उरी हमले और उसके बाद भारतीय सेना की एलओसी के उस पार जवाबी कार्रवाई ने चुनावमय पंजाब के हालात ने एक नया रोचक मोड़ ले लिया है. अकाली-बीजेपी का गठबंधन, जो कि विरोधी लहर का सामना कर रहा था, अब इस फैसले का क्रेडिट ले रहा है. उसे उम्मीद है कि वह इससे अपनी खोई साख को वापस पा लेगा.
पंजाब की सीमा पाकिस्तान से जुड़ी है, इसलिए यह सुरक्षा की दृष्टि से रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है. इस तरह राज्य के मतदाता उन क्षेत्रीय पार्टियों को वोट देने से पहले दो बार सोचेंगे, जिनकी पाकिस्तान को लेकर कोई नीति नहीं है.
'आप' पंजाब में तीसरे मोर्चे के तौर पर उभरा
राज्य में 'आप' के पास चार सीटें हैं और लगभग कुल चुनावी मतों का एक-चौथाई सुरक्षित है. 13 प्रतिशत कांग्रेस के पुराने समर्थकों और 17 प्रतिशत एसएडी-बीजेपी के समर्थकों ने 'आप' को वोट दिया (सीएसडीएस के अनुसार). 'आप' को कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की विरोधी लहर और साथ ही राज्य में एसएडी-बीजेपी सरकार से लोगों की निराशा का लाभ मिला.
हालांकि पिछले कुछ महीनों में घटित घटनाओं तथा हाल ही के उरी हमले के बाद राज्य में 'आप' के नेतृत्व को तगड़ा झटका लगा है.
इस पोस्ट में हम आपको पांच कारण बताएंगे कि क्यों 'आप' पंजाब चुनाव को जीतने में सफल नहीं हो सकती है.
1. पंजाब में उरी का प्रभाव
भारत की एलओसी के उस पार सर्जिकल स्ट्राइक के बाद, 6 जिलों में फैले 16 निर्वाचन क्षेत्रों (जो कि कुल सीटों का 14 प्रतिशत है) की सीमा से सटे गांवों को खाली कराया जा रहा है. अकाली-बीजेपी इस ठोस कदम के लिए खुद की पीठ थपथपा रहे हैं, जबकि कांग्रेस युद्ध जैसी स्थिति के भ्रम को फैलाने का आरोप लगा रही है. अगर पुर्नवास बेहतर ढंग से हुआ और लोग बेहतर ढंग से रहने लगे, तो इससे वर्तमान सरकार को लाभ मिलेगा.
कांग्रेस मुख्य रूप से एक त्रिशंकु चुनाव में मतदान प्रभावित करने वाली 16 सीटों पर होने वाले नुकसान से परिचित है.
हालांकि कश्मीर में तनाव नवंबर के बाद सर्दी के कारण कम हो जाएगा और केन्द्र सरकार का ध्यान अर्थव्यवस्था की ओर चला जाएगा, इसलिए यह मुश्किल ही लगता है कि उरी और उससे जुड़ी सर्जिकल स्ट्राइक अगले साल फरवरी में होने वाले चुनाव पर कुछ असर डालें.
2. 'आप' का दिल्ली में बेकार ट्रैक रेकॉर्ड
दिल्ली चिकनगुनिया और डेंगू के बहुत बड़े खतरे से जूझ रही है. 'आप' सरकार के मंत्रियों की गैर-मौजूदगी ने (केजरीवाल और सिसोदिया भी शामिल) मामले को और भी खराब कर दिया.
दिल्ली में 'आप' सरकार के प्रदर्शन ने पंजाब के सामान्य उन मतदाताओं के मन में अनिश्चितता पैदा कर दी, जो कि आर्थिक वृद्धि और ड्रग से जुड़ी समस्याओं से पहले से ही पीछा छुड़ा रहे हैं. पार्टी दिल्ली में एकतरफा जीत के बाद इस अवसर को भुना सकती थी. वे पहले दिल्ली को एक मॉडल राज्य के रूप में विकसित करते, फिर लोगों के पास जाकर अपने प्रदर्शन के आधार पर वोट मांग सकते थे.
3. मुख्यमंत्री उम्मीदवार की कमी
जहां कांग्रेस और एसएडी ने अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार को कमोबेश घोषित कर दिया है, 'आप' अभी भी इस सवाल का हल खोज रही है कि 2017 के चुनाव में पार्टी को नेतृत्व कौन प्रदान करेगा. पंजाब में अभी तक किए गए ज्ञात सभी सर्वे में केजरीवाल को पसंदीदा उम्मीदवार के तौर पर देखा जा रहा है. पार्टी के पास केजरीवाल के अलावा कोई अन्य बेहतर उम्मीदवार नहीं है. यह बात वोटरों को 'आप' से दूर ले जा सकती है, जो कि पुराने नेता कैप्टन अमरिंदर और बादल को वोट देने में ज्यादा सुरक्षित महसूस करेंगे.
केजरीवाल का गैर-सिख होना भी राज्य में उनके खिलाफ जाता है, जिसमें हमेशा से इसी समुदाय का उम्मीदवार मुख्यमंत्री चुना गया है.
पंजाब में 'आप' के चारों सांसदों ने मालवा क्षेत्र से चुनाव जीता था. पंजाब की 117 सीटों में से 69 मालवा से हैं और बाकी 48 दोआबा और माझा क्षेत्र से हैं, जिसमें इनकी पहुंच न के बराबर है. मालवा बहुत महत्वपूर्ण है और सिर्फ एक बार पंजाब में मालवा के अतिरिक्त किसी दूसरे क्षेत्र से मुख्यमंत्री चुना गया है. इस क्षेत्र से इनके चार में से दो सांसदों को निलंबित किया जा चुका है. ये निलंबन मतदाताओं के मन में कुछ शंका पैदा करेगा, जिन्होंने 2014 में इन्हें वोट दिया था.
4. कांग्रेस की पूरी तैयारी
दूसरी तरफ, कांग्रेस में मुख्यमंत्री उम्मीदवार को लेकर बड़ी एकजुटता देखने को मिलती है. यह पूछे जाने पर कि पिछले 20 वर्षों में पंजाब का सबसे बेहतरीन मुख्यमंत्री कौन रहा, 40% लोगों ने अमृतसर से सांसद कैप्टन अमरिंदर सिंह का नाम लिया. पार्टी ने कार्यकर्ताओं को जमीन पर उतारने का भी काम पूरा कर लिया है. इससे बिल्कुल यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि वे पंजाब जीत लेंगे, लेकिन इससे वोटर्स को जरूर एक संदेश जाता है कि वे पंजाब पर शासन करने के लिए 'आप' से बेहतर तैयार हैं, इसलिए वे विरोधी लहर के वोट जीत सकते हैं.
5. विरोध लहर के वोटों में बंटवारा
मुख्य रूप से दो ध्रुवीय यह चुनाव अब एसएडी, कांग्रेस और 'आप' के बीच त्रिशंकु बन चुका है. सिद्धू भी 'आप' या कांग्रेस को समर्थन देंगे (यह अभी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है). इसके अलावा बीएसपी, राज्य में पारंपरिक तौर पर 4 से 5 प्रतिशत वोट प्राप्त करने में सफल होगी, क्योंकि राज्य की 32% से जनसंख्या दलित वर्ग से आती है.
ऊना और शेष भारत में हाल ही में हुई दलित विरोधी घटनाओं ने मायावाती के पक्ष में दलितों के वोटों को और थोड़ा मजबूत किया है.
आगे 'आप' के लिए पहाड़ तोड़ने जैसा काम
हालांकि 'आप' ने दिल्ली में पानी, बिजली, भ्रष्टाचार में कमी, मोहल्ला क्लीनिक्स जैसे कुछ बढ़िया काम किए हैं, लेकिन उपराज्यपाल के साथ इनके लगातार विवाद और दिल्ली की सभी परेशानियों को केन्द्र के ऊपर आरोप लगाकर बेचारा बनने से अब आगे काम नहीं चलेगा. लोग इस तरह की बयानबाजियों से तंग आ चुके हैं.
अधिकतर सर्वे में 10 प्रतिशत पॉइंट के अंतर के साथ ऐसा कहा जाता है कि पार्टी दिल्ली में कई सुधार लाकर, पंजाब में मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करके और पंजाब में पार्टी संगठन को दोबारा संगठित करके अपनी छवि को साफ कर सकती है. इसको पाकिस्तान को लेकर अपनी नीति भी स्पष्ट करनी चाहिए. साथ ही वह मतदाताओं को संतुष्ट करे कि वह केन्द्र सरकार के साथ सुरक्षा से जुड़े मसलों पर कंधे से कंधा मिलाकर चल सकती है.
क्या 'आप' इन सभी बदलावों को लाने में सक्षम होती है? इसी से यह तय होगा कि क्या पार्टी पंजाब में अंतिम रूप से जीत सकती है.
(इस आलेख को अमिताभ तिवारी और सुभाष चंद्रा ने लिखा है. ये स्वतंत्र राजनीतिक टिप्पणीकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)