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रेप पर फांसी की सजा वाले कानून से बचेंगी देश की मासूम बेटियां?

क्या फांसी की सजा का प्रावधान कर दिए जाने भर से छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं थम जाएंगी? या कम हो जाएंगी?

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एक बेटी का पिता होने के नाते सबसे पहले तो मैं बच्चियों के बलात्कारियों को फांसी की सजा वाले संशोधित कानून का स्वागत करता हूं. इस देश में बारह साल से छोटी बेटियों से दुष्कर्म के दोषियों के लिए फांसी के फंदे का इंतजाम हो गया है. सोमवार को देश की संसद में मुहर लगने के बाद अब राष्ट्रपति के दस्तखत होते ही आपराधिक कानून (संशोधन) विधेयक कानून की शक्ल ले लेगा.

मध्य प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान की सरकारों ने पहले ही फांसी की सजा वाला कानून लागू कर दिया था.

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मैं जानता हूं कि देश और दुनिया में ऐसे मानवाधिकारवादियों की बहुत बड़ी तादाद है, जो फांसी की सजा को न्याय का बर्बर रूप मानते हैं और हर हाल में ऐसे कानूनों की मुखालफत करते हैं. मानवाधिकार के प्रति उनकी समझ और संवेदना के स्तर पर बहस किए बगैर मैं बच्चियों से बलात्कार के मामले को एक बेचैन और चिंतित पिता के नजरिए से देखता हूं, लिहाजा उनकी तमाम दलीलों को खारिज करते हुए मानता हूं कि ऐसे मामलों के लिए सख्त से सख्त सजा के प्रावधान की जरूरत थी.

फांसी की सजा से बच्चियों का बलात्कार रुकेगा?

अब सवाल ये है कि क्या फांसी की सजा का प्रावधान कर दिए जाने भर से छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं थम जाएंगी या कम हो जाएंगी?

क्या फांसी की सजा का प्रावधान कर दिए जाने भर से छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं थम जाएंगी? या कम हो जाएंगी?

इन्हीं सवालों के जवाब में छिपी है देश की लाखों बेटियों के माता-पिताओं की चिंता.

फांसी वाले इस नए कानून के बाकी पहलुओं पर तर्क-वितर्क करने से पहले बात मैं अपने घर से ही शुरू करता हूं. मेरी बेटी लगभग ग्यारह साल की है. एक अपार्टमेंट में ग्यारहवें माले पर रहता हूं. मेरी बेटी को रोज स्कूल, ट्यूशन और खेलने के लिए दिनभर में तीन या चार बार अपनी इमारत की लिफ्ट से नीचे जाना होता है.

उसकी मां अक्सर इस बात को लेकर दिन में भी चिंतित होती है कि लिफ्ट में बेटी अकेली न जाए. उसके साथ कोई नीचे तक छोड़ने जाए. डर सिर्फ इस बात का होता है कि क्या पता लिफ्ट में विकृत मानसिकता का कोई शख्स बेटी को अकेले देखकर उसके साथ कोई ऐसी-वैसी हरकत न कर दे. जरा इस डर को समझिए.

क्या फांसी की सजा का प्रावधान कर दिए जाने भर से छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं थम जाएंगी? या कम हो जाएंगी?

बच्चियों के साथ छेड़छाड़ और दुष्कर्म की उन्हीं घटनाओं से, जो हमारे आसपास रोज होती है. देश के हर हिस्से में होती है.

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क्या फांसी की सजा का प्रावधान कर दिए जाने भर से छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं थम जाएंगी? या कम हो जाएंगी?

ऐसे ‘चाचा’ ‘ताऊ’‘भैया ‘ भी होते हैं, जो बच्ची को कभी चॉकलेट देकर रिझाते हैं और मौका देखकर उसके साथ दुष्कर्म जैसा जघन्य अपराध करते हैं.

जान-पहचान वाले और रिश्तेदार ही गुनहगार

एनसीआरबी के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, देश में हर घंटे दो बच्चियों के साथ बलात्कार होता और हर घंटे चार बच्चे यौन शोषण के शिकार होते हैं. संसद में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने 2016 के आंकड़ों का हवाला देकर माना था कि देश में बच्चों के खिलाफ अपराध के 106958 मामले दर्ज हुए, जिसमें 36022 मामले पॉक्सो के तहत दर्ज किए गए.
राजनाथ सिंह का 2016 में बयान

ये तो सरकारी आंकड़े हैं. न जाने कितने लोग लोक लिहाज के डर से या किसी दबाव में आकर मामले को अपने घर की दहलीज के भीतर ही दफन कर देते हैं. खून का घूंट पीकर रह जाते हैं लेकिन कोर्ट, कचहरी और पुलिस के चक्कर में नहीं पड़ना चाहते.

आप जानकर हैरान होंगे कि हर साल बच्चियों का यौन शोषण करने वाले अपराधियों में साठ से अस्सी फीसदी जानकार और रिश्तेदार होते हैं. महिला बाल कल्याण मंत्रालय की एक पुरानी रिपोर्ट के मुताबिक, मासूम बच्चियों के साथ दिल दहला देने वाली हरकत करने वाले गुनहगारों में से 79 फीसदी रिश्तेदार और परिचित थे.

यानी जिस पर बच्ची का परिवार भरोसा करता था, उसी में हैवान बसता था. तो ऐसे में अपनी बेटियों को लोग किस-किस से बचाएं? पड़ोसी से? रिश्तेदार से? स्कूल के साथी से? टीचर से? बस वाले भैया से? पार्क वाले भैया से? चॉकलेट देने वाले चाचा से? या फिर घर की चारदीवारी में ही रहने वाले करीबी से? और कहां -कहां बचाएं? इस चिंता का अंदाजा शायद वो लोग उतनी शिद्दत न लगा पाएं जो बेटियों के बाप नहीं हैं.

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बच्चियों का बचपन कैसे बचाएं

बच्ची जब बड़ी हो जाती है, तब तो अपने अच्छे-बुरे का बहुत हद आकलन कर सकती है, लेकिन साल, दो साल, तीन साल या चार साल की बच्ची कैसे समझे कि जिस गोद में वो है, वो किसी व्यभिचारी की गोद है. जो हाथ अभी अभी उसके गालों को सहला रहा था, वो हाथ किसी दुष्कर्मी का है. नादान सी बच्ची कैसे समझे कि उसके साथ भी कोई इतना बुरा सकता है? बोतल से दूध पीने वाली इतनी ही छोटी-छोटी बेटियों के साथ हैवानियत की खबरें भी आए दिन अखबारों में छपती रहती है.

हम आप पढ़कर अपने काम में लग जाते हैं. कुछ चुनिंदा वारदातों पर मीडिया का शोर मचता है तो सत्ता और सिस्टम की कुंभकर्णी नींद खुलती है, वरना हर घंटे दुष्कर्म की शिकार हो रही मासूम बेटियों की किसे चिंता है? न समाज को. न सरकार को.

सरकार और सिस्टम के लिए बलात्कार दूसरे अपराधों की तरह महज एक आपराधिक घटनाभर है. तभी तो बलिया का कोई बीजेपी विधायक कह देता है कि अगर भगवान राम भी आ जाए, तब भी रेप की घटनाओं को रोक पाना संभव नहीं है. कोई मुख्यमंत्री कहता है कि रेप की घटनाओं को उछालकर मीडिया हमारी सरकार को बदनाम कर रहा है और मुलायम सिंह यादव जैसे नेता तो गैंगरेप की घटना के बाद गुनहगारों को फांसी मिलने पर कह देते हैं, ‘ लड़के हैं , गलती हो जाती है'. ये सबके सब संवेदनहीन सिस्टम को वो नुमाइंदे हैं, जिनके लिए बलात्कार महज एक घटनाभर है.

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डेढ़ साल की बच्ची से दरिंदगी

मैं आपको रोंगटे खड़े कर देने वाली दो तीन घटनाएं बताता हूं. जानिए क्योंकि ये जानना जरूरी है कि हम किस समाज में रह रहे हैं. कुछ महीने पहले ही दिल्ली में डेढ़ साल की एक बच्ची के साथ उसके पिता के जानने वाले ने दरिंदगी की थी.

चाचा जैसे शख्स ने ऐसी मासूम सी गुड़िया को अपनी विकृत हरकतों का शिकार बनाया, जो बोलना और चलना भी नहीं सीख पाई थी. उस बच्ची के नन्हे पावों में समाने वाले तीन इंच के जूते और खिलौने की तस्वीरें अखबार में देखकर मैं काफी देर तक डिस्टर्ब रहा. विचलित सा सोचता रहा. उस दरिंदे के बारे में. उस नन्ही बिटिया के बारे में. अ-ब-स भी नहीं समझ पाने वाली बच्ची के साथ हुई बर्बरता के बारे में लिखना-बोलना-सुनना भी दर्द से गुजरने की तरह है. डेढ़ साल की बेटी तो तुतलाती आवाजों से ही तो किसी को पुकारती होगी.

क्या फांसी की सजा का प्रावधान कर दिए जाने भर से छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं थम जाएंगी? या कम हो जाएंगी?

मम्मा पप्पा.. के अलावा तो शायद कुछ बोल भी नहीं पाती होगी.. उसके साथ कोई तैंतीस साल का आदमी ऐसी घिनौनी हरकत कैसे कर सकता है? वो मासूम तो ये भी नहीं समझ पाई होगी कि उसके साथ हुआ क्या है? वो जोर-जोर से चीखी होगी. चिल्लाई होगी. छटपटाई होगी और वो दरिंदा उस फूल सी बिटिया को.. उफ्फ…

आज भी उस बेटी के बारे में लिखते हुए हिम्मत जवाब देती है. उस घटना के तुरंत बाद दिल्ली के कंझावला इलाके में सात साल की बेटी के साथ भी ऐसा ही हुआ. ऐसी दरिंदगी की खबरें हर रोज आती हैं और बिना किसी शोर के दम तोड़ देती है. परिवार के अलावा किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ता. कई मामलों में तो पुलिस, अस्पताल और पूरे सिस्टम की संवेदनहीनता की पराकाष्ठा दिखती है.

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बीते साल नवंबर से जनवरी 2018 के बीच हरियाणा के पानीपत और जींद इलाके में बर्बरता की सारी हदें पार करने वाली घटनाएं हुई. पहली घटना तीन साल की एक बच्ची के साथ हुई. एक फैक्टरी में काम करने वाले बच्ची के पिता के दो दोस्तों ने ही उसे टॉफी देने के नाम पर फुसलाया. अगवा किया. फिर बंद पड़ी फैक्टरी में शराब पीकर जो कुछ किया, वो लिखने की हिम्मत नहीं है मेरी.

बलात्कारी दरिंदे उस रोती बिलखती और खून से लथपथ बच्ची को छोड़कर भाग गए. मां-बाप को जब बच्ची मिली, तो अधमरी हालत में थी. फिर शुरू हुआ अस्पतालों का चक्कर. एक अस्पताल ने अपनी बला टाल कर दूसरे में रेफर कर दिया. दूसरे अस्पताल ने गलत ऑपरेशन कर दिया और बच्ची को डिस्‍चार्ज कर दिया. किसी तरह वो बच्ची बच तो गई, लेकिन उसकी हालत आज भी ठीक नहीं. ये उस सूबे का हाल है जहां खट्टर सरकार है.

'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा सबसे अधिक बुलंद करने पर जोर है. पानीपत में ही दूसरी घटना हुई, जिसमें ग्यारह साल की बच्ची के साथ बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर दी गई और फिर शव के साथ भी रेप किया गया. ऐसी ही घटनाओं पर हुए शोर और हंगामे के बाद प्रदेश सरकार ने बारह साल से कम की बच्चियों के साथ बलात्कार करने वाले दरिंदों के लिए फांसी का कानून बना दिया था. कठुआ और मंदसौर की घटना तो आप जानते ही होंगे. देश में वो शर्मनाक दौर भी देखा, जब बलात्कार की शिकार आठ साल की बेटी और बलात्कारी का धर्म देखकर राजनीति भी हुई और आरोपियों को बचाने की कोशिशें भी.

क्या फांसी की सजा का प्रावधान कर दिए जाने भर से छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं थम जाएंगी? या कम हो जाएंगी?
क्या फांसी की सजा का प्रावधान कर दिए जाने भर से छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं थम जाएंगी? या कम हो जाएंगी?
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क्या नया कानून कारगर होगा?

पढ़ने सुनने में तो नए कानून के ये प्रावधान काफी कारगर लगते हैं लेकिन क्या इन्हें ऐसे ही अमल में भी लाया जा सकेगा? समस्या इन कानूनों को अमली जामा पहनाने में है. सबसे पहली जरूरत है इस देश की लचर और भ्रष्ट पुलिसिया सिस्टम को दुरुस्त करने की और स्पीडी ट्रायल की व्यवस्था की.

पुलिस से सौ पचड़े और मुकदमों की अंतहीन सुनवाई का नतीजा ये होता है कि जितने आरोपियों को सजा मिलती है, उससे कई गुना बरी हो जाते हैं. बच्चों के बीच काम करने वाले नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी की संस्था की तरफ से ‘चिल्ड्रेन कैन नॉट वेट’ नाम से तैयार एक रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2016 तक पॉक्सो कानून के तहत बच्चों के यौन शोषण के जितने मामले दर्ज हुए हैं, उनकी सुनवाई पूरी होने में कई दशक लगेंगे.

इसी रिपोर्ट के मुताबिक, गुजरात में यौन शोषण के शिकार बच्चों को 55 साल बाद 2071 में इंसाफ मिलेगा तो यूपी और राजस्थान के बच्चों को 2026 तक इंसाफ मिल सकता है. दिल्ली, बिहार और महाराष्ट्र के मामले 2029 से 2030 के बीच निपटाए जा सकेंगे.

इसी से आप अंदाजा लगा लीजिए कि इस देश में न्याय प्रक्रिया की क्या हालत है. चुनिंदा घटनाओं के फास्ट फैसलों को नजीर मानकर गफलत में मत रहिए. इसलिए सरकार अगर वाकई ऐसे जघन्य अपराध के मामलों में संजीदा है तो उसे सबसे पहले अपने सिस्टम का नट-बोल्ट टाइट करना होगा.

समाज भी तो कुछ करे

समाज के लिए बहुत बड़ा टास्क है कि कैसे हर घर परिवार अपने बेटे को ऐसी परवरिश दे, उसके भीतर बेटियों की इज्जत करने वाली ऐसी भावना पैदा करे कि वो बलात्कारी न बन सकें.

फांसी के खिलाफ तर्कों से असहमत

आखिर में बात फांसी के खिलाफ तर्क देने वालों की. ऐसे तर्कशीलों का एक तर्क ये भी है कि फांसी के डर से कई मामलों में अपराधी रेप के बाद लड़की की हत्या कर देंगे, ताकि उसकी गवाही न हो सके. एक तर्क ये भी है कि इतने कड़े कानून के बाद कई मामलों में पीड़ित बच्ची के परिवार वाले केस दर्ज कराने से हिचकेंगे, क्योंकि बलात्कारी उनका कोई परिचित या रिश्तेदार हो सकता है. जिसे फांसी तक पहुंचाने के लिए वो खुद तैयार न हों.

तर्क ये भी है कि जिन अपराधों में जिस भी देश में फांसी का प्रावधान है, वहां वैसे अपराध कम हुए हैं क्या? इन सवालों और तर्कों की वाजिब वजहें हो सकती हैं, लेकिन फिलहाल तो एक सख्त कानून बना है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए.

(अजीत अंजुम सीनियर जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. )

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