ADVERTISEMENTREMOVE AD

कोरोना लॉकडाउन: राज्य और जनता को एक दूसरे पर भरोसा रखना होगा

सामाजिक दूरी की अवधारणा को लेकर कुछ गलतफहमियां भी हैं और कुछ चिन्ताएं भी.

Updated
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

कोरोना वायरस ने भारत समेत पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है. इस नए संक्रमण का इलाज उपलब्ध ना होने की वजह से मेडिकल समुदाय और विश्व स्वस्थ संगठन भी ऐसी स्थिति में बचाव को ही कारगर उपाय समझ रहा है. कोरोना वायरस के संक्रमण की रोकथाम में जो अभी तक का सबसे आजमाया बचाव का तरीका है, वो है ‘सामाजिक दूरी’ (या सोशल डिस्टेंसिंग).

ADVERTISEMENTREMOVE AD

ऐसे में सामाजिक दूरी की अवधारणा को लेकर कुछ गलतफहमियां भी हैं और कुछ चिन्ताएं भी. और जब सामाजिक दूरी लॉकडाउन का रूप ले ले तो ये चिंताएं चुनौतियों में तब्दील हो जाती हैं. इसीलिए यह समझना बेहद जरूरी है कि ‘सामाजिक दूरी’ क्या है और कैसे इसको आत्मसात किया जाए, ताकि देश और मानवता को इस संक्रमण से बचाया जा सके.

‘सामाजिक दूरी’ ना दिलों की दूरी है, ना तो समुदाय से दूरी है और ना ही सामाजिकता से दूरी है. एक दूसरे के दिल के पास रहते हुए और सामाजिक मापदंडों को अपनाते हुए, संक्रमण काल में एक दूसरे से एक वास्तविक दूरी निभाने की जरूरत है. अपने को भीड़ से अलग रखने और वातावरण को वायरस रहित बनाने की जरूरत है, जिसके फलस्वरूप वायरस के विस्तार के कड़ी को तोड़ा जा सके. ताकि हम कोरोना वायरस के फैलाव को रोक सकें. यह संक्रमण बहुत तेजी से फैल रहा है और सबसे चिंताजनक बात है कि अब यह शहरों से गांव में घुस गया है. खतरा है कि अगर इस वायरस का सामुदायिक फैलाव (कम्यूनिटी ट्रांसमिशन) होता है तो जान माल का ज्यादा नुकसान होगा.

महामारी में मुश्किलों को बताने के लिए स्पेन और इटली के उदाहरण काफी हैं. जो यह बताते हैं कि अगर सामाजिक दूरी के आह्वान को गंभीरता से नहीं लिया गया तो कोरोना के खतरनाक परिणाम होंगे और सभी को झेलने ही पड़ेंगे. 

कोरोना वायरस पूरी दुनिया के लिए महामारी है और यह अपने फैलाव में काफी आक्रामक भी है. अगर उचित मेडिकल सुविधाओं के साथ सामाजिक दूरी पर ध्यान नहीं दिया गया तो इटली और स्पेन जैसी स्थिति का सामना किसी भी मुल्क को करना पड़ सकता है.

भारत में क्यों सख्ती से लागू करनी पड़ी सामाजिक दूरी?

अगर दुनिया में महामारी के इतिहास को देखें तो सामाजिक दूरी का तरीका एक मानक प्रोटोकॉल रहा है. बावजूद इसके भारत को फिर क्यों काफी सख्ती से सामाजिक दूरी लागू करने की जरूरत पड़ती है?

अगर भारत के जनसंख्या घनत्व को देखें तो यह लगभग 465 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है जो कि इटली के 206 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर और स्पेन के 243 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से काफ़ी अधिक है. ये अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में भी काफी अधिक है.

इसका मतलब साफ है कि अगर सामाजिक दूरी के साथ लॉकडाउन को सख्ती से लागू नहीं किया गया तो कोरोना का फैलाव तेजी से होगा. संक्रमण भी काफी तेजी फैलेगा और स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के बावजूद भी हम समस्या को सुलझाने में कामयाब नहीं होंगे, शायद. पिछले कुछ वर्षों के दौरान संक्रमित रोग के फैलाव से सम्बंधित रिसर्च बताते हैं कि महामारी से निपटने के लिए सार्वजनिक योजनाओं में जनता को नैतिक होकर सोचना पड़ेगा.

महामारी में ऐसी सर्वनैतिकता बिना जनता की सहभागिता के सम्भव नहीं है और सर्वनैतिकता के अभाव में किसी भी तरीके की सामाजिक दूरी कभी सफल नहीं हो पाएगी. जनता को स्वयं पर संयम सिर्फ राज्य के डर से या संक्रमण के आतंक से नहीं रखना चाहिए, बल्कि ये एक नैतिक जिम्मेदारी है. 

सामूहिक मानवता के प्रति हमारी जिम्मेदारी है कि हम इसके फैलने को रोकने में हर संभव मदद करें. अगर नैतिकता के सिद्धांत से परे हम उपयोगितावादी मानसिकता से भी कोरोना की समस्या को देखेंगे तो भी हमें ही तय करना होगा कि हमारे फायदे में क्या है. तब शायद हम समझ पाएंगे कि घर में बंद होना काफी कम कष्टकारी है. अपने को संक्रमित करने के साथ साथ परिवार और पड़ोसी को खतरे में डालने से या इलाज का कष्ट झेलने की तुलना में.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

नैतिक बंधन को मजबूत करने में हम नहीं हुए सफल

महामारी प्रबंधन से जुड़े शोध यह भी बताते हैं कि बीमारी के दौरान राज्य, सरकार और जनता के बीच एक नैतिक बंधन (एथिकल बॉन्ड) बनता है ताकि पारदर्शिता को बनाए रखते हुए जनता में विश्वास पैदा किया जा सके. लॉकडाउन लागू होने के बावजूद हजारों की संख्या में गरीब मजदूरों का पलायन और सड़कों पर इकट्टा होना यह बताता है कि अभी भी इस नैतिक बंधन को मजबूत करने में हम पूर्णरूपेण सफल नहीं हो पा रहे हैं. उचित तरीके से सरकार के आदेशों का पालन किया जाना चाहिए जो स्वास्थ्यहित और जनहित में हो, साथ में यह भी सुनिश्चित हो कि ऐसे आदेश अंततोगत्वा एक न्यायपूर्ण व्यवस्था की बात करेंगे.

हमें इसी फ्रेमवर्क में सामाजिक दूरी की अवधारणा और लॉकडाउन जैसे आदेशों को समझना होगा जो केंद्र और राज्य सरकार की विभिन्न एजेंसियों द्वारा लागू किया गया है.

ऐसी स्थिति में राज्य और सरकारों की जिमम्मेदारी काफी बढ़ जाती है, चाहे वह बीमारी के बारे में जनता को जागरुक करना हो या इलाज मुहैया कराना, आर्थिक तंगी झेल रहे गरीबों के लिए रोटी पहुंचाना हो या संक्रमितों का इलाज कर रहे मेडिकल स्टाफ को साधन और सुरक्षा किट मुहैया कराना. ऐसी स्थिति में हर कार्रवाई को लेकर सरकारों पर काफी दबाव होता है, जब जनता अपने जीवन के लिए अपने ही मौलिक स्वतंत्रता को राज्य के हवाले कर देती है.

सामाजिक दूरी को समाज में दूरी या समाज से दूरी न समझा जाए

जमीनी स्तर पर भी सामाजिक दूरी को एक दुराभाव के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. सरकार और सामाजिक संगठन यह सुनिश्चित करें कि डॉक्टर और अन्य मेडिकल स्टाफ के प्रति सामाजिक भेदभाव और कोरोना पीड़ितों के प्रति दुराव और उदासीनता न हो. सामाजिक दूरी को समाज में दूरी या समाज से दूरी के रूप में नहीं समझा जाए.

अगर हम सामाजिक दूरी की परिभाषा को ‘सामाजिक दयालुता’ (सोशल कम्पैशन) की अवधारणा के साथ नहीं देखते हैं तो गलत होगा. इसीलिए आवश्यक है सामाजिक दयालुता को तवज्जो दें.

अपनी जान बचाने की प्राथमिकता तो स्वाभाविक है, पर अपनी जरूरतों के लिए जरूरत से ज्यादा सामग्री की खरीदारी, दवा और वेंटिलेटर जैसी मेडिकल आवश्यकताओं की कालाबाजारी है दर्शाती है कि सामाजिक दूरी को सामाजिक दयालुता के साथ-साथ लिंक करके नहीं देखा जा रहा है. इससे समस्या और बढ़ेगी, लोगों में आपसी विश्वास कम होगा और हम सामूहिक विनाश की ओर अग्रसर होंगे.

महामारी प्रबंधन में आज जरूरत है त्रिकोणीय विश्वास कायम करने की, जहां राज्य जनता में विश्वास करे, जनता राज्य में आस्था रखे, और जनता एक दूसरे में विश्वास और भाईचारा बनाए रखे. तभी सामाजिक दूरी को हर नागरिक मजबूरी नहीं बल्कि जरूरी समझेगा और मानेगा कि सामाजिक दूरी है- सामूहिकता में एकांत का सफर, आओ रहें हमसब घर के अंदर.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पॉलिटिकल साइंस के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. 'मॉडर्निज्म, डेमोक्रेसी एंड वेल बीइंग: ए गांधियन पर्सपेक्टिव' नाम की किताब के सह-लेखक हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में डेवलपिंग कंट्रीज रिसर्च सेंटर के फेलो रह चुके हैं. आर्टिकल में लिखे गए विचार उनके निजी विचार हैं और द क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×