दलित केंद्रित फिल्मों (Dalit Centric Films) ने अब एक नया मोड़ ले लिया है. OTT उसका धरातल तैयार कर रहे हैं. हाल ही में प्राइम वीडियो पर रिलीज, दहाड़ और नेटफिल्क्स पर रिलीज कटहल से यह साफ होता है. इन दोनों प्रस्तुतियों में प्रोटैगनिस्ट, यानी मुख्य पात्र दलित महिला है. दोनों अपनी ही बिरादरी की लापता लड़कियों की तलाश कर रही हैं. आरोपी तथाकथित अगड़ी जाति का है. इस कहानी के बीच जातिगत गैरबराबरी की परतें उधड़ती जाती हैं. काम की जगहों पर रोजमर्रा होने वाला भेदभाव दिखाई देता है. दहाड़ की अंजली भाटी (सोनाक्षी), और कटहल की महिमा बसोर (सान्या) पढ़ी-लिखी हैं, और पुलिस की आला अफसर, लेकिन फिर भी जातीय श्रेष्ठता और उसके अधिकार के अहंकार की शिकार हैं.
दलित बहुजन अब दीन हीन नहीं
यूं हिंदी फिल्मों ने एक लंबा सफर तय किया है. कहानियों के सैकड़ों पन्ने पलटे जा चुके हैं. तभी 1959 में बिमल रॉय की दलित सुजाता अब फिल्मों में दीन हीन नहीं. न ही किसी सेवियर की तलाश में है. जैसा कि दहाड़ की अंजली कहती है कि किसी मर्द की आस में रहना, हमारी जाति की लड़कियों के लिए सबसे बड़ी भूल है. उनके परिवारों की भी. उन्हें मेरी तरह अपनी रक्षा खुद ही करनी होगी. यूं यह सफर चालीस के दशक से जारी है. लेकिन तब फिल्मी कहानियों में इतनी साफगोई नहीं थी कि दलित विमर्श को मुख्यधारा में लातीं.
हिंदी फिल्मों में लंबा सफर
1934 में नितिन बोस की चंडीदास और 1935 में वी. शांताराम की धर्मात्मा में जातिगत भेदभाव का जिक्र था. फिर 1936 में अछूत कन्या में नायिका दलित थी, और किसी उद्धारक के इंतजार में भी. यह प्रवृत्ति आजादी के बाद 60 के दशक में सुजाता और 1961 की गंगा जमुना में भी दिखाई दी. इन फिल्मों में जाति का मुद्दा पॉपुलर नेरेटिव का हिस्सा था, और सत्तासीन वर्गों का लोकप्रिय सुधारवादी विमर्श. 70-80 में दलित, बहुजन इस पूरे फ्रेम से लगभग गायब रहे. हां, समानांतर सिनेमा में श्याम बेनेगल एक अलग सोच लेकर आए. उनकी 1974 की अंकुर, 1975 की निशांत और 1976 की मंथन ने ग्रामीण इलाकों में फैले भेदभाव को परदे पर उतारा. फिर 1980 में गोविंद निहलानी की आक्रोश ने बताया कि जब आदिवासी और गरीब लोगों को अधिकारों से वंचित किया जाता है तो हिंसा को रोकना नामुमकिन होता है. इस बीच मृणाल सेन की मृगया (1977) और प्रकाश झा की दामुल (1985) में भी जाति का प्रश्न और राज्य के जीवन पर कब्जे के सवाल उठाए गए. प्रकाश झा की ही आरक्षण भी ऐसे ही सवाल लेकर आई. लेकिन इनमें से ज्यादातर फिल्में उस वर्ग के लोगो की प्रस्तुतियां नहीं थीं. इसीलिए कहानी के केंद्र में ठोस दलित विमर्श नदारद था.
असल बदलाव लेकर आए नीरज घेवान और नागराज मंजुले जैसे फिल्मकार. नीरज घेवान की मसान (2015) और नेटफिल्क्स पर रिलीज गीली पुच्ची (2021), और मराठी फिल्मकार नागराज मंजुले की हिंदी फिल्म झुंड (2022), सच्चे मायने में प्रतिनिधित्व के साथ-साथ आपबीतियां सी महसूस होती हैं.
जैसा कि आउटलुक में एक टिप्पणीकार ने नेटफ्लिक्स की फिल्म थार (2022) के कैरेक्टर भूरे का जिक्र किया था. सतीश कौशिक ने भूरे का किरदार निभाया था. एक सीन में भूरे अपने सीनियर अफसर से कहता है कि यूनिफॉर्म कम से कम मेरी जाति को तो ढंक लेती है. टिप्पणीकार ने लिखा था कि अगर तमिल में यह फिल्म पा. रंजीत या मारी सेलवराज ने बनाई होती तो उस फिल्म का नाम भूरे होता, और सतीश कौशिक उस फिल्म के हीरो होते. जाहिर सी बात है, मसान और झुंड जैसी फिल्में अपर कास्ट गेज से नहीं, दलित फिल्मकारों की नुमाइंदगी से बन रही हैं. और इसीलिए आर्टिकल 15 से इतनी अलग हैं, क्योंकि वहां कोई अपर कास्ट किरदार सेवियर नहीं बनता.
तमिल फिल्मों की परंपरा
पा. रंजीत का जिक्र आने पर तमिल फिल्मों की एक पूरी फेहरिस्त सामने आ जाती है. करनन (2021), असुरन (2019), सरपट्टा परमबराई (2021), मादेथी- अन अनफेयरी टेल (2019), पारियेरुम पेरुमल (2018), जय भीम (2021), काला (2018), इरादम उलागोपोरिन कदाएसी गुंडू (2019). समाज के निचले तबके के लोग जिस उत्पीड़न का सामना करते हैं, उसे इन फिल्मों में बहुत क्रूरता से दिखाया गया. दरअसल जब राजनीति में दलितों की मौजूदगी बढ़ती है तो फिल्मकार भी प्रतीकों और उपमाओं के जरिए अपनी राय पेश करते हैं.
ऐसा पहले नहीं था. 50 के दशक के पहले ज्यादातर तमिल फिल्मों में अपरकास्ट के नेरेटिव्स ज्यादा थे. लेकिन धीरे धीरे हवा का रुख बदलने लगा. 1949 की नालाथंबी बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर से प्रेरित होकर बनाई गई. इसके बाद 1949 की कृष्णाभक्ति में देवदासी प्रथा पर चोट की गई.
मशहूर इतिहासकार एमएसएस पंडियन ने अपनी किताब द इमेज ट्रैप में लिखा है कि सिनेमा हॉल ऐसे पहले कला प्रदर्शन केंद्र बने जिनमें सभी तमिल लोग एक ही छत के नीचे एक साथ बैठते थे. वरना इससे पहले ग्रामीण इलाकों में किसी भी सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान लोगों को अपनी जाति के हिसाब से अलग-अलग जगहों पर बैठना पड़ता था.
इस दौरान द्रविड़ आंदोलन ने भी जोर पकड़ा. इसके बाद 1954 की पेन, 1956 की मदुरै वीरन और थैकू पिन थारम, 1961 की थायिला पिल्लै ने जाति की गहरी धंसी जड़ों और न्याय के संघर्ष को दर्शाया. तमिल फिल्म समीक्षक ने द न्यू इंडियन एक्सप्रेस के एक इंटरव्यू में कहा है कि इन सबके बावजूद ऐसी फिल्मों को वह सफलता नहीं मिली. इसकी वजह शायद यह भी रही कि इन फिल्मों में दलित को कमजोर या अक्खड़ दिखाया जाता था. और दूसरे लोग उनकी गरिमा और समानता की लड़ाई लड़ते थे. लेकिन दलितों के नजरिये से जब फिल्में बनाई गईं, तो लोगों ने पसंद कीं. इसीलिए पा. रंजीत और मारी सेलवराज जैसे निर्देशकों की फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर भी अच्छा रिस्पांस मिला.
तेलुगू, कन्नड़, मलयालम में फिल्मकार बचते रहे इन मुद्दों से
इसी तरह तेलुगू और कन्नड़ फिल्मों में भी दलितों के नजरिए से फिल्में कम ही बनीं. तेलुगू में इंटरकास्ट रिश्तों पर ज्यादातर फिल्में बनीं. एकैडमीशियन एलावर्थी सत्य प्रकाश ने अपनी किताब तेलुगू सिनेमा- अ कन्साइज हिस्ट्री में लिखा है कि वहां ज्यादात फिल्मों का नजरिया सुधारवादी ही थी. इंटरकास्ट प्रेम पर बनी पहली फिल्म थी 1938 की माला पिल्ला. इसके बाद दर्जनों फिल्में बनीं, जिनकी कहानियां जाति से इतर प्रेम पर थीं, लेकिन नजरिया अगड़ी जाति वाला ही था. जैसे 1981 की सतपदी, 1992 की अपड़बंधावुडु और स्वाति किरनम, 1995 की शुभ संकल्प. इस बीच कुछ फिल्मों ने कुछ राहत दी, जैसे 1975 की पलासा और 2000 की जयम मनाडेरा. ये फिल्में दलित कैरेक्टर के नजरिए से बनाई गई थीं. इसके अलावा 2018 की केयर ऑफ कंचारापेम, 2019 की दोरासानी, 2020 की कलर फोटो, 2021 की उपेना और लव स्टोरी भी इसी श्रृंखला की फिल्में हैं.
दूसरी तरफ कन्नड़ फिल्म उद्योग में दलित विमर्श पर फिल्में बनाने से लोग आम तौर पर कतराते ही हैं. जैसे दलित साहित्यकार देनवानुरू महादेव की कहानी ओदलाला पर फिल्म बनाने के लए चैतन्य के एम को निर्माता ही नहीं मिला. इसी तरह कन्नड़ के लोकप्रिय सिनेमा में जाति का सीधा जिक्र न के बराबर हुआ. हां, कन्नड़ में समानांतर सिनेमा ने कुछ राह दिखाई. जैसे 1970 की संस्कारा, 1977 की घटश्रद्धा और 1978 की ग्रहण. इनमें जातिभेद को बहुत बारीकी से पेश किया गया था.
इसी तरह मलयालम फिल्मों में जाति के सवालों से अक्सर बचा गया. मेनस्ट्रीम मलयालम सिनेमा में ब्राह्मणवादी परंपराओं और सवर्णों की खूबियों की तरफदारी की गई. हां, वहां कई दलित एक्टर्स सिनेमा में छाए रहे. जैसे कलाभवन मणि और विनायक. लोकिन इन्होंने परदे पर दलितों के पॉपुलर स्टीरियोटाइप्स को ही जीवित रखा. 2013 में के चेरियन की पापिलियो बुद्धा को अपवाद कहा गया है, जिसमें गांधीवाद और लेफ्ट की राजनीति को निशाना बनाया गया कि उसने दलित मुद्दों पर कभी ठोस बातचीत नहीं की.
मराठी फिल्में शुरुआत से प्रगतिशील
दूसरी तरफ मराठी भाषा की कुछ फिल्में इस लिहाज से काफी अलग हैं. नागराज मंजुले की लोकप्रिय फिल्म सैराट और फैंड्री से पहले जब्बार पटेल ने कई शानदार फिल्में बनाई हैं. वैसे आजादी से पहले व्ही शांताराम की धर्मात्मा (1935) और मानुस (1939) में जातिगत भेद का कुछ जिक्र जरूर था, लेकिन फिर मानो यह लहर रुक सी गई. सत्तर के दशक में महाराष्ट्र में सांस्कृतिक पुनर्जागरण और मराठी कवि नामदेव धसाल के दलित पैंथर्स ने जब्बार पटेल जैसे फिल्मकार को प्रोत्साहित किया. उनकी 1974 की सामना, 1977 की जैत रे जैत, 2000 की अंबेडकर ऐसी ही फिल्में थीं. 2015 में चैतन्य तमहाने की फिल्म कोर्ट भी जिसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. इसके बाद मराठी सिनेमा में आपबीतियो का दौर शुरू हुआ. नागराज मंजुले की 2013 की फैंड्री, 2016 की सैराट, भाउराव करहाडेल की 2015 की क्वाडा, धीरज मेशराम की 2013 की बारोमास, जैसे उन फिल्मकारों के साथ हुए भेदभाव की अपनी कहानियां हैं, जो उन्होंने अपनी जाति के कारण झेलीं.
दलित विमर्श पर बनी फिल्मों में कहानियों की पृष्ठभूमि बदल गई है. देश में सामाजिक राजनैतिक परिवेश बदला है तो कहानियां का स्वरूप भी. आरक्षण से दलित, बहुजन मुख्यधारा में आया है. नौकरियां मिली हैं तो फिल्मी कहानियां का परिवेश भी. अब कहानियों में काम करने की जगहों पर भेदभाव के रोजमर्रापन में शामिल होने के दृश्य हैं, तो दलित बहुजन का उसे झटकने, उसका विरोध करने का निश्चय भी.
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