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डियर NCERT, भारत के छात्रों को कौन सा इतिहास पढ़ना चाहिए? ऐसा जो वोट दिला सके?

NCERT का प्रमुख एजेंडा अधिकांश पाठ्यपुस्तकों से मुस्लिम/मुगल इतिहास को कम करना है?

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मौजूदा समय के अग्रणी इतिहासकारों में से एक एरिक हॉब्सबॉम की एक बात काफी प्रसिद्ध है. उन्होंने कहा था "जिस तरह से हेरोइन (ड्रग्स) की लत के लिए अफीम कच्चा माल है उसी तरह राष्ट्रवादी या जातीय या कट्टरपंथी विचारधाराओं के लिए कच्चा माल इतिहास है." आज के हमारे नव-राष्ट्रवादी ठीक ऐसा ही कर रहे हैं. अतीत के प्रति सनक होने की वजह से मौजूदा समय में जो कुछ गलत हो रहा है उसके लिए ये अतीत को जिम्मेदार ठहराते हैं.

उन्हें लगता है कि हमारी पीढ़ी की युवा महिलाएं/पुरुष पर्याप्त राष्ट्रवादी नहीं हैं क्योंकि हमारे युवाओं को मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले "राष्ट्रवादियों" के बजाय आक्रमणकारियों का इतिहास पढ़ाया गया था. व्यक्तिगत "राष्ट्रवादी" के बारे में भूल जाओ, हिंदू नायकों को पढ़ें, यहां तक ​​कि 'हमारे' राजवंशों को भी पाठ्यक्रम में कोई जगह नहीं मिली, जबकि आक्रमणकारी मुगलों को उस स्थान पर जगह बनाने का गौरव मिला. यदि आप 'हमारे/हम' और 'उनके/वे' के आधार पर शुरूआत करते हैं तो निश्चित ताैर पर इतिहास को साफ करने की जरूरत है, वे सभी जो बाहर से आए हैं उनको हमारी पाठ्यपुस्तकों से हटा दिया जाना चाहिए.

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कौन से इतिहास को पढ़ने की हमें अनुमति है?

जो कुछ भी हो, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत एक ऐसी धरती रही है जहां सदियों से विविध जातियां, धर्म और संस्कृतियां आती रहीं और भारत की पहचान के साथ घुल-मिल गईं. अपनी पुस्तक अर्ली इंडियन्स Early Indians में टोनी जोसेफ ने इस बात को प्रभावशाली ढंग से कहा है. आज अपनेपन का दावा 'पितृभूमि' और 'पुण्यभूमि' के तर्क के जरिए किया जा रहा है, जिसमें हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम या ईसाई शामिल नहीं हैं.

इस प्रतिमान या विशिष्ट पैटर्न के भीतर हिंदुत्व के विचारकों ने हमें पहले ही उन लोगों के बारे में बता दिया है कौन यहां के हैं और उन्हीं के इतिहास को पढ़ाने की जरूरत है. सभी दूसरे लोग ऐतिहासिक मकबरे का हिस्सा रह सकते हैं लेकिन आने वाली पीढ़ियां अपनी पाठ्यपुस्तकों में इन 'दूसरे लोगों' से पूरी तरह अनजान होंगी. यह काफी हद तक उद्देश्य को पूरा करता है.

जैसा कि हमें यह पता होना चाहिए कि आजादी से पहले यहां ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन था और उससे पहले उस अवधि की अपनी सभी खूबियों और कमजोरियों के साथ यहां मुगलों का शासन था. ब्रिटिश इतिहासकारों और एशियाई संस्कृति व भाषा के लेखकों ने मुगलों को राक्षस बना दिया, उन्हें बर्बर बताया और इस बात के लंबे-चौड़े दावे किए कि अंग्रेज यहां हिंदुओं को मुगलों/मुसलमानों के शोषण से बचाने के लिए आए थे. निस्संदेह यह औपनिवेशिक सत्ता को सही ठहराने का एक चतुर प्रयास था.

वी ए स्मिथ जैसे कई औपनिवेशिक इतिहासकार और एलियट और डाउसन के कई खंड (वॉल्यूम) थे जिन्होंने हमारे इतिहास या अतीत की इस पक्षपातपूर्ण व्याख्या पर अकादमिक मुहर लगाई. अन्य लोगों की तरह हमारे हिंदू दक्षिणपंथी भी मैकाले का मजाक उड़ाते हैं. लेकिन उन्हीं मैकालयन्स द्वारा मुगलों की सांप्रदायिक और अवसरवादी व्याख्या में उन्हें काफी आनंद मिलता है.

स्नैपशॉट
  • 2014 से स्कूली पाठ्यक्रम में बड़े पैमाने पर बदलाव हो रहे हैं.

  • अतीत के प्रति सनक होने की वजह से मौजूदा समय में जो कुछ गलत हो रहा है उसके लिए अतीत को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है.

  • ब्रिटिश इतिहासकारों और एशियाई संस्कृति व भाषा के लेखकों ने मुगलों को राक्षस के तौर पर दिखाया: यह औपनिवेशिक सत्ता को सही ठहराने का एक चतुर प्रयास था.

  • सभी पाठ्यक्रमों में बदलाव करने पर जो फोकस है वह ध्रुवीकरण का सबसे बड़ा मुद्दा है. जिससे अधिकतम चुनाव लाभ मिलता है.

  • एनसीईआरटी NCERT समितियों के कम से कम 24 सदस्यों का आरएसएस से जुड़े संगठनों से सीधा संबंध है.

बीजेपी सरकारों द्वारा अतीत की दुहाई देने की सनक

2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से स्कूली पाठ्यक्रम में व्यापक बदलाव हो रहे हैं. यह बदलाव केवल इतिहास की किताबों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसमें कक्षा 6 से 12 तक की राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तकें भी शामिल हैं.

इंडियन एक्सप्रेस की पड़ताल के मुताबिक बदलाव केवल मध्यकालीन अतीत तक ही सीमित नहीं हैं, यहां तक कि हाल के असुविधाजनक अतीत को भी मिटाया जा रहा है. हमारी आने वाली पीढ़ियों को आपातकाल की ज्यादतियों के बारे में या 2002 की गुजरात हिंसा के बारे में भी नहीं पता होना चाहिए. उन्हें नर्मदा बचाओ आंदोलन, दलित पैंथर्स और भारतीय किसान यूनियन की जानकारी नहीं होनी चाहिए.

अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मोदी तक, बीजेपी सरकारें हमेशा अतीत को लेकर ज्यादा गंभीर रही हैं, खास तौर पर मध्यकालीन इतिहास को लेकर, जबकि इसी सनक की वजह से वर्तमान और भविष्य को, दाेनों को ज्यादातर नुकसान उठाना पड़ा है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान अर्थव्यवस्था और सामान्य शासन की स्थिति के बारे में मुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है. जैसा कि अक्सर होता है, भले ही अतीत या इतिहास वर्तमान राजनीतिक जरूरतों के अनुरूप न हो लेकिन यहां पर मैं हॉब्सबॉम के शब्दों पर ध्यान दिलाना चाहता हूं उन्होंने कहा था "यदि कोई उपयुक्त अतीत नहीं है, तो हमेशा इसका आविष्कार किया जा सकता है."

किसी भी परिस्थिति में यहां ऐतिहासिक तथ्यों का कोई महत्व नहीं है. एक सुविधाजनक और गौरवशाली अतीत बनाने के लिए उपयुक्त तथ्यों की कल्पना होनी चाहिए. "वर्तमान में जश्न मनाने के लिए कुछ भी नहीं है, ऐसे में अतीत एक गौरवशाली पृष्ठभूमि प्रदान करता है. "

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चुनावी फायदे के लिए पाठ्यक्रम में किए जा रहे हैं बदलाव

फिर भी सभी पाठ्यक्रमों में बदलाव करने पर जो फोकस है वह ध्रुवीकरण का सबसे बड़ा मुद्दा है. जिससे अधिकतम चुनाव लाभ मिलता है. इसके परिणामस्वरूप अधिकांश पाठ्यपुस्तकों से मुस्लिम/मुगल इतिहास को हटाना और घटाना एनसीईआरटी का प्रमुख एजेंडा बना हुआ है. और यह सब दो साल बाद कोविड काल के दौरान सीखने और सिखाने में जो कमी हुई उसकी वजह से पैदा हुए काम के बोझ को कम करने के लिए किया जा रहा है.

इसी तरह, जाति-आधारित भेदभाव के अधिकांश संदर्भ (जो एक ऐतिहासिक तथ्य थे और अब भी हमें कष्ट पहुंचाते हैं) हटा दिए गए हैं. इस इतिहास को पाठ्यपुस्तकों से मिटाया जा सकता है लेकिन यह हमारे अतीत का हिस्सा रहेगा. शुतुरमुर्ग जैसा हमारा व्यवहार जाति-आधारित नफरत को खत्म नहीं कर सकता जिसका सामना हमारा समाज हर एक दिन करता है.

हटाए गए कुछ विशिष्ट उदाहरणों पर आते हैं. मैं यह देखकर काफी हताश हो गया कि छात्राें को अल-बरूनी और उसके किताब-उल-हिंद के बारे में जानकारी देने वाले पैराग्राफ को हटा दिया गया. ऐसा प्रतीत होता कि इसे इसलिए हटाया गया क्योंकि वह महमूद गजनवी के दल का हिस्सा था. अल-बरूनी एक विद्वान थे जो अपने पीछे उस काल के इतिहास, विज्ञान और समाजशास्त्र का एक महत्वपूर्ण स्रोत छोड़ गए, जो संस्कृत स्रोतों पर भी आधारित था.

इंडियन एक्सप्रेस की रितिका चोपड़ा हमें बताती हैं कि 12वीं कक्षा की इतिहास की पाठ्यपुस्तक में मुगल दरबार, भवन निर्माण, शिकार अभियान और प्रमुख मुगल युद्धों से संबंधित एक प्रमुख अध्याय हटा दिया गया है. अवध, बंगाल और हैदराबाद राज्यों से संबंधित 'अठारहवीं शताब्दी के राजनीतिक गठन' नामक अध्याय को हटा दिया गया है, वहीं "राजपूतों, मराठों, सिखों और जाटों के नियंत्रण वाले राज्यों वाले कंटेंट को बरकरार रखा गया है".

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क्या एनसीईआरटी का कोई एक्स्ट्रा-कैरिकुलर एजेंडा है?

एनसीईआरटी के निदेशक डॉ दिनेश प्रसाद सकलानी सेलेक्टिव नहीं होने का दावा करते हैं. उनका दावा यह भी है कि सभी विषयों में जितने भी बदलाव किए गए है वह विशेषज्ञों के परामर्श के बाद ही किए गए हैं. लेकिन ये विशेषज्ञ कौन हैं? पिछली सरकारों के खिलाफ एक बड़ा आरोप यह था कि एनसीईआरटी समितियों के ज्यादातर विशेषज्ञ वामपंथी पृष्ठभूमि से थे.

यहां पर नेशनल कैरिकुलम फ्रेमवर्क (NCF : National Curriculum Framework) में कम से कम 24 सदस्य ऐसे हैं जिनका आरएसएस से जुड़े समूहों से सीधा संबंध है. जिनकी सामाजिक विज्ञान या विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में शायद ही कोई ज्ञात विशेषज्ञता है.

ऐसा प्रतीत होता है कि चयनित सदस्यों के पास भारत की अनन्य, प्रतिगामी छवि को आगे बढ़ाने के अलावा कोई अन्य लक्ष्य नहीं है, जिसके साथ वे बड़े हुए हैं. भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद के सदस्य प्रो इस्साक यहां सामाजिक विज्ञान में शिक्षा पर एक समिति के साथ जुड़े हुए हैं. 21 जून 2022 को इंडियन एक्सप्रेस ने की रिपोर्ट में उनकी शिकायत का जिक्र करते लिखा "आजकल स्कूली पाठ्यक्रम में जो हमारा इतिहास है वह सब्जेक्टिव है, ऑब्जेक्टिव नहीं. भारत की हार, हिंदुओं की पराजय स्कूली पाठ्यक्रम का मुख्य विषय है."

हमारे इतिहास के बारे में नासमझी और जटिल समझ कुछ ऐसा पैदा करने के लिए बाध्य है जो हमारे बहुलवादी और समकालिक अतीत के साथ तालमेल नहीं बिठा पाएगी.

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मुस्लिम और राष्ट्रवाद : अतीत, वर्तमान और भविष्य

इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में परिवर्तन और कई चीजों को हटाने को ध्यान में रखते हुए, मैं हमारे उग्र राष्ट्रवादी बिपिन चंद्र पाल के एक उद्धरण के साथ समाप्त करूंगा, जोकि जो लाल-बाल-पाल तिकड़ी में शामिल थे. ये शब्द हमें अपने इतिहास (विशेष रूप से मध्ययुगीन इतिहास और राष्ट्रवाद के सही अर्थ को) को समझने में मदद करेंगे. जिसे हम में से कुछ लोग आज एक विभाजनकारी टूल के तौर पर उपयोग करते हैं.

उन्होंने लिखा है:

"मुसलमानों के अधीन हमारी एक ही सरकार थी जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल थे, फिर भी इसने हिंदू संस्कृति की अखंडता को नष्ट नहीं किया. हमने अपने मुसलमान पड़ोसियों से बहुत सी चीजें लीं और उन्हें भी अपना कुछ चीजें दीं. लेकिन विचारों और संस्थाओं के इस आदान-प्रदान ने हमारे विशेष चरित्र या हमारी विशेष संस्कृति को नष्ट नहीं किया. जिसे अब हम राष्ट्रवाद के रूप में समझते हैं वह विशेष चरित्र और संस्कृति ही उसकी आत्मा व सार है."

(एस इरफान हबीब, एक इतिहासकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @irfhabib है. ये एक ओपिनियन पीस है. ये लेखक के खुद के विचार हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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