देश के हाईकोर्ट राज्य और केंद्र सरकारों से दो-दो हाथ करने पर आमादा हैं. खास तौर से कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान कुव्यवस्था के चलते. रोजाना कोविड के मामलों और मौतों की संख्या अप्रत्याशित तरीके से बढ़ रही है. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पंचायत चुनावों में वोटों की गिनती के दौरान कोविड के नियमों के उल्लंघन पर उत्तर प्रदेश राज्य चुनाव आयोग और राज्य की ब्यूरोक्रेसी को लताड़ लगाई है. साथ ही यह मांग की है कि जिला अधिकारी ऑक्सीजन की कमी के कारण अस्पताल में होने वाली मौतों की रिपोर्ट के साथ व्यक्तिगत रूप से पेश हों.
इसी तरह दिल्ली हाई कोर्ट और कर्नाटक हाई कोर्ट केंद्र सरकार पर बरस चुके हैं कि वह ऑक्सीजन की पूरी सप्लाई करने में नाकाम रही. अदालतों ने केंद्र सरकार को यह बताने को भी कहा है कि उनके संबंधित क्षेत्रों के अस्पतालों में ऑक्सीजन सप्लाई करने की उसने क्या योजना बनाई है. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र सरकार की वैक्सीन, अस्पताल और ऑक्सीजन वितरण नीतियों पर सवाल खड़े किए हैं.
क्या न्यायपालिका को महामारी के प्रबंधन के मसले में पड़ना चाहिए?
इसका सीधा सा उत्तर है- नहीं, किसी नॉवेल कोरोनावायरस की वजह से फैली महामारी को काबू में करना- किसी लॉ स्कूल में नहीं पढ़ाया जाता, न ही लीगल प्रोफेशन की प्रैक्टिस के दौरान उस पर काम किया जाता है.
कोविड महामारी की रोकथाम में मैन्यूफैक्चरिंग, महामारी के विज्ञान, सप्लाई चेन मैनेजमेंट और दूसरे आला दर्जे की विशेषज्ञता का क्या महत्व है, इसे समझने के लिए जजों के पास पर्याप्त संसाधन भी नहीं हैं. एक और मसला है. वह यह कि अदालतें उन लोगों को वरीयता देती हैं, जो अदालतों तक खुद पहुंच सकते हैं और दूसरों के मुकाबले अपनी बात ज्यादा बेहतर तरीके से रख सकते हैं. यह दो तरीके से होता है.
- पहला, सिर्फ विशेषाधिकार प्राप्त और संसाधन वाले लोग ही अदालतों तक पहुंच पाते हैं.
- दूसरा, अदालतें अपने क्षेत्राधिकार में आने वाले सीमित भौगोलिक क्षेत्रों तक ही ध्यान केंद्रित कर पाती हैं.
इसका असर इस बात पर भी पड़ा है कि अदालतें किस तरह राहत देती है- वे लोकतांत्रिक कम होती हैं, टेक्नोक्रैटिक ज्यादा.
जैसा कि अनुज भुवानिया की किताब ‘कोर्टिंग द पीपुल’ में पीआईएल के बाद के खतरों का जिक्र है. इसमें कहा गया है कि पीआईएल के बाद से अदालतों की शक्तियां बढ़ी हैं- वंचित वर्ग के लोगों के अधिकारों की कीमत पर. अदालती फैसलों का निष्पक्ष रूप से विश्लेषण करने वालों के लिए यह बात याद रखनी बहुत जरूरी है.
इसीलिए अगर यह कहा जाए कि न्यायपालिका ने कार्यपालिका के कामकाज को ‘अपने हाथों में ले लिया है’, तो यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर कही गई बात नहीं. लेकिन कोविड की दूसरी लहर के बीच मुश्किल सवाल पूछकर अदालतों ने चिंता जताई है.
फिर भी हम कह सकते हैं कि अदालतों ने अपने अधिकतर आदेशों में कार्यपालिका से अनुरोध ही किया है. ऐसा कम हुआ है कि अदालतों ने कार्यपालिका को कुछ ऐसा करने का निर्देश दिया हो, जो वह अन्यथा न करती. हां, एकाध मामले में कुछ कड़ा रुख अपनाया गया है (जैसे इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के शहरों में लॉकडाउन को अनिवार्य किया), लेकिन ज्यादातर आदेशों में संबंधित अधिकारियों की जिम्मेदारी पर ही सवाल खड़े किए गए हैं, ब्यूरोक्रेसी को कटघरे में खड़ा नहीं किया गया है.
चाहे वह चुनावों में वोटिंग के दौरान कोविड प्रोटोकॉल के पालन की बात हो, या अस्पतालों में ऑक्सीजन की सप्लाई का मसला, हमारी अदालतों ने महामारी के प्रबंधन को ‘अपने हाथों में नहीं लिया’, बल्कि मुश्किल सवालों के जरिए अपनी चिंता ही जाहिर की है. साथ ही जवाबदेही तय करते हुए जवाब तलाशने की कोशिश की है.
आप फिर भी सवाल कर सकते हैं- क्या उन्हें ऐसा करना चाहिए? क्या उनके पूछे गए सवाल सही हैं, और क्या एक अकल्पनीय संकट के दौर में यह खतरनाक नहीं है. क्योंकि ऐसे समय में ब्यूरोक्रेट्स को अपने काम पर ध्यान देना चाहिए, न ही अदालतों में एफिडेविट फाइल करना चाहिए?
इसका जवाब है- बेशक, न्यायपालिका को ऐसा करना चाहिए. क्योंकि न्याय शास्त्र में, संविधान में उसका सबसे महत्वपूर्ण काम यही है- जवाबदेही तय करना.
मशहूर ह्यूमन राइट्स स्कॉलर डॉ. सैंड्रा फ्रेडमैन ने अपने एसे ‘एडजूडिकेशन एज़ एकाउंटेबिलिटी: द डेलिबरेटिव एप्रोच’ में इसका जिक्र किया है. इसमें वह लिखती हैं कि मानवाधिकार के मामलों में न्यायिक प्रक्रिया यह सुनिश्चित कर सकती है कि सरकार की जवाबदेही बनी रहे. इसके लिए यह मांग की जानी चाहिए कि सरकार अदालत में अपनी कार्रवाई को स्पष्ट करे.
अगर सार्वजनिक मंच और रिकॉर्ड पर सरकार को बताना पड़े कि उसकी कार्रवाई उचित है तो उसे मानवाधिकार के मुद्दे पर उचित कार्रवाई के लिए मजबूर भी होना पड़ सकता है.
जब सरकार जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ रही हो
अदालती बहस और आदेशों से हमें यह तो जरूर पता चलता है कि कोविड संकट की दूसरी लहर में सरकारों की बदइंतजामी की क्या हद है. अदालतों के लाइव ट्विट्स (लाइव लॉ और बार एंड बेंच से) ने हमें बताया है कि सरकार इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी और महामारी में किस तरह गलत कदम उठाए गए और झूठ बोला गया. ऐसा नहीं है कि जजों के पास सरकार से बेहतर योजना थी. लेकिन वे यही तलाशने की कोशिश कर रहे थे कि क्या सरकार के पास कोई योजना है, और अगर ऐसा है तो क्या यह योजना नागरिकों की जिंदगी, आजादी और अच्छे स्वास्थ्य के अधिकार की पूरी तरह से रक्षा करेगी.
कोविड की दूसरी लहर के बीच जब देश में लाखों लोगों पर तकलीफों का पहाड़ टूटा हो, इस बहस में पड़ना अभद्रता होगी कि कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियां किस तरह अलग अलग हैं, या भारतीय संदर्भ में न्याय व्यवस्था की सही भूमिका क्या है.
फिर भी न्यायपालिका को सवाल करने का हक है. चूंकि देश की कोई भी संस्था सवालों से परे नहीं है.
भले ही राज्य और केंद्र में कार्यपालिका मीडिया के मुश्किल सवालों को टाल रही है. महामारी से जुड़े आंकड़ों को जनता से छिपा रही है. कोविड से होने वाली मौतों की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही है. लेकिन सच्चाई यह है कि उससे सवाल किए जा रहे हैं- कम से कम न्यायपालिकी की तरफ से तो. और यह हवा के ठंडे झोंके की तरह है.
(आलोक प्रसन्ना कुमार बेंगलुरु स्थित विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में सीनियर रेज़िडेंट फेलो हैं. वह कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स की एग्जीक्यूटिव कमिटी के सदस्य भी हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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