कोविड-19 का आर्थिक बोझ बहुत भारी पड़ने वाला है. महीने भर के शटडाउन का वास्तव में मतलब होता है वार्षिक उत्पादन में 8.5 फीसदी की कमी. खपत, जो जीडीपी का 63 फीसदी है, इसकी भरपाई होना मुश्किल है. कम से कम इस साल तो कतई नहीं, ज्यादातर अर्थशास्त्रियों का मानना है कि वार्षिक जीडीपी के विकास की दर 0.5 फीसदी या इससे कम रहने वाली है.
इसका मतलब यह है कि वार्षिक खपत 6 से 8 फीसदी गिरेगी. कई अन्य लोगों का मानना है कि खपत में कमी और भी अधिक होगी और विकास दर नकारात्मक हो सकता है. उपभोग अपने पुराने स्वरूप में कैसे आए, यह इस पर निर्भर करता है कि लॉकडाउन कितनी जल्दी खत्म होता है और कितनी जल्दी छिने हुए रोजगार की भरपाई हो पाती है.
- एक महीने के शटडाउन का वास्तव में मतलब होता है कि वार्षिक उत्पादन में 8.5 फीसदी की कमी
- वार्षिक खपत में 6 से 8 फीसदी की गिरावट आएगी.
- इससे निपटने के लिए मोदी का रिवाइवल यानी पुनरोद्धार पैकेज जीडीपी का 0.4 फीसदी से ज्यादा नहीं है. स्पष्ट है कि हमें कुछ और करने की जरूरत है.
- भारत के पास विदेश में गतिशील पूंजी 480 बिलियन डॉलर की है जो बहुत कम ब्याज कमाती है. इसका एक हिस्सा इस रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है कि यह अर्थव्यवस्था के लिए ईंधन का काम करे.
- कई और रिजर्व हैं और ऐसे तरीके हैं जिनका इस्तेमाल किया जा सकता है.
महीने भर के लॉकडाउन का भारत की अर्थव्यवस्था पर असर
खपत ढह जाने से न सिर्फ मैन्युफैक्चरिंग सिमट जाएगी, बल्कि इससे बड़े पैमाने पर बिक्री रुक जाएगी. पुराने स्तर पर मैन्युफैक्चरिंग को आने में लम्बा समय लगेगा. इस वजह से आपूर्ति भी अस्त-व्यस्त रहेगी. मोटर वाहन सेक्टर को उपभोक्ताओं का विश्वास जीतने और खुद को दोबारा स्थापित करने में समय लगेगा. यह सेक्टर जीडीपी का 7.5 फीसदी है और पूरी मैन्युफैक्चरिंग का करीब आधा है.
मैन्युफैक्चरिंग पुराने स्तर पर आए, यह इस बात पर निर्भर करता है कि यह सेक्टर कितनी जल्दी उठ खड़ा हो पाता है. मोटर वाहनों पर टैक्स इसकी अंतिम कीमत के 29 फीसदी से 46 फीसदी तक हुआ करती है.
ग्राहक शो रूम की ओर चेकबुक के साथ दौड़ पड़ें, इसके लिए जरूरी होगा कि सरकार सीमित अवधि के लिए जीएसटी में भारी कटौती करे. तभी पुराना पड़ा स्टॉक गति में आ सकेगा.
लेकिन हमारे लिए सबसे बड़ा नुकसान नौकरियों का छूटना है. भारत में 49.5 करोड़ वर्क फोर्स है. एक शोध पत्र, जिसके लेखक जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा और सह लेखक जजाति के परिदा हैं, बताता है कि,
वर्कफोर्स में असंगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी 90.7 फीसदी है और 83.5 फीसदी हिस्सा गैर कृषि क्षेत्र में हैं. करीब 20.5 करोड़ लोग खेतों में काम करते हैं. इस तरह असंगठित श्रमिकों की कुल संख्या मैन्युफैक्चरिंग और गैर मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में 21.7 करोड़ है.
शोधपत्र में आगे सुझाया गया है कि भारत में 13.6 करोड़ श्रमिक या कुल श्रमिकों के आधे लोग गैर कृषि क्षेत्रों में रोजगार करते हैं जिनके पास कोई अनुबंध नहीं होता और यही वर्ग कोरोना लॉकडाउन के बाद के दौर में सबसे ज्यादा शिकार होने वाले हैं. ये लोग तकरीबन सभी दैनिक मजदूर हैं. सीएमआईई की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक इस क्षेत्र में बेरोजगारी 30 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा है या फिर तकरीबन 40 लाख से 5 करोड़ लोगों को कम मजदूरी मिलती है. दैनिक मजदूरी से एक गरीब परिवार की बमुश्किल बुनियादी दैनिक भोजन की जरूरत पूरी होती है.
देश को संकट से निकालने के लिए कितने का आर्थिक पैकेज चाहिए?
तो मोदी अब हमें इस दलदल से निकालने के लिए क्या कर सकते हैं? दो प्रमुख खिलाड़ियों वित्त मंत्री और आरबीआई गवर्नर वाले एक कमजोर आर्थिक प्रंबधन टीम के साथ वो इसे शुरू कर रहे हैं. अगर वो इस समस्या से जूझते हैं तब भी वो धन कहां से लाएंगे?
अमेरिका 2 ट्रिलियन यानी अपनी अर्थव्यवस्था का 10 फीसदी हिस्सा झोंकने जा रहा है. ब्रिटेन और फ्रांस ने अपनी-अपनी जीडीपी का 5 फीसदी हिस्सा लगाने का इरादा दिखलाया है जबकि जापान 1 ट्रिलियन डॉलर या अपनी जीडीपी का 20 फीसदी हिस्सा झोंक रहा है. हमारी सरकार का आर्थिक पुनरोद्धार पैकेज 1.7 लाख करोड़ का है जो जीडीपी का करीब 0.6 फीसदी हिस्सा है. यहां तक कि इसमें भी एक तिहाई रकम पहले से ही सेस के रूप में संग्रह की जा चुकी है जिसका मकसद ठेका मजदूरों को मदद करना था और बहुत सालों से इस्तेमाल नहीं की गयी है. इसलिए मोदी का पुनरोद्धार पैकेज जीडीपी के 0.4 फीसदी हिस्सा से ज्यादा नहीं है. साफ कहें तो हमें और भी बेहतर करने की जरूरत है.
राजनीतिक साहस और त्याग से आएगा धन
भारत के पास विदेश में कमाने वाली पूंजी 480 बिलियन डॉलर की है जो बहुत कम ब्याज कमाती है. अगर इसका दसवां हिस्सा भी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में इस्तेमाल किया जाता है तो इसका मतलब होगा 3.2 लाख करोड़ की रकम. आरबीआई के पास रिजर्व के तौर पर 9.6 लाख करोड़ रुपये हैं. वित्तीय आपात की स्थिति में यह रकम इस्तेमाल की जानी होती है. हम ऐसी आपात स्थिति का आज सामना कर रहे हैं जैसी पहले कभी नहीं देखी गयी थी.
यहां तक कि इसका एक तिहाई या करीब 3.2 लाख करोड़ वर्तमान योजना का दोगुना होगा.
मुद्रा कोष के दूसरे स्रोत भी हैं, लेकिन इसका इस्तेमाल करने के लिए राजनीतिक साहस और त्याग की जरूरत पड़ेगी. साझा सरकारी वेतन और पेंशन का बिल जीडीपी का 11.4 फीसदी के करीब होता है. सेना और अर्धसैनिक बलों को छोड़कर जो अधिकांशत: सक्रिय रूप से तैनात रहते हैं, हम जीडीपी का 1 प्रतिशत सिर्फ वार्षिक छुट्टियां और एलटीसी रद्द करके और बीते दो या तीन डीए में बढ़ोतरी को रोक कर हासिल कर सकते हैं.
सरकार बैंक में जमा धन का निश्चित प्रतिशत जब्त भी कर सकती है. मान लें कि 10 रुपये से 100 लाख तक जमा राशि का 5 फीसदी और बड़ी जमाओं का 15 से 20 फीसदी जब्त कर लिया जाता है. इसके बदले में सरकार टैक्स फ्री ब्याज वाला बॉन्ड दे सकती है.
दस बड़ी निजी कंपनियों के पास अकेले 10 लाख करोड़ का कैश रिजर्व है.
पेड़ में पैसे हैं. जरूरत सिर्फ इतना है कि अच्छे से हिलाया जाए ताकि फल चुने जा सकें. लॉकडाउन का दर्द केवल गरीबों पर नहीं पड़ना चाहिए. सरकार जीडीपी का 5 प्रतिशत रिकवरी फंड बनाने का लक्ष्य रख सकती है और यह लक्ष्य पाया जा सकता है. राजस्व घाटा के लक्ष्य को रोका जा सकता है.
इस रकम का इस्तेमाल तुरंत यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम शुरू करने, वित्तीय आपातकाल के दौरान जनधन अकाउंट में हर महीने 5 हजार रुपये डालने, जीएसटी में छूट देने, आपातकालीन ग्रामीण पुनरोद्धार प्रॉजेक्ट शुरू करके करोड़ों नौकरियां पैदा करने और स्टील, सीमेंट और ट्रांसपोर्ट जैसे कोर इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर को गतिशील बनाने में किया जा सकता है.
कमजोर वर्गों की रक्षा के लिए लॉकडाउन को तर्कसंगत बनाकर
लॉकडाउन अनिश्चितकाल के लिए कोई विकल्प नहीं हो सकता. हमें समय के साथ-साथ इसे उठाना होगा ताकि इसकी आर्थिक कीमत हम पर भारी न पड़ जाए. याद रखें कि कोविड-19 के मामलों में मृतकों की संख्या करीब 1.6 फीसदी है. इसका मतलब यह है कि यह हमारे मौसमी इन्फ्लुएंजा से अधिक खतरनाक नहीं है. इसका तेजी से फैलाव ही इसे खतरनाक बनाता है क्योंकि यह हमारे स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था पर भारी पड़ जा सकता है.
आंकड़े स्पष्ट रूप से यह बताते हैं कि कोविड-19 कोरोना वायरस ज्यादतर शारीरिक रूप से कमजोर लोगों को अपना शिकार बना रहे हैं. जिन लोगों में संक्रमण के लक्षण मिले हैं उनमें 63 प्रतिशत 60 की उम्र से अधिक के हैं.
साफ है कि हमें सीनियर सिटिजन और बच्चों को संक्रमण से बचाने की जरूरत है.
लॉकडाउन का लक्ष्य इन्हें बचाने का हो सकता है. इस तरह हाई स्कूल, कॉलेज और औद्योगिक स्थानों को खोला जा सकता है जबकि प्राइमरी और मिडिल स्कूलों को कुछ समय के लिए बंद रखा जा सकता है. हमें सभी सामाजिक और धार्मिक जुटान वाली जगहों को, जैसे रेस्टोरेन्ट, मंदिर, मस्जिद, चर्च, शादी-ब्याह वाले हॉल आदि, फिलहाल बंद रखना चाहिए.
कठोर फैसले का समय आ चुका है. थाली बजाने और दीये जलाने से कुछ नहीं होगा.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)