क्या तीसरी बार दिल्ली का दिल जीतने वाले अरविंद केजरीवाल पूरे देश का दिल जीत सकते हैं? क्या दिल्ली मॉडल से केजरीवाल देश की तस्वीर बदल सकते हैं? क्या 2024 में मोदी को हराकर केजरीवाल भारत के प्रधानमंत्री बन सकते हैं?
दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जबरदस्त जीत के बाद एक बार फिर ये बहस तेज हो गई है. सोशल मीडिया पर घमासान छिड़ा है. एक तरफ AAP समर्थक और बीजेपी विरोधी हैं, जिन्हें केजरीवाल में ‘मोदी राज’ से मुक्ति की उम्मीदें दिख रही हैं, जो नए भारत के निर्माण का आह्वान कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ बीजेपी समर्थक और AAP विरोधियों की भीड़ है, जो दिल्ली की जीत को ‘फ्री पॉलिटिक्स’ की जीत मानते हैं, जिनकी राय है कि
भारत को नई ऊंचाईयों तक ले जाने के लिए केजरीवाल के ‘शॉर्ट कट्स’ की नहीं मोदी के ‘विजन’ की जरूरत है.
केजरीवाल में आखिर क्या कमी है?
इतिहास के पन्नों को अगर पलटें तो ऐसे कई मुख्यमंत्री रहे हैं जो अपने सूबे में तो कमाल करते रहे, जनता बार-बार उन्हें सत्ता की चाभी सौंपती रही. लेकिन वो पूरे देश की पहली पसंद नहीं बन सके और सियासत का समीकरण ऐसा रहा कि जब केंद्र में गठबंधन की सरकार बनी तब भी ऐसे मुख्यमंत्रियों को (जो बार-बार सीएम चुने गए) मौका नहीं मिला. पिछले 73 सालों के प्रधानमंत्रियों की लिस्ट पर एक नजर डालिए तो चीजें स्पष्ट हो जाती हैं. मतलब साफ है प्रधानमंत्री बनने के लिए सिर्फ पॉपुलर मुख्यमंत्री होना काफी नहीं है.
तो पीएम बनने के लिए अरविंद केजरीवाल की चुनौतियां क्या हैं?
चुनौती नंबर 1: आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी बनाना
केंद्र में अपने दम पर सरकार बनाने के लिए AAP को कम से कम 272 लोकसभा सीटें जीतनी होंगी. इतिहास गवाह है ये कोई आसान काम नहीं है. 2 सीट से 282 सीट तक पहुंचने में बीजेपी को कितने साल लग गए सब जानते हैं. फिलहाल एक सांसद वाली आम आदमी पार्टी को बहुमत की सरकार बनाने के लिए को एक दर्जन से ज्यादा राज्यों में सौ फीसदी लोकसभा सीटों पर कब्जा करना होगा. थोड़ी देर के लिए अगर मान भी लें कि दिल्ली (7) के आसपास, पंजाब (13), हरियाणा (10), हिमाचल (4) और उत्तराखंड (5) जैसे राज्यों से लेकर हिंदी हार्टलैंड के बड़े राज्य उत्तर प्रदेश (80), मध्य प्रदेश (29), राजस्थान (25), बिहार (40), छत्तीसगढ़ (11) और झारखंड (14) में अरविंद केजरीवाल की पार्टी सारी सीटों पर जीत हासिल कर लेती है, इसके बावजूद 272 के मैजिक नंबर से पार्टी कोसों दूर (238) रहेगी. चाहें तो गोवा में भी AAP को पूरी 2 सीटें दे सकते हैं, लेकिन क्या फर्क पड़ेगा!
अब अपनी कल्पना को थोड़ी और उड़ान दे दें तो गुजरात (26) और महाराष्ट्र (48) जैसे राज्यों से बाकी 34 सीटें निकालना AAP के लिए पहाड़ खिसकाने से कम नहीं होगा. कर्नाटक (28) में बीजेपी कांग्रेस का किला ध्वस्त करने में कामयाब रही, तो AAP को भी उम्मीद है वहां पार्टी सेंध मारकर कुछ सीटें अपने खाते में ला सकती है. तो इन तीन राज्यों को जोड़कर (गोवा जोड़ दें तो 4 राज्य) आम आदमी पार्टी को बाकी 34 सीटें हासिल करनी होंगी. तब जाकर केन्द्र में AAP की सरकार बन सकेगी.
सवाल ये है क्या ये मुमिकन है? क्योंकि दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, राजस्थान और उत्तराखंड जैसे राज्यों को छोड़ दें तो 282 सीटों की प्रचंड जीत वाली बीजेपी भी हिंदी हार्टलैंड के सभी राज्यों में 100 फीसदी सीट नहीं हासिल कर सकी है. और नई पार्टी के लिए इन राज्यों के अलावा कहीं और अपनी जगह बनाना नामुमकिन है. चाहे वो कर्नाटक के अलावा दक्षिण के दूसरे राज्य हों या फिर पूर्वोत्तर भारत के राज्य हों.
अनुच्छेद 370 पर केन्द्र सरकार का समर्थन करने वाली आम आदमी पार्टी खुद भी जम्मू-कश्मीर में कोई उम्मीद नहीं रख रही होगी.
चुनौती नंबर 2: तीसरे मोर्चे को मजबूत करना
दिल्ली में हैट्रिक बनाने के बाद अरविंद केजरीवाल ने शपथ ग्रहण समारोह में विपक्षी दलों के किसी भी बड़े नेता को आमंत्रित नहीं किया. रामलीला मैदान में ‘धन्यवाद दिल्ली’ के बड़े-बड़े बैनर के साथ सिर्फ दिल्ली की आम जनता आमंत्रित थी. हालांकि खुद केजरीवाल पिछले सालों में विपक्ष के कई मुख्यमंत्रियों के शपथ ग्रहण में शामिल हुए और उनकी शक्ति प्रदर्शन के हिस्सा बने. केजरीवाल के इस फैसले के कई मतलब निकाले जा रहे हैं. आलोचकों के मुताबिक केजरीवाल विपक्ष को ये संदेश देना चाहते हैं कि मोदी के खिलाफ वो अकेला चलेंगे और अकेले दम पर उन्हें 2024 में मात देंगे. हालांकि आंकड़ों के हिसाब से ये मुमकिन नहीं है, ऊपर आप देख चुके हैं.
सच तो ये है अरविंद केजरीवाल को सभी विपक्षी दलों को साथ लेकर चलना होगा. केंद्र में सत्ता पाने का गठबंधन ही एक मात्र रास्ता है. आम आदमी पार्टी के लिए अच्छी बात ये है कि कभी बीजेपी के साथ रही शिवसेना जैसी पार्टियां भी अब खुल कर केजरीवाल के दिल्ली मॉडल की तारीफ कर रही है. चुनाव परिणाम के दिन AAP की जीत पक्की होने के संकेत मिलते ही केजरीवाल को बधाई संदेश भेजने वालों में एनसीपी चीफ शरद पवार और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जैसे विपक्षी दलों के दिग्गज शामिल थे.
केंद्र से मोदी सरकार को हटाने के लिए अरविंद केजरीवाल को महाराष्ट्र में शरद पवार और उद्धव ठाकरे, बंगाल में ममता बनर्जी, यूपी में अखिलेश यादव और मायावती, बिहार में लालू प्रसाद, तमिलनाडु में स्टालिन, आंध्र में चंद्रबाबू नायडू, तेलंगाना में केसीआर और उड़ीसा में पटनायक जैसे कद्दावर नेताओं से तालमेल बनाकर रखना होगा.
क्योंकि मौजूदा हालात में इनके समर्थन के बगैर देश की सत्ता बागडोर मिलना नामुमकिन है. यूपी और बिहार जैसे राज्यों के विपक्षी नेताओं से सांठगांठ बिठाना सबसे बड़ी चुनौती होगी क्योंकि यही वो राज्य हैं जहां से AAP को सबसे ज्यादा सीटें हासिल करने की उम्मीद होगी, और तालमेल के अभाव में इन राज्यों में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला लेना पड़ सकता है.
चुनौती नंबर 3: कांग्रेस से दूरी और कड़वाहट कम करना
अरविंद केजरीवाल की मजबूरी है दिल्ली की तरह दूसरे राज्यों में भी उसे कांग्रेस का मुकाबला करना होगा. राष्ट्रीय पार्टी बनकर उभरने में आम आदमी पार्टी के सामने सिर्फ बीजेपी ही एक चुनौती नहीं है. पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में कांग्रेस की सरकार है. लोकसभा चुनाव में पूरी तैयारी के साथ उतरने के लिए AAP को इन राज्यों की जनता के सामने खुद को कांग्रेस और बीजेपी दोनों के विकल्प तौर पर खड़ा करना होगा. दोनों पार्टियों की नीतियों की आलोचना करनी होगी. लेकिन साथ ही साथ 2024 के चुनावी नतीजों के बाद के समीकरण का ध्यान रखना होगा. केजरीवाल को कांग्रेस से कड़वाहट कम करनी होगी. ताकि जरूरत पड़ने पर हाथ मिलाने की गुंजाइश बनी रहे.
हालांकि चाहे वो कांग्रेस हो या तीसरे मोर्चे के साथी हों, पीएम पद का उम्मीदवार बनकर उभरने के लिए अरविंद केजरीवाल की पार्टी का सबसे बड़ी पार्टी बनकर आना बेहद जरूरी है.
चुनौती नंबर 4: पार्टी का विस्तार, कलह खत्म करना
26 नवंबर 2012 (जब AAP लॉन्च हुई) से लेकर अब तक आम आदमी पार्टी में बहुत कुछ बदल चुका है. कुछ चेहरों को छोड़ दें तो ज्यादातर फाउंडिंग मेंबर्स या तो पार्टी छोड़ चुके हैं या पार्टी से निकाले जा चुके हैं. चाहे वो प्रशांत भूषण हों, या योगेन्द्र यादव हों, कुमार विश्वास हों, या आशुतोष हों. लिस्ट बहुत लंबी है. पीएम मोदी को कई बार तानाशाह कह चुके अरविंद केजरीवाल पर खुद तानाशाही रवैये का आरोप लगता रहा है.
पिछले 7 सालों में कई बार ऐसे मौके आए जब AAP की अंदरूनी खींचतान महीनों तक सुर्खियों में रहे. आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता रहा. अरविंद केजरीवाल पर मनमर्जी के आरोप लगे. हालात ऐसे हो गए कि पार्टी कमजोर होती चली गई.
कभी वाराणसी लोकसभा सीट पर नरेन्द्र मोदी को सीधी टक्कर देकर पीएम पद का दावेदार बनने का सपना देखने वाले केजरीवाल 2014 के चुनावी नतीजे आने के बाद अपनी पार्टी बचाने में लग गए.
अरविंद केजरीवाल के पास दिल्ली बची थी तो नई रणनीतियों के साथ सरकार चलाने में जुट गए. फायदा ये हुआ कि 2020 में तीसरी बार मुख्यमंत्री बनकर लौटे. लेकिन आम आदमी पार्टी दिल्ली तक सिमट कर रह गई.
पंजाब में अंदरूनी कलह इतनी बढ़ी कि पार्टी बुरी तरह टूट गई. 2014 में 4 लोकसभा सीट जीतने वाली AAP 2019 के लोकसभा चुनाव में महज 1 सीट जीत पाई.
अगर केजरीवाल पीएम बनना चाहते हैं तो पार्टी में नई जान फूंकनी होगी. शुरुआत पंजाब और गोवा से हो सकती है. नए-पुराने चेहरों की तलाश करनी होगी. नई रणनीति बनानी होगी. अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग रणनीति बनानी होगी. 2024 में अभी चार साल बाकी हैं. लेकिन ये वक्त काफी नहीं है.
चुनौती नंबर 5: क्या दिल्ली मॉडल से जीतेंगे इंडिया?
दिल्ली और हिंदुस्तान की राजनीति में बहुत फर्क है. ये सच है कि राजधानी में अरविंद केजरीवाल की वापसी में ‘फ्री स्कीम’ का बड़ा रोल है. लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में आम आदमी पार्टी के काम को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. चाहे वो मोहल्ला क्लीनिक हो या सरकारी स्कूलों का कायाकल्प, पिछले 5 सालों में केजरीवाल सरकार ने जो बदलाव किए वो पूरी दुनिया के सामने है.
छोटी से छोटी बीमारी के इलाज के लिए अब आम जनता को अस्पतालों के चक्कर नहीं लगाने पड़ते. सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना अब मजबूरी नहीं रह गया. इसके अलावा कच्ची कॉलोनियों में सड़क बनाना, सीवर की गंदगी से मुक्ति दिलाना, सीसीटीवी के जरिए सुरक्षा का माहौल बनाना कोई मामूली बात नहीं है.
यही वजह है कि बीजेपी ने भी दिल्ली के अपने चुनावी वादों में केजरीवाल का मॉडल अपनाया. बिजली, पानी, सफर की फ्री स्कीम लेकर आई. झुग्गी झोपड़ी की जगह पक्के घर बनाने का भरोसा दिया. लेकिन दिल्ली के लोगों ने उसको चुना जिसने राजधानी में काम करके दिखाया.
भारत में आज भी बिजली, पानी और सड़क जैसे मूलभूत जरूरतों के मुद्दे पर चुनाव लड़े और जीते हैं. ऐसे में अरविंद केजरीवाल का दिल्ली मॉडल कुछ हद तक तो देश पर लागू हो सकता है.
लेकिन इसके अलावा कई ऐसे मसले हैं जिन पर उन्हें ध्यान देना होगा. उन्हें किसानों की समस्या, बेरोजगारी की समस्या, अर्थव्यवस्था की समस्या, आतंकवाद और कश्मीर की समस्या, पाकिस्तान और चीन की समस्या जैसे कई और घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे हैं, जिनका समाधान लोगों के सामने रखना होगा. इसके लिए विकास का दिल्ली मॉडल काफी नहीं है.
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