राजनीति कला है या विज्ञान? यह एक जटिल सवाल है. मेरा मानना है कि अपने समय में दार्शनिक प्लेटो को भी इस पर कठिनाई का सामना करना पड़ा होगा. जबकि मैं एथेंस का कोई दार्शनिक नहीं हूं, फिर भी शर्त लगा सकता हूं कि राजनीति प्रतीकवाद की कला और चुनावी अंकगणित के विज्ञान के मेल की उपज है. यदि कोई राजनीतिज्ञ कुशलता से, यहां तक कि खतरा उठाकर भी प्रतीकवाद और अंकगणित या कला और विज्ञान के बीच संतुलन बना सकता है, तो वह सत्ता हासिल कर सकता है और वैचारिक आधार को मजबूत कर सकता है.
क्या किसी भी सफल राजनेता का अंतिम उद्देश्य सत्ता को हासिल करना और अपने पक्ष की विचारधारा को बढ़ाना ही नहीं है? इस प्रयास में प्रतीकवाद और अंकगणित उपकरण बन जाते हैं, जबकि सत्ता और वैचारिक विस्तार उसके परिणाम हैं.
अरविंद केजरीवाल: चतुर नेता या नरम सांप्रदायिक?
अब इस हफ्ते की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना पर आते हैं. मैं उन लोगों से असहमत हूं, जो अरविंद केजरीवाल पर अपनी आश्चर्यजनक जीत को नरम सांप्रदायिकता के साथ जोड़कर कलंकित करने का लांछन लगा रहे हैं. वे नागरिकता संशोधन कानून पर उनकी चुप्पी का हवाला देते हैं. ये सच है कि उन्होंने शाहीन बाग या जेएनयू या जामिया से साफ दूरी बनाई, जहां निर्दोष प्रदर्शनकारियों पर अत्याचार किए गए थे. इन सबसे बढ़कर क्योंकि उन्होंने हनुमान चालीसा का पाठ करके एक धार्मिक चोला ओढ़ लिया.
लेकिन मेरा विचार ऐसा मानने वालों के ठीक विपरीत है. मेरा मानना है कि केजरीवाल ने दिल्ली की 70 सदस्यीय विधानसभा में अमित शाह की बीजेपी को 62-8 से हराने के लिए प्रतीकों, राजनीतिक गणित, सत्ता और विचारधारा के बीच एक सही संतुलन को दिखाया है. यह चतुर राजनीति का एक बेहतरीन प्रदर्शन है और इसके लिए उनकी निंदा नहीं बल्कि प्रशंसा करने की जरूरत है.
राजनीति में प्रतीकवाद की कला क्या है?
यह उन कार्यों को करना है जो तत्काल आकर्षण की एक भावनात्मक ऊर्जा पैदा करते हैं. उदाहरण के लिए केजरीवाल के मफलर या मोदी के साफे या रावण के विशाल पुतले का दहन करने के लिए हर दशहरे पर भारत के हर प्रधानमंत्री का धनुष से तीर चलाना. या पंडित नेहरू का अपने जन्मदिन पर शेरवानी के बटन में एक शानदार गुलाब लगाकर खिलखिलाते हुए बच्चों से घिरा होना. या इंदिरा गांधी का बेलछी के तबाह दलित गांव तक पहुंचने के लिए एक बाढ़ से भरी नदी को एक हाथी की सवारी करके पार करना. या मोदी का ट्रंप का हाथ पकड़े खचाखच भरे टेक्सास स्टेडियम में प्रवेश करना. या हाईटेक सिम्युलेटर में राजीव गांधी का सहज महसूस करना. या वाजपेयी का लखनऊ में एक कवि सम्मेलन में भावुक होकर कविता पाठ करना. या वीपी सिंह का 1988 के इलाहाबाद उपचुनाव को जीतने के लिए प्रचंड गर्मी में एक साइकिल की सवारी करना. या राजनाथ सिंह का पहले राफेल लड़ाकू विमान को वायुसेना को मिलने पर नारियल फोड़ना. या चेन्नई के छात्रों से मिलने के लिए राहुल गांधी का ग्रे टी शर्ट और नीली जींस पहनकर जाना. या केदारनाथ की एक गुफा में मोदी का ध्यान लगाना.
या जैसे केजरीवाल ने इस बार अपने विजय भाषण की शुरुआत भारत माता की जय और इंकलाब जिंदाबाद के नारे के साथ अपने हिंदू और मुस्लिम समर्थकों से समान रूप से अपील करते हुए की.
और राजनीति में गणित का विज्ञान क्या है?
अगर ये सभी केवल प्रतीक हैं, तो चुनावी अंकगणित का विज्ञान क्या है? यह राजनीतिक या आर्थिक लालच से सामाजिक गठबंधन को बनाना है, जो नेता के लिए वोट बैंक के तौर पर समर्पित हो जाते हैं. मुझे पता है कि "वोट बैंक" एक बहुत हल्का मुहावरा है लेकिन ईमानदारी से बात करें तो पूरी राजनीति केवल ऐसे समर्थकों का संगठन बनाने के लिए ही होती है. जिनका स्वार्थ आपके साथ मेल खाता है. इसमें कोई शर्म की बात नहीं है, कुछ भी गलत नहीं है जिसके लिए रक्षात्मक हुआ जाए. यह इस यथार्थ का राजनीतिक संस्करण है कि "यदि मैं आपकी पीठ खुजाता हूं, तो आप मेरी खुजाएंगे."
- इंदिरा गांधी ने 1960 के दशक के अंत में राजे रजवाड़ों को गुजारा भत्ता (प्रिवी पर्स) का अंत और बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके अपने युवा प्रशंसकों की एक ऐसी भीड़ तैयार की जो अमीर / विशेषाधिकार प्राप्त पूंजीपतियों और आम अर्द्ध बेरोजगार भारतीयों के बीच धन की बहुत ज्यादा असमानता होने के कारण पिस रहे थे. उन्होंने 1971 में अपने गरीबी हटाओ के नारे पर एक शानदार जनादेश हासिल किया.
- मनमोहन सिंह ने जब 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौता करने के लिए अपने पद को खतरे में डाला, तो वे अपने देश को वैश्विक स्तर ऊंचे स्थान पर देखने के लिए उत्साहित युवा भारतीयों की आकांक्षाओं को बढ़ावा दे रहे थे. महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के साथ उन्होंने गरीब, साल के ज्यादा समय बेरोजगार रहने वाले ग्रामीणों को खुश किया. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि उन्हें 2009 में शहरी और ग्रामीण भारत में बहुत बड़ी जीत के साथ फिर से चुना गया.
- जब प्रधानमंत्री मोदी ने सफल हवाई हमले में मिसाइलों से बालाकोट में आतंकी शिविरों को नष्ट कराया, धारा 370 को खत्म कर दिया, जिसे कई लोग कश्मीर को भेदभावपूर्ण विशेष दर्जा देने के रूप में देखते थे, अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर के निर्माण के लिए सुप्रीम कोर्ट को अपने अटॉर्नी जनरल से राजी कराया, और तीन इस्लामी पड़ोसी देशों से सताये "गैर-मुस्लिमों को" भारतीय नागरिकता देने के लिए कानून पारित होने को मंजूरी दे दी, तो उन्होंने हिंदू राष्ट्रवाद से जुड़े वोटरों के एक मजबूत समूह को संतुष्ट किया. वोटरों ने उनके कार्यों को इतिहास की गलतियों को सुधारने के रूप में देखा. कोई आश्चर्य नहीं कि छह साल के कार्यकाल के बाद एक कमजोर अर्थव्यवस्था और रिकॉर्ड बेरोजगारी के बावजूद वे लगभग 70% भारतीयों की पसंद बने हुए हैं.
जब अरविंद केजरीवाल ने गरीब और मध्यम वर्ग के घरों में मुफ्त पानी और बिजली दी, सार्वजनिक परिवहन की बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा, दिल्ली सरकार के लगभग मुफ्त स्कूलों में बेहतर शिक्षा और बुजुर्ग हिंदुओं को मुफ्त तीर्थयात्रा की व्यवस्था की, तो उन्होंने भी कृतज्ञ शांतिप्रिय निवासियों का एक तगड़ा संगठन बनाया. इसमें महिलाएं, माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक शामिल हैं. वह हिंदू और मुसलमानों के बीच जानबूझकर तटस्थ रहे हैं, जिससे अल्पसंख्यक वोट आप के लिए एक सुपर बोनस साबित हुआ. कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने भारत के इतिहास में शायद सबसे आश्चर्यजनक रूप से फिर से चुनाव जीता है.
क्या अरविंद केजरीवाल ने लक्ष्मण रेखा पार की?
इसके बावजूद कठोर धर्मनिरपेक्षतावादी हमलावर और असंतुष्ट हैं. अगर उन्होंने ऐसे ही न हारने वाले मतदाताओं के समूह को संगठित किया था, तो उन्हें "सॉफ्ट हिंदुत्व" कार्ड खेलने की जरूरत क्यों थी? उनको इस समझौते से अपनी जीत को कलंकित करने की जरूरत क्यों थी? दूसरे शब्दों में जब उन्होंने अंकगणित के विज्ञान से बीजेपी को हरा दिया था, तो उन्होंने प्रतीकवाद की कला के साथ वोटरों को "लुभाने" की कोशिश क्यों की?
ईमानदारी से इस तरह के सवाल सत्ता की राजनीति की कठोर वास्तविकताओं को नजरअंदाज करते हैं. ये इस सच्चाई को नजरअंदाज करता है कि एक मतदाता गलतियां करने वाला होता है, सामान्य लोग क्षणिक पूर्वाग्रहों के प्रति संवेदनशील होते हैं, वे गलत धार्मिक बातों से भावनात्मक रूप से बह सकते हैं. उन्हें नकारात्मक प्रतीकवाद से बचाने के लिए अक्सर एक भावनात्मक प्रतीकवाद की जरूरत होती है.
कुल मिलाकर राजनीति नैतिक विज्ञान नहीं है, जहां आपको केवल "शास्त्रीय" तर्कों से मुकाबला करना होता है. बाधाओं को तोड़ने के लिए अक्सर आपको कुछ भावनात्मक तरीके अपनाने की जरूरत होती है. इसलिए अगर अरविंद केजरीवाल ने हनुमान चालीसा पढ़ी या नागरिकता संशोधन कानून पर एक उदासीनता या रणनीतिक चुप्पी बनाए रखी तो हमें उन्हें इस बात के लिए जज नहीं करना चाहिए.ये एक जंग को जीतने के लिए एक सामरिक जरूरत थी.
मैंने शुरुआत में यही कहा था. एक अच्छा, प्रभावी राजनेता अगर एक वांछित वैचारिक दायरे के भीतर जीत हासिल कर सकता है तो उसको राजनीतिक कला / प्रतीकवाद और राजनीतिक गणित / विज्ञान के बीच एक नाजुक संतुलन बनाने की अनुमति होनी चाहिए. इस मामले में सांप्रदायिक घृणा और हिंसा की शक्तियों को खत्म करना था, शांति और धार्मिक समानता की वकालत करने वालों को जीतना चाहिए था. और अगर वैचारिक समझौते की स्वीकार्य सीमाओं के भीतर आखिरी लक्ष्य हासिल कर लिया गया तो राजनीतिक यथार्थ की दुनिया में आपका स्वागत है!
लगे रहो केजरीवाल !!
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