परिभाषा से, एक गाइडलाइन नीति का एक संकेत या रूपरेखा है. दूसरे शब्दों में, एक गाइडलाइन एक बयान है, जिसके द्वारा कार्रवाई को निर्धारित किया जाता है. इसका उद्देश्य एक विशेष प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना है.
इसलिए, तेजी से बदलते निर्देश, दिशानिर्देश कहलाने के योग्य नहीं हैं. और ठीक ऐसा ही हो रहा है, खासकर कोविड टेस्टिंग के मामले में.
इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) ने 10 जनवरी 2022 को अपनी टेस्टिंग मानदंडों को संशोधित किया, विशेष रूप से बुजुर्गों और को-मॉर्बिडिटी वाले व्यक्तियों में मामलों का जल्द पता लगाने के लिए.
हालांकि, कम्युनिटी सेटिंग्स में, सिफारिशें केवल खांसी, बुखार, गले में खराश, स्वाद और/या गंध की कमी, सांस फूलना और/या फेफड़ों से संबंधित दूसरे लक्षणों में से कम से कम एक लक्षण वाले मरीजों का टेस्ट करने के लिए हैं.
अंत में, ये कहता है कि अंतरराष्ट्रीय यात्रा करने वाले या भारत आने वालों को भी कोविड टेस्टिंग से गुजरना चाहिए.
इसी तरह, अस्पताल की सेटिंग में, ये कहता है कि उपचार करने वाले डॉक्टर के मुताबिक इस विचार के साथ टेस्टिंग की जा सकती है कि टेस्टिंग की कमी के लिए सर्जरी और डिलीवरी सहित किसी भी इमरजेंसी प्रक्रिया में देरी नहीं होनी चाहिए; टेस्टिंग सुविधा की कमी के कारण मरीजों को दूसरी सुविधाओं में नहीं भेजा जाना चाहिए; सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि डिलीवरी के लिए अस्पताल में भर्ती होने वाली गर्भवती महिलाओं सहित सर्जिकल/गैर-सर्जिकल प्रक्रियाओं से गुजरने वाले मरीजों का टेस्ट तब तक नहीं किया जाना चाहिए, जब तक कि जरूरी न हो या लक्षण विकसित न हों.
आश्चर्य की बात ये सिफारिश है कि कम्युनिटी सेटिंग्स में, बिना लक्षण वाले लोगों, इंटरस्टेट घरेलू यात्रा करने वाले लोगों और मरीजों के संपर्क में आने वाले लोग, जब तक कि उम्र या को-मॉर्बिडिटी के आधार पर ज्यादा जोखिम के रूप में पहचाने नहीं जाते हैं, तो उन्हें कोविड टेस्टिंग की जरूरत नहीं है.
हालांकि, ये कहता है कि सलाह प्रकृति में सामान्य है और राज्य के स्वास्थ्य अधिकारियों के मुताबिक संशोधित की जा सकती है.
ऐसा लगता है कि टेस्टिंग के लिए ये दिशानिर्देश वैज्ञानिक प्रमाणों से नहीं, बल्कि लॉजिस्टिक की मजबूरियों से तय हुए हैं.
इसके पीछे का कारण समझना मुश्किल नहीं है. बहुत ज्यादा ट्रांसमिसिबिलिटी और कम डबलिंग टाइम के कारण, नया ओमिक्रॉन वेरिएंट जंगल में आग की तरह फैल रहा है और अगर टेस्टिंग को लेकर पुरानी दिशानिर्देशों को फॉलो किया गया, तो ये हमारी टेस्टिंग फैसिलिटी पर काफी जोर डाल देगा.
लेकिन इन्हीं कारणों से, अगर टेस्टिंग नहीं की जाती है, तो बड़ी संख्या में ऐसे लोग, जो संक्रमित हैं लेकिन उनमें लक्षण नहीं हैं, वो बीमारी को और फैला सकते हैं. इसलिए, ये बिना टेस्टिंग के लोगों को इंटरस्टेट यात्रा की अनुमति देने के तर्क की अवहेलना करता है.
इसी तरह, हेल्थकेयर फैसिलिटी में, दूसरी लहर के दौरान मरीजों को बिना नेगेटिव कोविड टेस्ट रिपोर्ट के अस्पताल में प्रवेश की अनुमति या सर्जरी की अनुमति नहीं दी गई. ऐसा अस्पताल में दूसरे मरीजों और हेल्थकेयर स्टाफ की सुरक्षा के लिए किया गया था.
ये प्रैक्टिस आज भी कई अस्पतालों में जारी है.
एक और सलाह जो तर्कहीन लगती है, वो ये कि "कोविड क्षेत्रों में ड्यूटी करने के बाद हेल्थकेयर कर्मचारियों का नियमित क्वॉरन्टीन जरूरी नहीं है."
ये न केवल पहले से ही बोझ से दबे डॉक्टरों और स्टाफ नर्सों के स्वास्थ्य और जिंदगी को खतरे में डालता है, बल्कि उनके परिवारों को भी जोखिम में डालता है.
इसके अलावा, कोविड-पॉजिटिव मरीजों की देखभाल करते समय, संक्रमण के संपर्क में आने वाले डॉक्टरों और कर्मचारियों से, कोविड नेगेटिव मरीजों को क्रॉस-संक्रमण की ज्यादा संभावना होती है, क्योंकि कई कारणों से उनकी इम्युनिटी कमजोर हो चुकी होती है.
इसलिए, टेस्टिंग न करके, पहले से ही कम स्वास्थ्य कर्मिचारियों के पूल को कम करने में और योगदान दे रहे हैं. हेल्थकेयर कर्मचारियों का स्वास्थ्य मौजूदा समय में जरूरी है.
(डॉ अश्विनी सेत्या दिल्ली के मैक्स सुपर स्पेशिएलिटी अस्पताल में सीनियर गैस्ट्रोएंट्रोलॉजिस्ट और प्रोग्राम डायरेक्टर हैं. उनसे ashwini.setya@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. आर्टिकल में छपे विचार लेखक के अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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