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देश की राजधानी में 26 जनवरी के दिन इतनी बड़ी सुरक्षा चूक कैसे हुई?

26 जनवरी को क्या गलत हुआ और किस तरह उन हालात को काबू किया जा सकता था

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26 जनवरी को दिल्ली में किसानों की ट्रैक्टर रैली हिंसक हो गई. जब यह आर्टिकल लिखा गया, उस वक्त दिन भर की गतिविधियों का पूरा ब्यौरा नहीं मिला था. इसलिए मैं यहां मीडिया की तब तक की रिपोर्ट्स के आधार पर लिख रहा हूं.

इस आर्टिकल में मैं इस बात का विश्लेषण कर रहा हूं कि 26 जनवरी को क्या गलत हुआ और किस तरह उन हालात को काबू किया जा सकता था.

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दिल्ली पुलिस चकरा कैसे गई?

साफ था कि पुलिस रैली के एकदम अनोखे रूप को देखकर भौंचक्की हो गई. यह ट्रैक्टर जैसे भारी, दबंग वाहनों की रैली थी जोकि पथरीले रास्तों का राही होता है.

बेशक, पुलिस ऐसी रैली को अनुशासित करने की कागजी योजना नहीं बना सकती, न ही मौके पर ऐसी कोई रणनीति तैयार की जा सकती है.

उन्होंने रैली को सिर्फ रोकने की कोशिश की. इस स्थिति से पेशेवर तरीके से निपटने की कोई पहल नहीं की गई. बस, मामूली तरीकों का इस्तेमाल किया, ठीक वैसे ही, जैसे छोटे-मोटे धरने प्रदर्शनों के लिए किया जाता है. और वहां भी अक्सर पुलिस गड़बड़ ही करती है.

हमें यह बताया गया था कि 24 जनवरी को जब पुलिस ने ट्रैक्टर रैली की इजाजत दी तो उस समय एक समझौता हुआ था. इस समझौते के हिसाब से दिल्ली की तीन सीमाओं पर खास जगहों पर रैली की जाएगी और शहर के दूसरे हिस्सों में ये लोग दाखिल नहीं होंगे.

फिर यह खबर आई कि इनमें से कुछ लोग समय से पहले निकल गए. कुछ लोग प्रतिबंधित रास्तों पर चल निकले. इस बात की भी उम्मीद थी और अगर पुलिस ने इसका अंदाजा नहीं लगाया और इस सिलसिले में तैयारी नहीं की तो यह उसकी नाकाबिलीयत ही है.

आज के इंस्टेंट कम्यूनिकेशन के दौर में यह दलील नहीं दी जा सकती कि पुलिस को तभी पता चला जब प्रदर्शनकारी किसान दिल्ली में दाखिल हो गए. जैसे ही उन्हें पता चला कि कुछ लोग तयशुदा रास्ते से भटक गए हैं, वे कई स्तरों पर असरदार अवरोधक यानी बैरियर्स लगा देते. लेकिन जैसे बैरिकेड लगाए गए, वे बिल्कुल काम के नहीं थे.

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असरदार बैरियर्स क्यों नहीं लगाए गए?

पुलिस को पता था कि किसान ट्रैक्टरों में आ रहे हैं. तो, ट्रैक्टर सामान्य बैरिकेड्स को बहुत आसानी से हटा सकते हैं. यहां तक कि कई लोग मिलकर भी इन बैरिकेड्स को हाथों से हटा सकते हैं.

2 से 3 टन के ट्रैक्टरों के लिए उनसे कई गुना भारी बैरिकेड्स की जरूरत पड़ती है. ऐसे बैरिकेड्स को सिर्फ बस/ट्रक/जेसीबी/वॉटर टैंकर वगैरह से बनाया जा सकता है.

हमने देखा कि एक शख्स अंधाधुंध तरीके से ट्रैक्टर चला रहा है, और पुलिसवालों को खतरा है. हमने ऐसे वीडियो भी देखे, जिसमें दो ट्रैक्टर बैरिकेडिंग के लिए इस्तेमाल होने वाली बस को पलटने की कोशिश कर रहे हैं.

पुलिसवालों को इस बात का कोई अंदाजा नहीं था कि इन हालात को कैसे काबू में किया जाए.

तयशुदा रास्ते से अलग जाने के बाद ट्रैक्टरों ने दिल्ली के बीचों बीच पहुंचने के लिए कई किलोमीटर का सफर तय किया. अगर पुलिस ने भारी वाहनों के साथ बैरिकेड लगाने और उसी हिसाब से इसका अभ्यास करने के बारे में सोचा होता तो कई जगहों पर, और कई स्तरों पर ऐसा किया जा सकता था. उनके और दूसरे डिपार्टमेंट्स के पास बहुत से वाहन होते हैं. लेकिन, साफ तौर से वे नहीं जानते थे कि यह सब कैसे किया जाए.

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लाल किले पर किसानों का कब्जा

किसानों ने लाल किला जाने की योजना बनाई, और पुलिस को इसकी जानकारी नहीं थी- यह एक ऐसा इंटेलिजेंस फेल्योर है जिसकी कोई माफी नहीं दी जा सकती. सोशल मीडिया पर लगातार खबरें आ रही थीं कि किसान लोगों को खुलकर अपनी योजनाओं के बारे में बता रहे थे.

इसका मतलब यह है कि यह योजना एकाएक नहीं बनी थी. इससे यह इंटेलिजेंस फेल्योर और संजीदा हो जाता है.

कई चैनल्स ने ऐसे वीडियो भी दिखाए जिसमें एक शख्स खालसा झंडा फहरा रहा है. यह एक ‘बचकाना’ हरकत हो सकती है लेकिन कोई अपराध नहीं है. क्योंकि इस पूरे घटनाक्रम के दौरान लाल किले पर तिरंगे का किसी तरह से अपमान नहीं किया गया. हां, एक वीडियो में दूसरा शख्स डंडे पर चढ़ रहा है और जब किसी उसे तिरंगा पकड़ाया तो वह उसे दूसरी तरफ फेंक रहा है.

बेशक, इसके लिए उस पर प्रिवेंशन ऑफ इनसलर्ट्स टू नेशनल ऑनर ऐक्ट के तहत मुकदमा चला जा सकता है.

लेकिन किसी एक बंदे की ‘बेवकूफी’ के लिए हजारों किसानों की प्रतिबद्धता और अखंडता पर सवालिया निशान नहीं लगाया जा सकता. चूंकि हजारों किसान कोई कानून तोड़े बिना दो महीनों से शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे हैं.

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अब, अगर हम इतने संवेदनशील हैं कि लाल किले में कुछ प्रदर्शनकारी कैसे घुस गए, तो दिल्ली पुलिस को भी इस बात पर फटकार पड़नी चाहिए कि उसने इसकी इजाजत कैसे दी या उन्हें रोक क्यों नहीं पाई.

क्या पुलिस को यह नहीं पता कि प्रदर्शनकारियों को रोकने के दूसरे तरीके भी हैं

आखिर में पुलिस ने आंसू गैस और लाठीचार्ज का इस्तेमाल किया. उसी तरह जैसे पैदल प्रदर्शनकारियों को तितर बितर करने के लिए किया जाता है. लेकिन ट्रैक्टर पर बैठे लोगों पर इसका खास असर नहीं हुआ. हुआ, और बदतर.

प्रदर्शनकारी पुलिस की बसों पर चढ़ गए. दक्षिण कोरिया में पुलिसवाले बसों की छतों पर चढ़कर प्रदर्शनकारियों को नीचे उतारते हैं और उन पर गोलियां नहीं चलाते.

आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर जारी है और अभी यह तय करना जल्दबाजी होगा कि 26 जनवरी को दिल्ली में हिंसा किसकी तरफ से शुरू हुई. इसकी न्यायिक जांच के लिए एक आयोग बनाया जा सकता है.

हालांकि अगर किसानों को दिल्ली में दाखिल होने की इजाजत नहीं दी जाती तो यह स्थिति नहीं होती. इस दलील में भी दम नहीं है कि अगर पुलिस ने उन्हें दाखिल होने से रोका होता तो उन्हें घातक साधनों का इस्तेमाल करना पड़ता.

  • पहला तो यह कि लोगों को किसी खास जगह पर जाने से रोकने के कई ऐसे तरीके भी हैं जो घातक नहीं. प्लास्टिक बुलेट्स, कैपसिसिनॉयड्स बेस्ड पेपर ग्रेनेड्स, पेलारजॉनिक एसिड विनायल एमाईड (पावा) शेल्स और बीन बैग राउंड्स. इसके अलावा हवा में फायरिंग का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
  • दूसरा, फिजिकल बैरियर्स का पूरा विज्ञान विकसित हो चुका है, इनमें कैलट्रॉप्स, शैलो माउंटेड वेज बैरियर्स से लेकर भारी बोलार्ड्स शामिल हैं. यहां तक कि कैलट्रॉप्स को ट्रैक्टर्स को रोकने के लिए तुरत फुरत में लगाया जा सकता है. वाहनों को रोकने के असरदार तरीकों में शैलो माउंटेड वेज बैरियर्स भी शुमार हैं.
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लेकिन इन उपायों को अपनाने के लिए यह भी जरूरी है कि पुलिस को इनकी जानकारी हो. यह दिल्ली पुलिस आलाकमान के दायरे से बाहर की बात है. कोई रातों रात किसी प्रदर्शन के लिए तैयारी नहीं कर सकता. इसके लिए पहले से सोचे जाने की जरूरत है.

दिल्ली पुलिस इतनी भोली भाली कैसे हो सकती है? और किसान एकाएक आपे से बाहर कैसे हो गए?

क्या दिल्ली पुलिस इतनी नाकाबिल है और किसान नेता अपने साथी किसानों की योजनाओं से इतने अनजान?

यह मानना मुश्किल है कि देश में सबसे अधिक साधन संपन्न पुलिस बल इतना भोला भाला हो सकता है. भीड़ को नियंत्रित करने की तकनीकों और तरीकों से भी अनजान हो सकता है. अगर ऐसा है तो पुलिस आलाकमान को लताड़ा जाना चाहिए.

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इसके अलावा हमें एक दूसरा सवाल भी पूछना चाहिए. इतने लंबे समय से अनुशासित तरीके से प्रदर्शन करने वाले किसानों ने एकाएक अपना आपा क्यों खो दिया और ऐसा कुछ किया जिससे उनका प्रदर्शन ‘बदनाम’ हो. ये दो अलग-अलग तरीके के व्यवहार हैं जो एक दूसरे से मेल नहीं खाते.

फिर किसान नेताओं, जिन्होंने अपने साथियों को इतनी कड़ाई से काबू किया हुआ था, उनका नियंत्रण एकदम से कैसे छूट गया. ऐसा कैसे हो सकता है कि इन नेताओं को बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि इतनी बड़ी संख्या में किसान तय रास्ते से अलग अपनी राह पकड़ लेंगे.

इंटेलिजेंस फेल्योर है बहुत बड़ा

अगर यह मान लिया जाए कि किसानों के समूह में कुछ शरारती तत्वों ने घुसपैठ कर ली तो वे अलग-अलग जगहों से आने वाले सैकड़ों किसानों को कैसे उकसा सकते हैं. अचानक कोई किसी को प्रभावित नहीं कर सकता. यह नहीं माना जा सकता कि 26 जनवरी की शाम को उन्होंने यह घुसपैठ की हो और यकायक लोगों को अपने बस में कर लिया हो.

हालांकि किसी प्रदर्शन में शरारती तत्वों का घुस आना बहुत संभव है और इंटेलिजेंस वाले इन्हीं सब बातों पर नजर रखा करते हैं.

तो, इस बात में कोई शक नहीं कि यह पूरी तरह से इंटेलिजेंस फेल्योर था.

ये अराजक तत्व कौन थे? वे कहां से आए थे और किसानों की जगह उन्होंने कैसे ले ली? हम यह सब नहीं जानते. हां, यह पक्का है कि दाल में कुछ न कुछ काला जरूर है. सिर्फ समय ही इसका राज खोलेगा.

(डॉ. एन. सी. अस्थाना एक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं. वह केरल के डीजीपी और सीआरपीएफ तथा बीएसएफ के एडीजी रह चुके हैं. वह @NcAsthana पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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