हम और हमारी अगली पीढ़ी जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर ना होते. दुनिया चलाने वाले सयाने होते तो कोविड काल में टीका बन जाने के बाद भी उसका उत्पादन और वितरण करने में खुदगर्जी, गैर बराबरी और अफरा तफरी का ये मंजर हमारे सामने ना होता.

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मुद्दे की बात ये ही है कि इस दुष्काल ने हमें हमारी मूर्खता से एक बार फिर साक्षात्कार कराया है. भारत के महान साहित्यकार पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी का एक लेख स्कूल में पढ़ा था- नाखून क्यों बढ़ते हैं. उन्होंने विस्तार से समझाया था कि नाखूनों का बढ़ना हमें ये याद दिलाता है कि मनुष्य की बर्बरता घटी कहां है, वह तो बढ़ती ही जा रही है.

पशुता की तरह ही मूर्खता मनुष्य का शाश्वत स्वभाव है. इटली के एक आर्थिक इतिहासकार, यूनिवर्सिटी आफ कैलिफोर्निया में प्रोफेसर कार्लो एम. चिपोला ने 1976 में एक लेख लिखा था -Basic laws of human stupidity (मनुष्य की मूर्खता के मूल सिद्धांत). ये बेस्ट सेलर किताब भी है.

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चिपोला के मुताबिक -

किसी भी वक्त हमारे आसपास जितने मूर्ख मंडरा रहे होते हैं, हम उनकी तादाद हमेशा कम आंकते हैं. हम जिन्हें सुलझे हुए और समझदार मानते थे, वे भी बाद में बेशर्मी से मूर्खता करते नजर आते हैं. वो कभी भी कहीं भी प्रकट हो कर आपको परेशान कर सकते हैं. मूर्खता की मौजूदगी का व्यक्ति के अन्य सद्गुणों से कोई ताल्लुक नहीं है.

  • इनकी तादाद हमेशा एक जैसी रहती है, मूर्खता का शिक्षा, ज्ञान या नैतिकता से कोई सम्बंध नहीं है.
  • इंसान चार तरह के होते हैं और उनके किसी भी काम से किसी का फायदा किसी का नुकसान होता है - बेबस, चतुर, लुटेरे और मूर्ख. मूर्ख वो होता है जिसके किसी काम से दूसरे को तो नुकसान होता ही है, उसे खुद को भी कोई फायदा नहीं होता, बल्कि नुकसान हो सकता है.
  • जो लोग गैर मूर्खों वाली बाकी तीन श्रेणियों में आते हैं, वो हमेशा ये भूल जाते हैं कि अगर किसी मूर्ख से पाला पड़ा तो हर हाल में ये गलती उन ही भारी पड़ेगी.
  • मूर्ख व्यक्ति सबसे खतरनाक किस्म का प्राणी होता है क्योंकि बाकी लोगों का गलत व्यवहार भी तर्क सम्मत होगा लेकिन मूर्खों के कुतर्क से निकले व्यवहार की आप कल्पना नहीं कर सकते कि वो कब क्या कर देंगे.
कोरोना वायरस संकट के दुष्काल ने हमारे कई सारे भ्रम तोड़ डाले हैं
प्रो. कार्लो एम. चिपोला के मुतबिक लोगों के प्रकार
(ग्राफिक्स- क्विंट हिंदी)
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मूर्खता पर अनेक मनोवैज्ञानिकों और आर्थिक राजनीतिक सामाजिक विशेषज्ञों ने काफी शोध किया है. इन विद्वानों के बीच अब बहस नए मुकाम पर है. चुनावी लोकतंत्र समझदारी की गारंटी नहीं देता बल्कि मूर्खता ज्यादातर मामलों में डिफॉल्ट सेटिंग है. इसकी काट के लिए रैंडम (क्रम रहित) चयन के जरिए नागरिक परिषदें चुनी जाएं, जो आबादी का हूबहू प्रतिनिधित्व करें और चुने हुए प्रतिनिधियों पर नजर रखें, सलाह दें और लगाम लगाएं.

कोविड काल का एक बरस पूरा हो चुका है. इस हफ्ते अप्रैल फूल्स डे यानी मूर्ख दिवस भी है और होली भी. आत्मावलोकन का वक्त है. भारत ने लोक जीवन में मूर्खता की मौजूदगी को कभी नकारा नहीं है. उदार परम्परा में हमने उन्हें वैशाखनंदन और उलूकनंदन कहा है. आधुनिक खड़ी बोली में इस प्रवृत्ति के लिए जो शब्द चुना गया है, वह असंसदीय होते हुए भी राष्ट्रीय लोक संवाद में अत्यंत लोकप्रिय शब्द है.
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पशुता की तरह ही मूर्खता हमारे सामाजिक अस्तित्व में व्याप्त है. नाखून भी बढ़ेंगे. मूर्खता भी रहेगी. यह प्राकृतिक है. इससे बचना मनुष्य के लिए एक इच्छा, एक च्वायस और एक विकल्प है. ये हमारी इच्छाशक्ति पर निर्भर है कि हम इस विकल्प को चुनें और मूर्खता को अनमास्क करें.

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