कई लोगों का कहना है कि भारतीय जनता पार्टी (BJP) सिर्फ अगड़ी जातियों की पार्टी होने से बेहतर हुई है. 2014 के बाद बीजेपी एक छतरी संगठन के तौर पर उभरी है जो दलित-बहुजन वर्गों को अपनी राजनीतिक लामबंदी का एक प्रभावी हिस्सा बनने की ‘अनुमति’ देती है. बीजेपी ने स्मार्ट-सामाजिक-सांस्कृतिक रणनीति को लागू कर दलितों के अंदर के वर्गों को प्रभावित किया है. इसके अलावा बाबा साहेब अंबेडकर को एक राष्ट्रवादी प्रतीक बना कर और सामाजिक न्याय की नीतियों की रक्षा में संवैधानिक जनादेश के पालन करने का वादा कर दक्षिण-पंथ ने दलितों के साथ एक प्रभावशाली संबंध बनाया है.
हालांकि जातिगत अत्याचारों का बढ़ना और दलित कार्यकर्ताओं के खिलाफ बढ़ती पुलिस कार्रवाई दिखाती है कि दलित एजेंडा के साथ निपटने में ईमानदारी की कमी है. इसके बदले, अंबेडकरवादी दलित कार्यकर्ताओं के खिलाफ भावनात्मक मुद्दे उठा कर उनके खिलाफ एक व्यवस्थित सार्वजनिक प्रतिरोध का निर्माण किया जा रहा है.
स्नैपशॉट
जिस तरह मुस्लिम मुद्दे हिंदुत्ववादी ताकतों को सांप्रदायिक ‘एकता’ बनाने में मदद करते हैं, सामाजिक स्तर पर दलितों को ‘अलग-थलग’ करना दक्षिण-पंथियों को अपने पारंपरिक आधार को मजबूत करने में मदद करता है.
मौजूदा बीजेपी सरकार अंबेडकर को उनके उग्र सुधारवादी और क्रांतिकारी विचारों से अलग कर सिर्फ एक प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करती है.
हिंदू दक्षिण-पंथ जागरूक दलित एजेंटों को ‘सामाजिक अन्य’ के रूप में पेश करते हैं.
ये उम्मीद करना कि इस तरह के हिंदुत्व के सिद्धांत पर चलने वाली इस तरह की सरकार दलितों की समस्याओं और जाति की चिंताओं के बारे में एक संवेदनशील चर्चा की सुविधा प्रदान करेगा, खयाली पुलाव पकाने जैसा है.
हिंदुत्व खेमे के लिए एक मजबूत दलित का विचार जो एक मजबूत सामाजिक-राजनीतिक चेतना रखता है और पारंपरिक सत्ता को चुनौती देने के लिए तैयार है, जैसा कि अंबेडकर ने किया था, हमेशा से एक खतरा रहेगा
क्या कांग्रेस दलितों के मुद्दे पर ज्यादा संवेदनशील थी?
दलित आंदोलन अंबेडकर के सामाजिक विचारों और राजनीतिक विचारों से प्रेरित हुआ है. जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था, हिंदू धर्म, पितृसत्ता और पुराने संस्कृत ग्रंथों पर उनका लेखन और भाषण भारत में अछूतों की खतरनाक स्थिति को समझने के लिए एक तर्कसंगत और गंभीर बहस की शुरुआत करते हैं. अंबेडकर को न सिर्फ उनके सुधारवादी तेवर के लिए जाना जाता है जिसने जाति व्यवस्था को चुनौती दी बल्कि क्रांतिकारी बदलाव वाली सोच के लिए भी जाना जाता है. उन्होंने उस मूलभूत ढांचे के पूरी तरह से खत्म होने की कल्पना की जिस पर हिंदू जाति की व्यवस्था खड़ी हुई है.
अंबेडकर के बौद्ध धर्म अपनाने को एक ‘क्रांतिकारी कदम’ के तौर पर देखा गया. उन्होंने शपथ ली कि बौद्ध धर्म अपनाने वाले नए लोग सामाजिक प्रथाओं, हिंदू देवी-देवताओं और ब्राह्मण पुजारी के प्रति नास्तिक के जैसी दूरी रखेंगे और उनकी आलोचनात्मक पड़ताल करेंगे. अपने लेख और भाषणों में अंबेडकर ने बिना किसी डर के सामाजिक नीति बनाने में हिंदू धार्मिक किंवदंतियों और विचारों की व्यावहारिकता की जांच की और फटकार लगाई. उन्होंने पूर्व ‘अछूतों’ का कद बढ़ाया और उन्हें मजबूत राजनीतिक एजेंट बनने में मदद की, जिससे उन्हें अपने आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों का बिना डरे दावा करने की प्रेरणा मिली.
अहम ये है कि कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रवादी उच्च वर्ग ने अंबेडकर की आलोचनात्मक जांच को हिंदू व्यवस्था को खराब करने वाले सामाजिक वायरस की जांच के लिए एक उचित नजरिए के रूप में देखा.
संविधान के निर्माण में अंबेडकर की अहम भूमिका से पता चलता है कि बड़े राजनेता जाति की समस्याएं को समझने में रुचि रखते थे और अश्पृश्यता की क्रूर प्रथा को खत्म करना चाहते थे.
दलित उग्र सुधारवादी मुख्य धारा में कैसे शामिल हुए
अंबेडकर के बाद सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन ने अंबेडकर के उग्र सुधारवाद की शुरुआत की और इसे नई जिंदगी दी. अंतिम राजनीतिक पार्टी, जो अंबेडकर ने बनाई, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया ने कमजोर जातियों और समुदायों को इकट्ठा करने के लिए धर्मनिरपेक्ष या बौद्ध प्रतीकों का इस्तेमाल किया और जो दलित हिंदू परंपराओं और प्रथाओं के प्रति निष्ठा बनाए रखते थे, उनकी आलोचना की. 1970 के दशक के अंत में द दलित पैंथर्स आंदोलन ने एक क्रांतिकारी घोषणापत्र प्रकाशित किया जिसमें सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों पर सामाजिक उच्च वर्ग के आधिपत्य की निंदा की गई और निचली जातियों को अमानवीय बनाने के लिए धार्मिक ग्रंथों को चुनौती दी गई. उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी (BSP) के आगमन ने हिंदू समाज व्यवस्था की ओर आलोचनात्मक रुख को और बढ़ा दिया और सामाजिक उच्च वर्ग के प्रभाव को कम कर दिया.
कई सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में दलित आंदोलनों ने उनकी संकट से भरी सामाजिक स्थिति, जातिगत भेदभाव के मुद्दों और आर्थिक उत्पीड़न को जनता के सामने लाया और एक तार्किक और कट्टर विपक्ष की भूमिका निभाई. कांग्रेस का शासन भले ही दलित आलोचकों को लेकर आशंकित था लेकिन उनके खिलाफ वारंट जारी करने और उन्हें ‘शत्रु कैंप’ का बताने से परहेज किया. इसके बदले कई लोकप्रिय दलित कट्टरपंथी मुख्य धारा की राजनीति में शामिल हुए (सिर्फ कांग्रेस नहीं बल्कि शिव सेना में भी- क्रांतिकारी कवि नामदेव धसल शिव सेना में शामिल हुए थे).
हिंदुत्व का दलित एजेंडा क्या है?
लेकिन हिंदुत्व के सिद्धांत पर चलने वाली मौजूदा सरकार ने उसी तरह की संवेदनशीलता नहीं दिखाई है. ये सरकार अंबेडकर का इस्तेमाल उनके सुधारवादी और क्रांतिकारी विचारों से अलग कर केवल एक प्रतीक के तौर पर करती है. आज दलितों के विरोध-प्रदर्शन की अक्सर असभ्य, आपराधिक या यहां तक की ‘राष्ट्र-विरोधी’ कहकर भी निंदा की जाती है. आनंद तेलतुंबडे जैसे विद्वान और सामाजिक कार्यकर्ता की गिरफ्तारी दलित सक्रियता के प्रति सरकार के बढ़ते विरोध को दिखाती हैं. हाल ही में, पुलिस ने लखनऊ यूनिवर्सिटी के एक दलित फैकल्टी सदस्य के खिलाफ धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोप में केस दर्ज किया. इसी तरह, दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रतिष्ठित हिंदू कॉलेज के प्रोफेसर रतन लाल को ज्ञानवापी मस्जिद विवाद में एक व्यंग्यपूर्ण सोशल मीडिया पोस्ट करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया.
जब दलित सामाजिक-राजनीतिक दावों से निपटने की बात आती है तो दक्षिण पंथ थोड़ा असंवेदनशील है. राज्य के संस्थानों में दलितों की वास्तविक साझेदारी सुनिश्चित करने के लिए या जाति अत्याचार की समस्याओं की जांच करने वाली नीतियों को लागू करने के लिए ये शायद ही कोई रास्ता तैयार करता है. इसके बदले ये अक्सर जातिगत हिंसा करने वालों का समर्थन करता है और जब दलित गुस्से में विरोध-प्रदर्शन करते हैं तब दमनकारी कार्रवाइयों का समर्थन करता है.
अप्रैल 2018 में उपेक्षित समुदाय के 14 लोगों की मौत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार की रोकथाम) ऐक्ट 1989 के समर्थन में प्रदर्शन में शामिल होने के दौरान पुलिस की कार्रवाई में हो गई. दलित त्रासदियों के प्रति सरकार की उदासीनता रोहित वेमुला केस, उना कोड़े मारने का मामला, भीमा-कोरेगांव प्रदर्शन आंदोलन और हाथरस बलात्कार-हत्या के मामले में और ज्यादा दिखाई देती है.
इसके अलावा हाल ही में बिना किसी आधार के विधायक जिग्नेश मेवाणी की गिरफ्तारी सिर्फ इस तथ्य को रेखांकित करती है कि दलितों के मुद्दों और कार्यकर्ताओं के खिलाफ बीजेपी सरकार ने एक बदले की भावना वाली मानसिकता विकसित की है.
हिंदुत्व के समर्थक अक्सर दलित-बहुजन की आवाज को अधार्मिक कह कर नीचा दिखाते हैं या उन्हें हिंदू सभ्यता के लोकाचार के खिलाफ अवमानना के तौर पर देखते हैं. हिंदू दक्षिण-पंथ जागरूक दलित एजेंटों को ‘सामाजिक अन्य’ के रूप में पेश करते हैं. जिस तरह मुस्लिम मुद्दे हिंदुत्ववादी ताकतों को सांप्रदायिक ‘एकता’ बनाने में मदद करते हैं, सामाजिक स्तर पर दलितों को ‘अलग-थलग’ करना दक्षिण-पंथियों को अपने पारंपरिक आधार को मजबूत करने में मदद करता है.
‘अधीनस्थ’ हिंदुत्व की मरीचिका
अंबेडकर के बाद दलित आंदोलन गैर बाह्मणवादी परंपराओं की समृद्ध विरासत से संबंधित है और सामाजिक न्याय के आधुनिक संवैधानिक मूल्यों को कायम रखता है. दलित-बहुजन विचार बौद्ध सिद्दांतों के पूरक हैं, गुरु नानक, कबीर और चोखा मेला की समतावादी सीख की शुरुआत करते हैं और महात्मा ज्योदिबा फुले, पेरियार और अबंडेकर के सुधारवादी विचारों से प्रेरणा लेते हैं. इस तरह की विचारधारा ज्ञान के वैकल्पिक स्रोत और गतिशील उदार दृष्टिकोण प्रदान करती है जो नए भारत के लोकतांत्रित ताने-बाने को समृद्ध करती है. ये परिवर्तनकारी वैचारिक स्प्रेट्रम है जो दलित-बहुजन जनता को गरीब, सत्ता से अलग और सामाजिक संबंधों में गरिमाहीन रखने के लिए सत्तारूढ़ सामाजिक-राजनीतिक अभिजात वर्ग की लगातार आलोचना करता रहा है.
हिंदुत्व समर्थकों के लिए दलित-बहुजन वैचारिक स्कूल एक नापसंद करने वाली चीज है और उस पर जबरदस्ती और हिंसक तरीके से काबू पाया जाना चाहिए.
हालांकि बीजेपी ने अपने सामाजिक आधार को बढ़ाने के लिए दलित निर्वाचन क्षेत्रों को अपनाया है, ये केवल एक राजनीतिक रणनीति है जिसका इन समूहों की स्थितियों को बदलने के लिए बहुत कम प्रभाव या परवाह है.
ये उम्मीद करना कि इस तरह के हिंदुत्व के सिद्धांत पर चलने वाली इस तरह की सरकार दलितों की समस्याओं और जाति की चिंताओं के बारे में एक संवेदनशील चर्चा की सुविधा प्रदान करेगा, खयाली पुलाव पकाने जैसा है. हिंदुत्व खेमे के लिए एक मजबूत दलित का विचार जो एक मजबूत सामाजिक-राजनीतिक चेतना रखता है और पारंपरिक सत्ता को चुनौती देने के लिए तैयार है, जैसा कि अंबेडकर ने किया था, हमेशा से एक खतरा रहेगा.
(डॉ. हरीश एस वानखेड़े सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज, जेएनयू, नई दिल्ली में पढ़ाते हैं. वे पहचान की राजनीति, दलित प्रश्न, हिंदी सिनेमा और न्यू मीडिया पर लिखते हैं. यह एक राय है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. . क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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