मैं इन दिनों ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की अभिव्यक्ति को लेकर बहुत परेशान हूं. जब से कोविड महामारी की गाइडलाइंस सामने आई, उसी दिन से मैं चिंतित हूं. हम सब जानते हैं कि हमारे यहां ऐसे भी सदियों से ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ जीवन जीने का तरीका रहा है.
सकारात्मक कार्रवाई ने कुछ लोगों के लिए अर्थशास्त्र के नियम जरूर बदल दिए ,लेकिन ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ हमेशा से हमारे समाज में मौजूद रहा है. ऊंचे वर्ग के लोग किसी शर्त पर ‘उन्हें’ अपने करीब नहीं आने देते. इसलिए जहां आज भी लोग पुरानी पद्धति से पीड़ित हो रहे हैं, सोशल डिस्टेंसिंग की गाइडलाइन्स ने नए ‘अछूत’ तैयार कर दिए हैं.
जरूरत थी कि ‘ह्यूमन डिस्टेंसिंग’ या फिर ‘इंसान-से-इंसान के बीच दूरी’ बढ़ाने की सिफारिश की जाती. हालांकि गरीब परिवारों में ‘ह्यूमन डिस्टेंसिंग’ भी नामुमकिन है, क्योंकि 8 से 10 लोग एक ही झुग्गी की फर्श पर सोने और जीने को मजबूर हैं. आप उनके रहने की जगह को कमरा या घर नहीं कह सकते, क्योंकि वो उस छोटी सी घिरी हुई जगह में ही रहते हैं, सोते हैं, खाना बनाते हैं और उसे शौच के लिए भी इस्तेमाल करते हैं.
मुझे याद है मेरे एक साथी शिशु रोग विशेषज्ञ ने एक मां को जमकर डांट लगाई थी, जब बरसात के दिनों में उन्होंने देखा कि महिला ने अपने बच्चे को एक एल्यूमीनियम के मग में शौच कराया फिर उसी मग को धोकर उसने बच्चे को पीने के लिए चाय दे दी. महिला ने डॉक्टर की डांट को शांति से सुन लिया, फिर जवाब दिया ‘मेरे घर में इस मग के अलावा और कोई बर्तन नहीं है’. हम सबकी बोलती बंद हो गई थी, इस वाकये ने हमें हिलाकर रख दिया था.
'समुदायिक स्तर पर भी ह्यूमन डिस्टेंसिंग मुमकिन नहीं'
ये लोग जिन झुग्गियों में रहते हैं वहां समुदायिक स्तर पर भी ह्यूमन डिस्टेंसिंग मुमकिन नहीं है. इतने सालों में किसी ने इसकी परवाह नहीं की कि वो किन हालात में रहते हैं, और कैसे इस हेल्थ सिस्टम, खासकर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली, को सुनियोजित तरीके से बर्बाद कर दिया गया है. इंश्योरेंस के आधार पर प्राइवेट अस्पतालों में इलाज के सपने बेचे जा रहे हैं, जो कि पश्चिमी देशों में वैसे भी पूरी तरह विफल हो चुका है और जिसमें गरीब लोगों की जिंदगी की कीमत पर कुछ डॉक्टर और मैनेजर अमीर बन रहे हैं. वो गरीब जिनकी बीमारी से वो कुशल डॉक्टर बने. कॉरपोरेट हॉस्पीटल बनाए गए! जिससे देश की अर्थव्यवस्था बनाई जा रही है, आर्थिक ताकत बढ़ाई जा रही है! वो सिर्फ गरीबों का शोषण कर रहे हैं, गरीबों की बीमारी से पैसे बना रहे हैं.
'कर्फ्यू में दिल्ली के दंगा पीड़ितों को भुला दिया गया'
मैं दिल्ली के उन दंगा पीड़ितों के लिए भी चिंतित हूं, जिन्होंने अपना सबकुछ खो दिया है. इस ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ कर्फ्यू में उन्हें पूरी तरह भुला दिया गया है! जब उनके घर जलाए गए, साथ में उनके पैसे भी चले गए, नौकरी चली गई, सारे कागजात चले गए और जो अपने थे वो भी चले गए. कई ऐसे हैं जिन्हें घर में मौजूद अपने घायल परिजनों का ख्याल रखना है. वो सब अब कैसे जिंदा रहेंगे?
जो मजदूर हैं, बाजार में दिहाड़ी का काम करते हैं, वो बेरोजगार हो गए. उन्हें बिना काम के पैसे कौन देगा? रैन बसेरों में रहने वाले लोगों की भूख की दास्तां दिल दहला देने वाली है, जहां शायद ही कुछ लोगों को खाना नसीब हो रहा होगा. लेकिन मेरी चिंता ये है कि मुझे सिर्फ पुरुष ही दिखाई देते हैं. महिलाओं और बच्चों का क्या होगा? जो चुपचाप भूख और कमी को इसलिए सह लेते हैं ताकि कमाने वाला जिंदा रह सके. ऐसा लगता है कि ऐसे समय और हालात में ये सब तो ऐसे भी ‘खत्म होने योग्य’ थे.
नहीं. इन असहाय लोगों पर ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ नहीं कर पाने का दोष लगाना ठीक नहीं होगा, क्योंकि इनके पास कोई विकल्प नहीं है. उन्हें सिर्फ एक उम्मीद है कि कोई इंसान, कोई नेकदिल इंसान, इस ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की दूरियों को खत्म करेगा और उन तक पहुंचेगा ताकि वो जिंदा रह सकें. मेरी चिंता ये है कि कोविड से ये लोग बच भी गए तो भूख इन्हें मार डालेगी. हमारे आसपास जो लोग ताकतवर हैं, जिनके पास विकल्प है, उन्होंने कभी इन लोगों की चिंता नहीं की. मुझे उम्मीद है कहीं ना कहीं, किसी ना किसी के पास इनका ख्याल रखने वाला दिल होगा.
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