महामारियां महिलाओं पर अलग तरह की मुसीबतें लेकर आती हैं. कोरोना के हाहाकार के बीच एक बार फिर यह बात साबित हो रही है. एक आंकड़ा यह है कि दुनिया भर में 70 प्रतिशत हेल्थकेयर और सोशल वर्कर्स औरतें हैं. चूंकि वे फ्रंटलाइन पर काम करती हैं इसलिए उनके बीमार होने की आशंका अधिक है. यह सीधा-सीधा औरतों को अधिक प्रभावित करता है. कोविड 19 का भी एक जेंडर पहलू है जिसे अब समझा जा रहा है.
महिलाएं केयरगिविंग के काम में सबसे ज्यादा
डब्ल्यूएचओ ने 104 देशों के अध्ययनों की मदद से बताया है कि दुनियाभर में हेल्थकेयर और सोशल वर्कर्स यानी नर्स, मिडवाइफ या दूसरी सेवाओं में महिलाओं का हिस्सा 70 प्रतिशत है. उसके पिछले साल के हेल्थ वर्कफोर्स के वर्किंग पेपर में यह बात कही गई है.
भारत में नेशनल सैंपल सर्वे के 68वें चरण की रोजगार संबंधी रिपोर्ट में कहा गया है कि क्वालिफाइड नर्स और मिडवाइव्स जैसे पेशों में औरतों की संख्या 88.9 प्रतिशत है.
इसके अलावा बहुत से राज्यों में आशा वर्कर्स और आंगनवाड़ी कर्मचारियों से कहा गया है कि वे अपने इलाके में इस बीमारी के लक्षणों पर नजर रखें. पर इन लोगों के पास सुरक्षात्मक उपकरण जैसे मास्क, बॉडी सूट, कवरऑल वगैरह न के बराबर हैं. इसीलिए नेशनल फेडरेशन ऑफ आशा वर्कर्स ने केंद्र सरकार से इन उपकरणों की मांग की है. आशा के तौर पर दस लाख महिला सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मचारी और आंगनवाड़ी कर्मचारियों के तौर पर 14 लाख महिलाएं काम करती हैं.
एक बात और है. देश में अधिकतर औरतें होम बेस्ड काम करती हैं, स्वरोजगार प्राप्त हैं. कोविड 19 के दौर में इस स्थिति का प्रभाव दूरगामी है. 31.7 प्रतिशत औरतें गैर कृषि क्षेत्र में हैं. इसका यह अर्थ है कि उनका काम कम होने वाला है. स्वरोजगार प्राप्त होने की वजह से उन्हें महामारी के दौरान कोई लाभ नहीं मिलेगा, जोकि रोजगार प्राप्त लोगों को मिलने की संभावना है.
2019 के पीरिऑडिक लेबर फोर्स सर्वे के हिसाब से अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली 54.8 प्रतिशत औरतें हैं. उन्हें कॉन्ट्रैक्चुअल पेड लीव पॉलिसी का लाभ भी नहीं मिलने वाला, जो कामकाजी दूसरी औरतो को वर्क फ्रॉम होम के चलते मिल सकता है.
दोहरे बोझ का शिकार एक बार फिर औरतें ही
वर्क फ्रॉम होम के चलते कामकाजी औरतों पर भी दोहरा दबाव आया है. इसी हफ्ते मशहूर कार्टूनिस्ट मंजुल का एक कार्टून इस बात पर चुटीला व्यंग्य करता है. कार्टून में बीवी खाना पका रही है. पति सोफे पर बैठा टीवी देख रहा है. बीवी फोन पर बता रही है, सारा दिन करते कुछ नहीं. बस हर एक घंटे में मेरे लिए पांच मिनट के लिए तालियां बजा देते हैं. इसी कार्टून के बीच किसी ने इंस्टाग्राम पर पोस्ट किया- अब सभी को समझना चाहिए कि #sharetheload कितना जरूरी है, खासकर मर्दों को.
हां, यह घर के काम को बांटने का सही वक्त है- और अनस्किल्ड कामों के महत्व समझने का भी.
वर्क फ्रॉम होम के दौरान दफ्तर का काम भी करना है, घर का भी- वह काम जो घरेलू कामगार करती हैं (चूंकि अब उनकी भी सामूहिक छुट्टी है). इस दोहरे बोझ को उठाने में औरतें पिस रही हैं. कोविड 19 की यह अपनी तरह की मार है. ऐसी मार, जो इससे पहले लोगों ने देखी नहीं थी.
इसी दौर में, जैसा कि पहले भी कहा है, अनस्किल्ड और बेमानी समझे जाने वाले घर काम और उन्हें करने वालों के महत्व को भी समझा जाना चाहिए. इस पूरे काम में औरतें बड़ी संख्या में हैं. उन्हें भी इसका असर देखने को मिलेगा. बहुतों को महीने की तनख्वाह से हाथ धोना पड़ेगा. काम छूटने की शंका अलग से है.
कोडन्डरमा चंद्रमौली के 2018 के विमेन डोमेस्टिक वर्कर्स इन इंडिया नामक विश्लेषण में महिला घरेलू कामगारों की संख्या 40 लाख से ज्यादा बताई गई है. इनमें से कितनों पर इस महामारी का आर्थिक असर होगा, अभी से कहना मुश्किल है.
इस असर के बारे में बात करना भी मुश्किल है
आर्थिक असर के अलावा दूसरे असर भी होंगे. स्वास्थ्य मंत्रालय के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के चरण चार में कहा गया है कि देश में 31 प्रतिशत विवाहित औरतें अपने पतियों की शारीरिक, यौन और मनोवैज्ञानिक हिंसा की शिकार होती हैं. गैर शादीशुदा लड़कियों में भी 56 प्रतिशत को मां या सौतेली मां, 33 प्रतिशत को पिता या सौतेले पिता, 27 प्रतिशत को भाई या बहनों से मार-पीट का शिकार होना पड़ता है. सोचा जा सकता है कि कोविड 19 और लॉकडाउन का उन पर क्या असर होने वाला है.
घर की चारदीवारी में अपने ही पेनेट्रेटर के साथ कैद होना उनके लिए रोजाना की मुसीबत बन सकता है. इसका उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर होगा. जब सांस लेने के लिए कोई खुली जगह न हो.
यह चीन में भी हुआ है. हुबेई प्रांत के जिंग्जऊ शहर के एक एंटी डोमेस्टिक वॉयलेंस नॉन प्रॉफिट ने जानकारी दी थी कि इस महामारी में घरेलू हिंसा बहुत बढ़ी. फरवरी में घरेलू हिंसा के मामलों में पिछले साल के मुकाबले तीन गुनी बढ़ोतरी हुई. लोग एकांतवास में गए और सारी कुंठा औरतों पर निकलने लगी.
इबोला के दौरान भी पड़ा था असर
वैसे महिलाओं ही नहीं, कमजोर वर्गों पर आपदाएं और मुसीबतें अलग तरह से असर करती हैं. ऐसा बार-बार देखा गया है. 2015 में इबोला के दौरान सियरा लिओन ने स्कूल बंद कर दिए गए तब लड़कियों पर केयरटेकिंग का सबसे ज्यादा दबाव पड़ा था. उनके यौन उत्पीड़ित और गर्भवती होने की आशंका भी बढ़ी थी. इसी तरह जिका वायरस के समय ब्राजील में अबॉर्शन पिल्स और कॉन्ट्रासेप्टिव्स की भयंकर कमी हुई थी. नतीजा यह हुआ था कि ब्राजील में निम्न सामाजिक आर्थिक वर्ग की औरतों ने जिका संक्रमण से ग्रस्त विकलांग शिशुओं को जन्म दिया था.
कुल मिलाकर, औरतों पर हर मुसीबत डबल वैमी लेकर आती है. अंत में एक आंकड़ा और है. भले ही भारत में फ्रंटलाइन हेल्थ प्रोफेशनल्स अधिकतर औरतें हैं, उनका प्रतिनिधित्व प्रिवेंशन मैकेनिज्म में न के बराबर है. कोविड 19 में डब्ल्यूएचओ-चीन ज्वाइंट मिशन के 25 सदस्यों में औरतें सिर्फ तीन हैं. कोविड 19 इकोनॉमिक रिस्पांस टास्क फोर्स की कमान भले ही वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने संभाली है पर आईसीएमआर की
कमिटी फॉर पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट्स के 21 सदस्यों में सिर्फ दो औरतें हैं. हम समझ सकते हैं कि जिन महामारी का ज्यादा असर औरतों पर पड़ने वाला है, उसके खिलाफ लड़ाई में औरतों को किस हद तक लगाया जा रहा है.
(ऊपर लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है)
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