क्या भारतीय समाज एक ऐसे ज्वालामुखी पर बैठा है जो किसी भी वक्त भड़क सकता है, करीब वैसे ही जैसे 1947 में भारत के बंटवारे के समय हुआ था?
ये सोच कर भी डर लगता है. और कोई भी लेखक ऐसे किसी भी संवेदनशील विषय पर लोगों को डराने की कोशिश नहीं करेगा जो भारतीय समाज की शांति और भाईचारा, देश की एकता और अखंडता, राष्ट्रीय सुरक्षा और दुनिया में देश के सम्मान से जुड़ा हो.
इसलिए मैं डर नहीं फैला रहा हूं.
मुसलमानों के प्रति नफरत और सांप्रदायिक शांति का भंग होना
1947 से लेकर अब तक मुसलमानों से इतनी ज्यादा नफरत हिंदुओं में पहले कभी नहीं दिखी, और ना ही कभी मुसलमानों में इतनी गहरी असुरक्षा की भावना दिखी.
वास्तव में बंटवारे के समय हिंदुओं में मुसलमानों के प्रति नफरत इससे बहुत कम थी क्योंकि हिंदुओं का बड़ा तबका आजादी के जिस आंदोलन में शरीक था उसकी अगुवाई कांग्रेस कर रही थी, और जो मुस्लिम भारत में रह गए वो महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में खुद को महफूज समझते थे.
अब, जब देश की राजधानी में केन्द्र सरकार की नाक के नीचे सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ चुका है, जब कानून से बेखौफ होकर सत्तारुढ़ पार्टी के नेता और कार्यकर्ता मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलने वाले बयान दे रहे हैं, जब ना सिर्फ पुलिस बल्कि न्यायपालिका भी सरकार के धुन पर नाच रही है, और जब अमन पर मंडराता खतरा बढ़ता और फैलता जा रहा है, हमारा कर्तव्य बनता है कि सभी राजनीति, समाजिक और बौद्धिक संसाधनों का इस्तेमाल कर इस तबाही को रोका जाए.
खतरे की ताकत को जानना उसे रोकने की दिशा में सबसे पहला कदम होगा.
हिंदू-मुस्लिम के नाम पर दिल और दिमाग का बंटवारा
इतिहास की दो घटनाओं की सटीक तुलना नामुमकिन है. अगर हत्या का आंकड़ा और परिणाम कोई पैमाना हो तो बंटवारे के वक्त के दंगे, जिसमें एक तरफ हिंदुस्तान आजाद हुआ तो दूसरी तरफ पाकिस्तान का जन्म हुआ, और दिल्ली में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दौरे के बीच हुई सांप्रदायिक हिंसा, जिसमें अब तक 42 लोगों (सरकारी आंकड़ा) की मौत हो चुकी है, दोनों की कोई तुलना नहीं है. आज ना तो भारत के एक और विभाजन की कोई संभावना है और ना ही सरहद के दोनों तरफ बड़ी तादाद में आबादी का कोई प्रवास हो रहा है. इसके बावजूद हमें आज ठीक वैसा ही मंजर दिख रहा है जो 1947 के आसपास दिखा था.
विभाजन के बाद हिंदू-मुसलमान के नाम पर भारतीय लोगों के दिलों और दिमागों का ऐसा बंटवारा हमने कभी नहीं देखा.
और जब एक देश में रहने वाले समुदायों के बीच मानसिक और हार्दिक बंटवारा हो जाए, जाहिर तौर पर वो भयावह विस्फोटों में तब्दील हो जाती है. एक विस्फोट यहां, एक विस्फोट वहां, और धीरे-धीरे हिंसा की ये आग पूरे देश को अपनी आगोश में ले लेती है. ये एक सच्ची और बेहद डरावनी संभावना है. इस बारे में कोई गलतफहमी नहीं रखनी चाहिए.
पिछले वर्षों में भारत में कई सांप्रदायिक दंगे हुए. और अफसोस है कि दिल्ली के दंगे भी आखिरी नहीं होंगे. लेकिन राष्ट्रीय राजधानी में 1948 के सिख-विरोधी नरसंहार और गुजरात में 2002 की मुस्लिम-विरोधी जनसंहार के बाद पहली बार कई भारतीयों को इससे भी बुरे वक्त के आगमन का अंदेशा लग रहा है.
बीजेपी आज 1947 की मुस्लिम लीग बन गई है
सच्चाई को समझने के लिए हमें 1947 और 2020 के बीच एक बड़े फर्क को समझना होगा. बंटवारे के वक्त दंगे की सबसे बड़ी वजह थी मुस्लिम लीग का मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की मांग करना. दुर्भाग्य से बड़ी तादाद में संभ्रांत और बुद्धिजीवी मुसलमान भी धीरे-धीरे इस मांग के समर्थन में आ गए, उत्तर भारत के उन इलाकों से भी जो कि बंटवारे के बाद भारत का हिस्सा बना रहा. अब, सांप्रदायिक हिंसा की मुख्य वजह ‘हिंदू राष्ट्र’ की विचारधारा है जिसे दिल्ली में सत्तारुढ़ लोग बढ़ावा दे रहे हैं. दुर्भाग्य से भारी तादाद में संभ्रात और बुद्धिजीवी हिंदुओं में भी उनका समर्थन बढ़ता जा रहा है.
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी अपनी सांप्रदायिक मुहिम में आक्रामक रुख अख्तियार कर मुस्लिम लीग का हिंदू संस्करण बन गई है.
आज बीजेपी और केन्द्र सरकार मुसलमानों से जो कह रही है वो डरावने तरीके पर बिलकुल वैसा ही है जैसा बंटवारे के बाद पाकिस्तान के नए शासक वहां रहने वाले हिंदुओं और अल्पसंख्यकों से कहते थे – ‘तुम पूरी तरह हमारे मुस्लिम राष्ट्र के हिस्सा नहीं हो. हम तुम्हें बर्दाश्त कर सकते हैं, लेकिन इसी शर्त पर कि तुम पाकिस्तान की हमारी कल्पना और यहां के मुस्लिम बहुसंख्यक की राजनीति को स्वीकार कर लो.’ असुरक्षा और निराशा के मारे हिंदुओं, सिखों और ईसाइयों ने मजहब पर आधारित पाकिस्तान के हुक्मरानों की भेदभाव की नीतियों को मान लिया.
भारतीय मुसलमानों को संदेश: ‘हिंदू इंडिया हमारा न्यू इंडिया है’
भारतीय मुसलमानों के लिए बीजेपी और संघ परिवार का गूढ़ संदेश यही है – ‘भारत एक हिंदू राष्ट्र है. हिंदू इंडिया ही हमारा न्यू इंडिया है. हम ये नहीं मानते कि हिंदुस्तान एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, जैसा कि संविधान में कहा गया है क्योंकि हमने संविधान नहीं बनाया है. तुम भारत की हमारी कल्पना के हिस्सा नहीं हो, क्योंकि तुम एक ऐसे धर्म को मानते हो जिसका जन्म भारत में नहीं हुआ. हम तुम्हें बर्दाश्त कर सकते हैं, लेकिन शर्त है कि हिंदू राष्ट्र के रूप में भारत की हमारी कल्पना और हिंदू बहुसंख्यक की राजनीति को तुम स्वीकार कर लो. तुम अगर नए भारत के इस आधार को नहीं मानते, तो हम तुम्हें बर्दाश्त नहीं करेंगे, तुम्हारी रक्षा नहीं करेंगे, क्योंकि तब तुम हमारी नजरों में राष्ट्रद्रोही बन जाओगे.’
क्या ये सब किसी भी निष्पक्ष व्यक्ति के लिए पूरी तरह साफ नहीं हो जाता जिसने मोदी सरकार के नागरिकता संशोधन कानून और इस पर आधारित राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (NPR) को ठीक से समझा हो?
क्या ये साफ नहीं है कि ये कानून और इसके बाद की जाने वाली कार्रवाई की मंशा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में मौजूद धार्मिक-भेदभाव की मनाही के सिद्धांत का उल्लंघन है? जिसको ऐसा नहीं लगता, जाहिर है वो CAA, NRC और NPR को 1950 में बने संविधान के नजरिए से नहीं देखता, बल्कि उसे ‘न्यू इंडिया’ के नए संविधान के परिप्रेक्ष्य में देखता है, जिसे संघ परिवार आने वाले समय में मौका देखकर पेश करेगा.
मुसलमानों की नाराजगी की बड़ी वजह
इन सब बातों को देखते हुए हैरानी नहीं होती कि भारतीय मुसलमान, और सेकुलर मानसिकता वाले गैर-मुस्लिम, CAA, NRC और NPR का इनके मौजूदा स्वरूप में पुरजोर विरोध कर रहे हैं. लेकिन मुसलमानों में असुरक्षा, डर और नाराजगी की ये इकलौती वजह नहीं है. इसके अलावा कई और कारण हैं. अगर आजाद भारत में पहली बार इतने व्यापक तौर पर पूरे देश में मुसलमान विरोध प्रदर्शन पर उतर आए हैं, तो इसकी वजह ये नहीं है कि सब के सब CAA, NRC और NPR के संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों को समझते हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि 2014 से बीजेपी के नेता, कार्यकर्ता और समर्थकों के साथ पूरा संघ परिवार मुसलमानों और उनके धर्म के खिलाफ लगातार और सुनियोजित तरीके से दुष्प्रचार में लगा है.
ऐसा इसलिए है क्योंकि छोटे-छोटे इलाकों में क्रूर और हिंसक वारदातों (मुसलमानों की मॉब लिंचिंग) को अंजाम देने वाले गुनहगारों को कोई सजा नहीं मिली. ऐसा इसलिए है क्योंकि बीजेपी ने संसदीय और विधानसभा चुनावों में प्रचार के दौरान खुलकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बातें कर लगातार मुसलमानों को ये संदेश दिया कि ‘हमें तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं है. तुम हमारे लिए कोई मायने नहीं रखते और ना ही राजनीतिक तौर पर हमारे लिए तुम्हारा कोई अस्तित्व है, क्योंकि हमारा हिंदू वोट हमें चुनाव में जीत दिलाने के लिए काफी है.’
भारतीय मुसलमानों में असुरक्षा की ये भावना कहां से आई?
पिछले महीनों में भारतीय मुसलमानों में असुरक्षा की भावना और उनकी बढ़ती नाराजगी की सबसे बड़ी वजह रही है सत्ता में बैठे लोगों का, प्रधानमंत्री मोदी की शह पर, मुसलमानों को खुलेआम धमकाना और उन पर अपमानजनक तंज कसना. जब मोदी सरकार के एक मंत्री (गिरिराज सिंह) ये कहते हैं कि ‘भारत बंटवारे के समय सभी मुसलमानों को पाकिस्तान ना भेजने और हिंदुओं को वापस ना लाने का खामियाजा भुगत रहा है’, और प्रधानमंत्री उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करते. जब एक और मंत्री (अनुराग ठाकुर) बेहद आपत्तिजनक सांप्रदायिक नारे लगाते हैं – जिसे पिछले कुछ महीनों में बीजेपी ने काफी मशहूर किया है – ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को’, और प्रधानमंत्री उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करते. जब कपिल मिश्रा दिल्ली पुलिस के सामने मुसलमानों के खिलाफ हिंसा भड़काने की बात करते हैं, और उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती.
पिछले हफ्ते दिल्ली में हिंसा के दौरान कई जगहों पर हिंदू उपद्रवियों ने मुसलमानों पर हमला करते हुए कहा: ‘तुम्हारे पास सिर्फ दो विकल्प हैं – या तो पाकिस्तान जाओ या कब्रिस्तान जाओ,’ जबकि इससे पहले पूरे देश में NRC लागू करने का संकल्प लेते हुए खुद गृह मंत्री अमित शाह ने ‘दीमक’ को खत्म करने की धमकी दी थी. इन सबके बाद, भारत के मुसलमान कैसे और क्यों मोदी के उस वादे पर भरोसा कर लें जिसमें वो ‘सबका विश्वास’ जीतने की बात करते हैं.
‘मुसलमानों ने अपने खून से देशभक्ति का कर्ज अदा कर दिया है’
अगर प्रधानमंत्री ‘सबका विश्वास’ का वादा पूरा करने के लिए जरा भी प्रतिबद्ध हों तो उन्हें दिल्ली के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर और विख्यात IAS नजीब जंग के उस लेख को पढ़ना चाहिए जो उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस (27 फरवरी 2020) में लिखा है. ‘आज के हालात में ये कहना जरूरी है कि अगर राष्ट्रीयता और देशभक्ति की कीमत खून से चुकाई जा सकती है, तो भारत के अल्पसंख्यकों ने जरूरत से ज्यादा कीमत चुका दी है... अब भारत के अल्पसंख्यकों को लगने लगा है कि उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने का अभियान छेड़ दिया गया है. सवाल ये नहीं है कि अल्पसंख्यकों का ये अनुभव सही है या गलत. इस तरह की विचारधारा ही अपने आप में खतरनाक है और उसे तुरंत दूर कर देना चाहिए.’
जाहिर है भारतीय मुसलमानों में क्रोध बढ़ता जा रहा है. अब इस्लामिक कट्टरपंथी ताकतें इस आक्रोश को हिंदुओं और हिंदुस्तान के खिलाफ इस्तेमाल करने की ताक में हैं.
ठीक इसी तरह से, हिंदुत्वादी ताकतें भी हिंदुओं के बीच मुसलमान विरोधी (और सेकुलर हिंदू विरोधी) नफरत बढ़ाने की कोशिशों में लगे हैं, उनको यकीन है कि सतारुढ़ व्यवस्था (सरकार, पुलिस, न्यायपालिका, मीडिया) उनकी रक्षा करेगी. इस्लामिक कट्टरपंथियों से अलग, हिंदुत्वादी एजेंडा ऊपरी तौर पर भले ही भारत विरोधी ना लगे, लेकिन इसके परिणाम किसी भी तरीके से कम भारत-विरोधी नहीं साबित होंगे.
इसलिए निकट भविष्य में हिंसा की ज्वालामुखी का फटना लाजमी लगता है. जब तक कि सभी देशभक्त हिंदू, मुस्लिम और दूसरे लोग, इंसानियत के आदर्शों पर चलते हुए, नफरत का मुकाबला मोहब्बत से, और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का मुकाबला राष्ट्रीय एकता से करें. जब तक कि सभी लोकतंत्र-प्रेमी भारतीय आपस के मतभेद भुलाकर एकसाथ मिलकर संविधान का अपमान करने वाले इस सरकार को सजा ना दे दें.
(लेखक पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के करीबी सहयोगी थे. वो Music of the Spinning Wheel: Mahatma Gandhi’s Manifesto for the Internet Age के लेखक हैं. उन्हें @SudheenKulkarni पर ट्वीट और sudheenkulkarni.gmail.com पर मेल किया जा सकता है. आर्टिकल में लिखे गए विचार उनके निजी विचार हैं और द क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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