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भारत के गरीबों को महामारी के साथ डरा रही एक और ‘बीमारी’- कुपोषण

कोरोना महामारी की वजह से कुपोषण का खतरा बढ़ने की आंशका है.

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कोरोना वायरस की दूसरी लहर के दौरान भारत बुरी तरह चपेट में है. विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी WHO ने मई 2021 के पहले सप्ताह की अपनी वीकली रिपोर्ट में भारत को दुनिया भर के फैले आधे अधिक संक्रमण और कुल वैश्विक मौतों में एक चौथाई मौत के लिए जिम्मेदार ठहराया है. यह सब तब सामने आया है जब दुनिया भर में यह आरोप लगाया जा रहा है कि भारत में वास्तिक आंकड़े कुछ और ही हैं...

कोविड महामारी की वजह से कई खतरों के बीच एक और डर है, जिसके काले बादल खास तौर पर निम्न और मध्यम आय वाले देशों पर मंडरा रहे हैं. यह खतरा वैश्विक स्तर पर पोषण का है, जो कोरोना महामारी की वजह से दुनिया भर में बढ़ गया है. कोरोना से बचाव के लिए फिजिकल दूरी, यातायात में प्रतिबंध और लॉकडाउन लगाने जैसे उपाय किए गए है. जिसकी वजह से स्वस्थ्य, ताजे और कम लागत वाले खाद्य पदार्थों के उत्पादन, वितरण और बिक्री प्रभावित हुई है. इसकी वजह से लाखों परिवार को कम पोषण वाले खाद्य पदार्थों को चुनना पड़ा. इससे यह चिंता अच्छी तरह से स्पष्ट हो गयी है कि कोरोना महामारी की वजह से सभी तरह के कुपोषण के जोखिम की बढ़ने की संभावना है.

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कोविड की वजह से बच्चों में खून की कमी, “स्टंटिंग” और “वेस्टिंग” के मामलों में हुई वृद्धि

यूनिसेफ स्टेटस ऑफ वर्ल्ड्स चिल्ड्रेन रिपोर्ट 2019 के मुताबिक भारत में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में 69 फीसदी मौतों की वजह कुपोषण है. इसके साथ ही भारत में पांच से कम उम्र का हर दूसरा बच्चा किसी न किसी प्रकार के कुपोषण से ग्रसित है. इसके साथ ही इस स्थिति में महामारी का असर भी देखने को मिल रहा है. भारत पिछले 45 वर्षों में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर गरीबी देख रहा है. भारत सरकार के नेशनल हेल्थ सर्वे 2019-2020 के पहले चरण के डेटा बताते हैं कि भारतीय बच्चों में कुपोषण के मामलों में वृद्धि हुई है.

देश भर के जिन 22 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में हेल्थ सर्वे कराया गया था. उनमें से 12 में “स्टंटिंग” यानी उम्र के अनुसार वजन में कमी हुई है, 13 में “वेस्टिंग” यानी ऊंचाई के अनुसार वजन में कमी हुई है और 16 में कम वजन वाले बच्चों में वृद्धि देखी जा सकती है.

इसके साथ ही देश में एनिमिक यानी खून की कमी वाले बच्चों की संख्या बढ़ रही है. देश के अधिकांश राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में चाइल्डहुड मालन्यूट्रिशन यानी बालावस्था में कुपोषण बढ़ रहा है. केरल, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा और हिमाचल प्रदेश जैसे संपन्न प्रदेशों में भी पिछले पांच वर्षों में स्टंटिंग की दर बढ़ गई है.

पिछले दशकों में देश ने मां और बच्चों में कुपोषण को कम करने में प्रगति की हैं, लेकिन यह गति काफी सुस्त है इस वजह से आंकड़ों के अनुसार यह स्थिति निराशाजनक है.

इस गिरावट को समग्र तौर पर आर्थिक मंदी से भी जोड़ा जा सकता है, जिसने बेरोजगारी दर को 45 साल के उच्चतम आंकड़ें पर धकेल दिया है. वहीं पीडीएस यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली और मिड डे मील (मध्याह्न भोजन) जैसी पोषण से जुड़ी योजनाओं के बजट में कटौती की वजह से भी स्थिति बिगड़ी है. इन योजनाओं से एक बड़ी आबादी को पोषण की पूर्ति होती है.

यूनिसेफ के अनुसार वेस्टिंग का मतलब लंबाई के अनुसार कम वजन होना है. पांच वर्ष तक की आयु के बच्चों की मृत्यु का यह एक बड़ा कारण है. इसकी वजह अक्सर भोजन की अत्यधिक कमी या बीमारी होती है. गंभीर रूप से वेस्टेड बच्चों की मृत्यु की संभावना अधिक होती है, क्योंकि सही पोषण की कमी से रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है. वहीं जो बच्चे जीवित बच भी पाते हैं तो उनका विकास पूरी तरह से नहीं हो पाता है.

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कोविड महामारी के बीच बाल मृत्यु दर में बढ़ोत्तरी

कोरोना महामारी आने के पहले से ही कुपोषण बढ़ रहा था. लेकिन कोविड के बाद अब इसकी स्थिति और खराब होने वाली है. येल यूनिवर्सिटी द्वारा मार्च 2020 में किया गया एक अध्ययन किया गया था. इसमें देशव्यापी लॉकडाउन के बाद मध्य और उत्तर भारत में गांव लौटने वाले 5000 प्रवासियों को ट्रैक किया गया था. इस स्टडी की रिपोर्ट के अनुसार लॉकडाउन के बाद उनमें से घर पर ही रहने वाले 40 फीसदी लोग इस बात को लेकर चिंतित थे कि फसल के सीजन के बाद उनके भोजन का क्या होगा? यानी उनका फूड खत्म होने वाला था. वहीं उनमें से 20 फीसदी से अधिक लोगों ने कहा था कि वे सामान्य से कम भोजन ग्रहण कर रहे थे. लॉकडाउन के दौरान स्वास्थ्य कार्यक्रमों को नुकसान पहुंचा और उसमें बाधा आई. जिसने से मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य और मृत्यु दर को और भी अधिक खतरे में डाल दिया है.

यूनिसेफ की हालिया रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभावों की वजह से भारत में बाल मृत्यु दर में 15.4 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है.

यदि उचित कार्रवाई नहीं होती है तो बाल आहार पर कोविड महामारी का गहरा प्रभाव बच्चे के विकास के साथ-साथ उसके स्कूली जीवन, लंबे समय तक चलने वाली बीमारी के जोखिम और संपूर्ण मानव संसाधन निर्माण को प्रभावित कर सकता है. वहीं आर्थिक तनाव की वजह से भी फूड इनसिक्योरिटी यानी खाद्य असुरक्षा की घटनाएं भी बढ़ी हैं.

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एक्सक्लूजन को कैसे रोकें और पीडीएस को किस तरह मजबूत करें

वर्तमान परिदृश्य के अनुसार जब तक स्थिति में सुधार नहीं हो जाता है तब तक कमजोर समूहों को खाद्य सहायता करना बहुत महत्पूर्ण है. हाशिए पर खड़े समुदायों के वित्तीय पतन को रोकने के लिए सरकार को इन्हें मंथली कंडिशनल कैश ट्रांसफंर के तौर पर आर्थिक स्थिरता प्रदान करनी चाहिए. इसके साथ ही बच्चों की स्कूली शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण जैसी बुनियादी चीजों को प्रदान करते रहना चाहिए. यदि मौजूदा स्थिति लंबे समय तक जारी रहती है और मध्याह्न भोजन तथा नियमित स्वास्थ्य देखभाल में बाधा रहती तो मां और बच्चे पर जीवन भर प्रभाव पड़ सकता है. इस समस्या को सुलझाने के लिए आंगनबाडियों जैसे संस्थानों को पुनर्जिवित और फिर से व्यवस्थित करने की जरूरत है.

इस तरह के उपाय तभी काम करते हैं जब हम योजनाओं से एक्सक्लूजन यानी बहिष्करण जैसे तत्व को हटा दें. माईग्रेशन, ब्यूरोक्रेसी और पेपर वर्क कई अलग-अलग स्तरों पर एक्सक्लूजन पैदा करते हैं.

दूसरी लहर अभी खत्म नहीं हुई है और थर्ड वेव का खतरा पहले से ही मंडरा रहा है. हम कोविड-19 वायरस के खिलाफ लड़ाई तो जीत सकते हैं लेकिन उन लाखों लोगों को बचाने के लिए समय निकल रहा है जो गरीबी और कुपोषण के कुचक्र में फंस गए हैं. यह सब महामारी के समाप्त होने तक बदतर हो जाएगा.

-अनामिका यादव (लेखिका, जेएनयू, नई दिल्ली के सेंटर फॉर स्टडीज इन साइंस पॉलिसी की साइंस, टेक्नोलॉजी एंड सोसायटी स्टडीज की पीएचडी स्टूडेंट हैं. यह लेख एक विचार है जिसका न तो क्विंट समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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