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क्या है तबलीगी जमात और मरकज, इसके बारे में क्या सोचते हैं मुसलमान?

तबलीगी जमात की स्थापना 1926 में ब्रिटिश राज के दौरान मोहम्मद इलियास कंधालवी ने किया था

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देश भर से आ रहे कोरोना संक्रमण के कई मामलों के तार दिल्ली में मार्च के दूसरे हफ्ते में हुए तबलीगी जमात के इज्तेमा से जुड़ने के बाद ये इस्लामिक संगठन ना सिर्फ सबकी नजर में आ गया है बल्कि लोगों का काफी तिरस्कार भी झेल रहा है.

कई न्यूज चैनलों ने तो तबलीगी जमात पर ‘कोरोना जिहाद’ छेड़ने का आरोप तक लगा दिया. अब ये तबलीगी जमात क्या है और इसके बारे में मुसलमान क्या सोचते हैं?

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क्या है तबलीगी जमात?

तबलीगी जमात की स्थापना 1926 में ब्रिटिश राज के दौरान मोहम्मद इलियास कंधालवी ने किया था, जो कि दारुल उलूम देवबंद के मौलवी थे.

जानकार योगिन्दर सिकंद के मुताबिक, जिन्होंने तबलीगी जमात पर खूब लिखा है, ‘मौलाना इलियास मानते थे कि मुसलमान इस्लाम में बताई गई बातों से काफी भटक गए हैं. इसलिए उन्होंने ये जरूरत महसूस की कि मुसलमानों को इस्लाम के मूलभूत सिद्धांतों की तरफ लौटना चाहिए और उसे अपनी निजी जिंदगी के साथ-साथ दूसरों के साथ व्यवहार में भी इसे पूरी सख्ती से पालन करना चाहिए.’

निजी जिंदगी और आदतों पर तबलीगी जमात का जोर ही उसे सबसे अलग करता है.

कहा जाता है कि मौलाना इलियास ने खुद को देवबंद से अलग कर लिया था क्योंकि वो महजबी भाषण और प्रचार पर अपना पूरा ध्यान देना चाहते थे, जबकि देवबंद का जोर धार्मिक शिक्षा और मस्जिदों की देखरेख पर होता है.

मौलाना इलियास ने तबलीगी की स्थापना कर दिल्ली के निजामुद्दीन में इसका मुख्यालय बनाया, लेकिन इसका सबसे अहम संदर्भ मेवात से जुड़ा है.

किसान मियो मुसलमानों - जिनके पूर्वज राजपूत बताए जाते हैं – का घर मेवात, तबलीगी जमात और आर्य समाज जैसे हिंदू सुधारवादी संगठनों – जो कि शुद्धि और संगठन आंदोलनों का नेतृत्व कर रहे थे – के बीच संघर्ष का क्षेत्र बन चुका था.

ब्रिटिश शासन में धर्म के आधार पर जनगणना शुरू होने से हिंदू और मुसलमानों के बीच मियो जैसे समुदायों के धर्मांतरण की होड़ लग गई थी, जो कि दोनों धर्मों का मिले-जुले तौर पर पालन करते थे.

धीरे-धीरे रीति रिवाजों से ज्यादा अक्षरों पर जोर दिया जाने लगा, फिर तबलीगी कुरान और सुन्ना पढ़ने का दबाव बढ़ाने लगे तो आर्य समाज के लोग वेदों के पाठ पर जोर देने लगे.

आजादी के बाद तबलीगी जमात पूरी दुनिया में तेजी से फैला, पहले दक्षिणी एशियाई प्रवासियों में फिर दूसरे सुन्नी मुसलमानों में.

राजनीति से रहते हैं अलग

तबलीगी जमात का जोर लगातार इस बात पर रहा कि मुसलमान अपना रहन-सहन बिलकुल वैसा ही रखें जैसा कि पैगंबर मोहम्मद के हवाले से वो लोगों को बताते थे.

ज्यादातर जोर रीति रिवाज, पहनावा और व्यवहार पर होता था. राजनीतिक तौर पर इसका मतलब था खुद को किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधियों से अलग रखना, यहां तक कि फिलीस्तीन जैसे मसलों से भी दूरी बनाए रखना.

अमेरिका में 11 सितंबर 2001 के हमले के बाद, तबलीगी जमात पर पूरी दुनिया की सुरक्षा एजेंसियां और थिंक टैंक की राय बंटी हुई थी.

जहां फ्रांस के विश्लेषक मार्क गैबोरी ने तबलीगी जमात पर ‘विश्व पर फतह करने की योजना पर काम करने’ का आरोप लगाया, वहीं पूर्व सीआईए अधिकारी ग्राहम फ्यूलर जैसे लोग इसे ‘शांतिपूर्वक और गैर-राजनीतिक तरीके से लोगों को धार्मिक उपदेश देने वाला आंदोलन’ बताते थे.

ऐसे ही भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की राय भी बंटी हुई है. एक हिस्सा इसे कश्मीर में सियासी इस्लाम के जवाब के तौर पर देखता है. तबलीगी जमात के मरकज में अजित डोभाल के दौरे को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए.

निजामुद्दीन मरकज शब्द भी आपने हाल फिलहाल सुना होगा. मरकज का मतलब है केंद्र या हेडक्वॉर्टर. केंद्र सरकार को ऊर्दू में मरकजी हुकूमत कहते हैं. निजामुद्दीन की बंगलेवाली मस्जिद तबलीगी जमात का मरकज यानी हेडक्वॉर्टर है.

तबलीगी जमात को मुसलमान किस तरह देखते हैं

दुनिया में तबलीगी जमात को मानने वाले लोगों की तादाद लाखों में है. लेकिन हर कोई इससे एक ही तरीके से नहीं जुड़ा है. जमात का सिर्फ एक हिस्सा धार्मिक प्रचार-प्रसार के काम में लगा है.

तबलीगी जमात पर मुसलमानों की राय भी बंटी हुई है. शाहिद सिद्दिकी जैसे पत्रकार इसे मुसलमानों की आधुनिक शिक्षा के लिए बड़ा खतरा मानते हैं.

वहीं दिल्ली में रहने वाली एक्टिविस्ट साइमा रहमान का नजरिया अलग है.

‘तबलीगी जमात को पिछड़ा और कट्टर बताना ठीक नहीं होगा. मेवात में इस संस्था ने बेहद सकारात्मक किरदार निभाया – चाहे वो लोगों को दहेज जैसी प्रथा और नशाखोरी के खिलाफ आगाह करना हो या फिर पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम को बढ़ावा देना हो,’ रहमान, जो कि मेवात से जुड़ी हैं, ने द क्विंट को बताया.

‘तबलीग इस्लाह (सुधार) के सिद्धांतों पर आधारित है. ये नम्रता और संयम बनाए रखते हुए अच्छाई को बढ़ावा और बुराई को छोड़ने की बात करते हैं. ये लोग अपने आदर्शों को लेकर उपदेश तो देते हैं लेकिन किसी के साथ जोर जबरदस्ती नहीं करते. ये लोग विनम्र और सीधी-सादी जिंदगी जीने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं.’ 
साइमा रहमान, एक्टिविस्ट

कई गैर-तबलीगी मुसलमानों ने जमात के बारे में अपनी राय तबलीगी मौलवियों की बातें सुनकर बनाई हैं, और जमात के बारे में उनकी राय में सम्मान और तारीफ से लेकर चिढ़ और हंसी मजाक भी शामिल होता है.

कुछ तबलीगी मौलवियों के नाम पर तो हंसी मजाक भी बनते हैं, जैसे कि पाकिस्तान का एक वीडियो काफी मशहूर हुआ जिसका टाइटल था ‘जब आपको तबलीग वाले चाचा ने पकड़ लिया.’

भारतीय मुसलमानों में मशहूर मीम हकीम नाम का एक फेसबुक पेज बराबर तबलीग जमात की हंसी उड़ाने वाले मीम पोस्ट करता है, जैसे कि आप इस बिल्ली-और-महिला वाले मीम में देख सकते हैं.

तबलीगी मौलवियों पर कई उपनाम भी खूब चर्चा में रहे, जैसे कि ‘तकलीफी जमात’ या ‘मुस्लिम पुलिस’ इत्यादि.

कारवां इंडिया के संस्थापक एक्टिविस्ट असद अशरफ कहते हैं कि- ''ये कहना ठीक नहीं होगा कि ये लोग (तबलीगी) उनके ग्रुप में शामिल होने के लिए दबाव नहीं बनाते, चाहे वो विनम्रता से ही क्यों ना हो. लेकिन क्या ज्यादातर सिद्धांतवादी संगठनों में ऐसा ही नहीं होता? मिसाल के तौर पर कॉलेज में छात्रों के समूह का इस्तेमाल करना'’

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कोविड-19 की चपेट में कैसे आए तबलीगी?

तबलीगी जमात की सोच से इत्तिफाक रखें या नहीं, लेकिन मुसलमान मीडिया और सोशल मीडिया पर ‘कोरोना जिहाद’ का कैंपेन देखकर हैरान हैं. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तो इसे ‘सोची समझी साजिश’ करार दिया.

पूरे विवाद में जो बात कहीं गुम हो गई वो ये कि तबलीगी जमात के लोग कोविड-19 की चपेट में कैसे आ गए?

इसका जवाब किसी बड़ी साजिश में नहीं बल्कि इस हकीकत में है कि तबलीगी जमात एक ऐसी संस्था है जो कई देशों में फैली है. जमात में इज्तेमा यानि बैठक का बड़ा रोल होता है जिसके लिए अलग-अलग देशों से लोग एक जगह जमा होते हैं.

इज्तेमा में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं होता और ये कई दशकों से लगातार जारी है. हाल के सालों में सबसे बड़े अंतरराष्ट्रीय इज्तेमा भोपाल में आयोजित किए गए थे.

क्योंकि इन आयोजनों से सरकारी खजाने में काफी पैसे आते थे, मध्य प्रदेश में बीजेपी की सरकार इसे खास तव्वजो देती थी, खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इसके इंतजाम देखते थे.

वैसे ही दिल्ली के इज्तेमा में भी ऐसी कोई भयावह बात नहीं हो रही थी, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि आयोजकों ने महामारी के खतरे के बीच इतनी बड़ी तादाद में लोगों के जमा होने का लापरवाही भरा फैसला ले लिया.

इसी के साथ तबलीगी की एक दूसरी परंपरा है चिल्ला जिसमें धर्म के प्रचार के लिए जमात के लोग 40 दिन की यात्रा पर निकलते हैं. इस दौरान ज्यादातर ये लोग दूरदराज गांवों के इलाकों में जाते हैं और वहां लोगों को साझा चूल्हा बनाते हैं.

जिन अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों की वजह से कोविड-19 का संक्रमण फैला वो ऐसी ही यात्रा में शामिल थे.

पंजाब में एक सिख ग्रंथी भी ऐसी ही एक संस्था के अंतरराष्ट्रीय प्रचार-प्रसार के दौरान कोविड-19 की चपेट में आया.

इसलिए परेशानी की असली वजह कोई साजिश नहीं है बल्कि ऐसे प्रचारकों में जागरुकता की कमी और सरकार की तरफ से जरूरी कदम नहीं उठाया जाना है.

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