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दिल्ली चुनाव: बाबरी की तरह मुस्लिमों के रुख को मोड़ेगा CAA?

सीएए पर जारी प्रदर्शनों के बीच 1993 जैसा मंथन ही दिल्ली में चल रहा है.

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16 दिसंबर 2019 की रात दिल्ली के तीन प्रमुख मुस्लिम नेताओं की एक ही समय पर मुलाकात हुई और वह स्थान था दक्षिण पूर्व दिल्ली का न्यू फ्रैंड्स कॉलोनी थाना, जो निश्चित रूप से अस्वाभाविक कहा जा सकता है.

आम आदमी पार्टी से ओखला विधायक अमानतुल्लाह खान और कांग्रेस के पूर्व विधायक मतीन अहमद चौधरी, शोएब इकबाल- ये तीनों नेता नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध में हुई हिंसा के सिलसिले में हिरासत में लिए गए जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों को रिहा कराने के लिए इकट्ठा हुए थे.

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एक महीने भी नहीं हुए कि दिल्ली में चुनावों की घोषणा हो गयी और तीनों नेता अपनी-अपनी विधानसभा में संभवत: दोबारा चुने जाने की कोशिश करेंगे.

इस बीच CAA और संभावित नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (NRC) के विरोध में दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों में विरोध जारी है. खासकर उन इलाकों में जहां मुसलमानों की आबादी जायादा है जैसे शाहीन बाग, सीलमपुर, जाफराबाद और जामा मस्जिद.

सवाल यह है कि सीएए विरोधी प्रदर्शनों से दिल्ली के मुसलमानों में उसी तरीके से राजनीतिक मंथन होगा जैसा कि 1993 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुआ था?

1993 में क्या हुआ था?

1993 में दिल्ली विधानसभा चुनाव यादगार घटना है क्योंकि आंशिक रूप से राज्य का दर्जा हासिल करने के बाद दिल्ली में हुआ यह पहला चुनाव था. लेकिन मुसलमानों के लिए यह चुनाव उन्हें सदमे में डालने वाली घटना के साये में हुआ था. वह घटना थी- अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस.

यह समुदाय तब बहुत कमजोर हो गया था और उसे यह महसूस हुआ कि कांग्रेस ने भी उसकी उपेक्षा की है. विध्वंस में जिसकी बीजेपी से मिलीभगत रही.

उत्तर भारत के कई मुसलमानों ने कांग्रेस को ‘खूनी पंजा’ का नाम दिया और इस घटना के बाद उत्तर प्रदेश, बिहार और यहां तक कि दिल्ली जैसे राज्यों में मुसलमानों का रुख कांग्रेस से जनता दल की ओर हुआ.

इस दौर में ऐसे जमीनी स्तर पर जनता से जुड़े मुखर मुस्लिम नेताओं का उदय हुआ, जिनमें एक साथ बीजेपी और कांग्रेस दोनों का मुकाबला करने की क्षमता थी.

दिल्ली में 1993 में हुए विधानसभा चुनाव ने जनता दल से जुड़े तीन ऐसे मजबूत स्थानीय मुस्लिम नेताओं को जीतते देखा-

  • पुरानी दिल्ली के मटिया महल से शोएब इकबाल
  • उत्तर पूर्व दिल्ली के सीलमपुर में चौधरी मतीन अहमद
  • दक्षिण पूर्व दिल्ली के ओखला से परवेज हाशमी

ये तीनों नेता जनता दल के टिकट पर जीते.

सिर्फ हिंदू सांप्रदायिकता की प्रतिक्रिया में इन नेताओं का उदय नहीं हुआ, बल्कि इसका कारण कांग्रेस का मुसलमानों के प्रति सामंती और अभिजात्यपूर्ण व्यवहार भी था.

उदाहरण के लिए मटिया महल में शोएब इकबाल ने राजनीतिक परिवारों के दो उम्मीदवारों को हराया- बीजेपी की बेगम खुर्शीद और कांग्रेस के महमूद प्राचा.

इस सीट के अंतर्गत समूचा जामा मस्जिद इलाका आता है और जामा मस्जिद के शाही इमाम से टकराकर भी इकबाल जीतते रहे हैं. उनकी सफलता उस रूढ़िवादी सोच को भी खारिज करने वाली रही है जो धर्मगुरुओं के इशारे पर मतदान किया करते हैं.

उत्तर प्रदेश की सीमा पर स्थित ओखला में खासतौर पर और सीलमपुर में भी जीत के पीछे एक और कारण रहा है- आंतरिक प्रवास.

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1984 में दिल्ली में सिख विरोधी हिंसा और देशभर में बढ़ते सांप्रदायिक तनावों के कारण दिल्ली के मुसलमानों में डर का भाव पैदा हुआ. मुस्लिम विरोधी भेदभाव की घटनाएं भी बढ़ीं. इन घटनाओं ने मुसलमानों को ‘यहूदी बस्तियों’ में तब्दील कर दिया. कई नए मुस्लिम प्रवासी भी यहां इकट्ठा हुए जो यूपी और बिहार जैसे राज्यों से आए थे.

ओखला एक उदाहरण है जिसकी डेमोग्राफी भी बदली और राजनीतिक रूप से भी जहां बदलाव हुआ. आजादी के बाद के पहले कुछ दशकों तक यह इलाका सघन था और यहां मुख्य रूप से कृषि क्षेत्र से आए लोगों के साथ-साथ मोदी मिल जैसी औद्योगिक इकाइयों से जुड़े लोग रहते थे.

बहरहाल, इस क्षेत्र की पहचान रही जामिया मिलिया इस्लामिया, जिसे आजादी की लड़ाई में मुसलमानों की भूमिका के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है. अपने इतिहास और मुस्लिम बहुल चरित्र के कारण दूसरे राज्यों खासकर यूपी और बिहार के साथ-साथ इसी शहर के दूसरे हिस्सों से आने वाले मुसलमानों के लिए जामिया से जुड़े इलाके स्वाभाविक तौर पर पसंद रहे.

नतीजा यह हुआ कि एक सीट जहां कभी भी अपने दम पर किसी मुस्लिम उम्मीदवार को 10 फीसदी से अधिक वोट नहीं मिले थे, वह अचानक ऐसे विधानसभा क्षेत्र में बदल गया जहां मुकाबला मुख्य तौर पर मुसलमानों के बीच ही होता है.

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‘कांग्रेस बनाम जनता दल’ से ‘आप बनाम कांग्रेस’ तक

सीएए पर जारी प्रदर्शनों के बीच 1993 जैसा मंथन ही दिल्ली में चल रहा है.

वर्तमान में मुस्लिम बहुल सीटों पर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच स्पर्धा है. दिलचस्प बात ये है कि 1993 में जहां जनता दल था, आज वहां कांग्रेस है. सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1980 और 1990 के दशक में लगे ‘सांप्रदायिक’ धब्बे को धोया है और राष्ट्रीय स्तर पर जनता दल का पतन हुआ है. इससे जनता दल से जुड़े मुस्लिम नेताओं को अपने में समाहित करने का मौका कांग्रेस को मिला.

परवेज हाशमी और चौधरी मतीन 1990 के दशक में सबसे पुरानी पार्टी में शामिल हुए. 2009 में आरजेडी उम्मीदवार आसिफ मोहम्मद खान 2013 में कांग्रेस में शामिल हुए और ओखला से पार्टी उम्मीदवार बने. शोएब इकबाल सबसे आखिर में 2014 में कांग्रेस से जुड़े.

एक समांतर प्रक्रिया चलती रही. हिन्दू वोट कांग्रेस से खिसक कर आप और बीजेपी से जुड़ते चले गये. यही वह बदलाव है जिसकी वजह से आप सीएए को लेकर नरम होने को मजबूर है. इसलिए कांग्रेस इस विषय पर अत्यधिक सक्रियता दिखा सकती है.

मुस्लिम नेताओं की मजबूत पंक्ति के साथ कांग्रेस आप पर आरोप लगा रही है कि वह सीएए विरोधी प्रदर्शनों को मजबूती से समर्थन नहीं दे रही है. अमानतुल्ला खान को छोड़कर कोई आप नेता खुलकर प्रदर्शनकारियों के समर्थन में सामने नहीं आया है.

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सीएए विरोधी प्रदर्शनों को लेकर आप के नरम रुख की वजह से यह संभव है कि कुछ मुस्लिम बहुल सीटों पर कांग्रेस को फायदा हो. बहरहाल मुसलमानों के बीच आपको लेकर ऐसा असंतोष नहीं है जैसा 1993 में कांग्रेस के खिलाफ दिखा था.

सीएए की तलवार दोनों ओर से काटती है. यह कांग्रेस को कुछ स्थानों पर मदद करती है जहां इसके उम्मीदवार मजबूत हैं, वहीं यह राज्य के बाकी हिस्सों में मुख्य बीजेपी विरोधी पार्टी होने की वजह से ‘आप’ के साथ मजबूती से खड़ी दिखती है. बीजेपी को भी उम्मीद है कि इस मुद्दे से हिन्दू वोट उसके पीछे लामबंद होगा.

दिल्ली में कहां सघन है मुस्लिम आबादी?

2011 की जनगणना के मुताबिक दिल्ली में मुसलमानों की आबादी 12.8 प्रतिशत है लेकिन अलग-अलग क्षेत्रों में यह अलग-अलग है। ज़िलों के हिसाब से सेंट्रल दिल्ली में मुसलमानों की आबादी 33.4 प्रतिशत है तो उत्तर पूर्व दिल्ली में 29.3 प्रतिशत। वहीं दक्षिण दिल्ली में यह 5 फीसदी से भी कम है।

दिल्ली : जिलावार मुसलमानों की जनसंख्या

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इन तहसीलों में तुलनात्मक रूप से अधिक सघन है मुस्लिम आबादी

  • दरियागंज (मध्य) : 64.7 फीसदी
  • सदर बाजार (उत्तर) : 46.8 फीसदी
  • कोतवाली (उत्तर) : 34.8 फीसदी
  • सीलमपुर (उत्तर-पूर्व) : 33.6 फीसदी
  • शाहदरा (उत्तर पूर्व) : 30.7 फीसदी
  • डिफेंस कॉलोनी (दक्षिण) : 29.7 फीसदी

दिल्ली में चार विधानसभा क्षेत्र मुस्लम बहुल हैं और 1993 के बाद से इन क्षेत्रों ने केवल मुसलमान उम्मीदवारों को ही चुना है : मटिया महल, बल्लीमारन, सीलमपुर और ओखला.

दो अन्य सीटें हैं जहां मुसलमानों की आबादी 40 फीसदी है: मुस्तफाबाद और बाबरपुर. दोनों उत्तर पूर्व दिल्ली में हैं. लेकिन इन क्षेत्रों का चुनावी अनुमान थोड़ा अलग रहा है.

मुस्तफाबाद नया विधानसभा क्षेत्र है जहां 2008 और 2013 में मुस्लिम विधायक कांग्रेस के हसन अहमद चुने गए. लेकिन 2015 में वे बीजेपी के जगदीश प्रधान से चुनाव हार गए. इसकी वजह मुख्य रूप से बीजेपी विरोधी वोटों का आप और कांग्रेस में बंट जाना रहा.

बाबरपुर की डेमोग्राफी भी तकरीबन ऐसी ही रही लेकिन इसने कभी मुस्लिम विधायक को नहीं चुना. वर्तमान में वरिष्ठ आप नेता गोपाल राय यहां का प्रतिनिधित्व करते हैं.

कई अन्य सीटें भी हैं जहां मुसलमानों की अच्छी खासी आबादी है जैसे शाहदरा, सीमापुरी, रिठाला, चांदनी चौक, सदर बाजार, जंगपुरा, कालकाजी और त्रिलोकपुरी.

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क्यों बंटेंगे वोट?

जब 2012 में दिल्ली के राजनीतिक परिदृश्य पर आप का उदय हुआ तो मुसलमानों को थोड़ा संदेह था कि यह बीजेपी को हरा सकती है. इसलिए 2013 के विधानसभा चुनाव में जब आप ने 28 सीटें जीती थी तब ज्यादातर मुस्लिम बहुल सीटें कांग्रेस को गयी थी.

बहरहाल, 2014 में मुसलमान आप की ओर चले गए.

तब से ज्यादतर मुस्लिम बहुल सीटों पर बीजेपी विरोधी वोटों की निर्णायक एकजुटता एक पार्टी के पीछे दिखी है. 2015 के विधानसभा चुनाव में यह पार्टी आप थी और 2019 के लोकसभा चुनाव में यह पार्टी कांग्रेस रही.

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