पीडीपी चीफ महबूबा मुफ्ती के जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री पद के शपथ ग्रहण के लिए मान जाने और बीजेपी विधानसभा सदस्यों के मुफ्ती सरकार को समर्थन देने के साथ बॉर्डर से लगे इस संवेदनशील सूबे में अब राज्यपाल के शासन के बाद चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार लाने की तैयारी है.
हैरानी की बात ये है कि मुफ्ती मुहम्मद सईद के निधन के बाद से जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने की अटकी पड़ी कवायद पीडीपी की मौजूदा अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती और प्रधानमंत्री मोदी के बीच हुई 25 मिनट की मुलाकात के बाद नतीजे पर आ गई.
ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि मोदी और महबूबा के एक बार मिलने भर से अगर सारा गतिरोध दूर हो सकता था, तो 11 लंबे हफ्तों तक क्यों सूबे को सरकार बनने का इंतजार करना पड़ा, जबकि वह जनता के गुस्से से उपजे आतंकवाद की नई खेप से जूझ रहा है.
मोदी का जरूरी हस्तक्षेप
पिछले दिनों जिस तरह की घटनाएं सामने आई हैं, उनसे साफ है कि एक बड़े भू-राजनैतिक विचार ने जम्मू-कश्मीर में बीजेपी की कट्टरपंथ की छिछली महत्वाकांक्षा को धता बताया है. जिनकी इन मामलों पर नजर है, उनकी मानें, तो कई आंतरिक-बाहरी कारणों ने मोदी को मजबूर किया कि वे अब इस मामले को पार्टी पर छोड़ने की बजाय खुद हस्तक्षेप कर इस गतिरोध को खत्म करने की एक आखिरी कोशिश करें.
कहानी में नाटकीय मोड़ तब आया, जब पिछले सप्ताह नियत समय पर प्रधानमंत्री मोदी से मिले बिना ही महबूबा दिल्ली से वापस लौट गईं. सूत्रों का कहना है कि वार्ता के लिए दोनों पार्टियों को साथ लाने वाले बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और महासचिव राम माधव के इस आश्वासन के बाद कि उन्होंने महबूबा को पीएम से मिलने के लिए तैयार कर लिया है, मोदी ने रेसकोर्स रोड पर उनका इंतजार किया. इसी इंतजार की वजह से मोदी के जैसलमेर दौरे में भी देर हो गई.
पर असली कहानी काफी अलग थी. हालांकि एक रात पहले महबूबा ने अमित शाह को इशारा कर दिया था कि वे प्रधानमंत्री से बात करने के लिए तैयार हैं, पर उन्होंने ये भी साफ कर दिया था कि वे अपना निर्णय लेने से पहले प्रधानमंत्री मोदी से अकेले में बात करना चाहेंगी.
बीजेपी ने बैठक के बाद जारी होने वाला संयुक्त बयान पहले से ही तैयार करा लिया था. इसमें महबूबा को अपनी ओर से बदलाव करने की कोई छूट नहीं दी गई थी.
पटरी पर पीडीपी-बीजेपी गठबंधन
- पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती जल्दी ही जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाली हैं.
- नरेंद्र मोदी और महबूबा मुफ्ती के बीच 25 मिनट की बैठक के बाद बीजेपी-पीडीपी गठबंधन पटरी पर आ गया है.
- मोदी के हस्तक्षेप ने बीजेपी को महबूबा के बिना एक वैकल्पिक सरकार बनाने से रोक लिया.
- संभव है कि मोदी और शरीफ आगामी 31 मार्च को वाशिंगटन समिट में कश्मीर मुद्दे पर चर्चा करेंगे.
जब मोदी उनका इंतजार कर रहे थे, महबूबा मिलूं या ना मिलूं की पसोपेश में थीं. और आखिर में न मिलने का निर्णय लेकर वे वापस कश्मीर चली गईं.
इस बात के लिए मोदी की तारीफ करनी होगी कि इस ‘ना’ को उन्होंने व्यक्तिगत नहीं माना. कश्मीर के सूत्रों ने बताया कि इसके बावजूद उन्होंने खुद वोहरा को फोन कर सीधा फीडबैक मांगा. इस फोन ने महबूबा और मोदी की मुलाकात के लिए दोबारा स्थिति बना दी. राम माधव व अन्य कट्टरपंथी बीजेपी नेताओं से आ रहीं गठबंधन विरोधी आवाजों के बावजूद मोदी ने एक और कोशिश का फैसला किया.
वाशिंगटन समिट में कश्मीर मुद्दे पर चर्चा करेंगे मोदी-शरीफ
अब यहां तीन कारण हो सकते हैं, जिन्होंने मोदी को कश्मीर में सरकार बनाने के मामले को अपने हाथ में लेने को मजबूर किया. पहला है, राज्यपाल वोहरा की यह सलाह कि जम्मू-कश्मीर में जल्द से जल्द सरकार बननी चाहिए. सच तो ये है कि वोहरा चाहते हैं कि अप्रैल में सूबे की राजधानी श्रीनगर वापस शिफ्ट होने से पहले सरकार अस्तित्व में आ जाए.
कुछ ऐसी ही सलाह सेना और सुरक्षा बलों से भी मिली हैं, जो इन गर्मियों में घाटी में अस्थिरता की आशंका जता रहे हैं. वे सबकुछ अपने सर पर नहीं लेना चाहते, इसलिए संभव है कि उन्होंने भी केंद्र पर सूबे में सरकार बहाली के लिए दबाव बनाया होगा, ताकि सेना पर किसी तरह के सवाल उठने की स्थिति में प्रदेश सरकार को बीच में लाया जा सके.
तीसरा कारण है मोदी का आगामी वाशिंगटन दौरा. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के निजी बुलावे पर वे न्यूक्लियर सेफ्टी समिट में भाग लेने 30 मार्च को अमेरिका की राजधानी जा रहे हैं. ओबामा ने ऐसा ही बुलावा पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भी दिया गया है.
समिट सिर्फ एक दिन के लिए 31 मार्च को होगी. अगले दिन 1 अप्रैल को मोदी और शरीफ से उम्मीद की जा रही है कि वे द्विपक्षीय वार्ता के लिए मिलेंगे और अमेरिका की निगरानी में होने वाली इस वार्ता में अन्य मुद्दों के साथ कश्मीर मुद्दे पर भी चर्चा होगी.
अगर कश्मीर में एक विश्वसनीय चुनी हुई सरकार होगी, तो बेशक अमेरिका और पाकिस्तान के सामने मोदी का पलड़ा भारी रहेगा. विश्वसनीयता एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, क्योंकि इससे पहले बीजेपी अरुणाचल में संदेहास्पद राजनीति करने की कोशिश कर रही थी, जब उसने दल-बदल के दम पर कांग्रेस की सरकार को हटा दिया और अब उत्तराखंड में भी ऐसी ही कोशिशों के बाद फिलहाल केंद्र की सिफारिश पर ही राष्ट्रपति शासन लागू करा दिया गया.
कैसे बच सकती है पीडीपी-बीजेपी पार्टनरशिप?
महबूबा को पता था कि क्या चल रहा है. कई पीडीपी विधायक दल-बदलने के मुहाने पर थे. महबूबा के पास दो ही विकल्प थे कि या तो वो बीजेपी के साथ सरकार बनाए या फिर अपनी पार्टी को टूटते हुए देखें. चुनने की संभावना बची ही नहीं थी. मोदी के हस्तक्षेप ने बीजेपी के महबूबा के बिना ही वैकल्पिक सरकार बनाने के प्लान बी को इस्तेमाल होने से बचा लिया.
दल-बदल से बनने वाली सरकार का बेशक वाशिंगटन में अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता. महबूबा के करीबी सूत्र बताते हैं कि वे प्रधानमंत्री से अकेले बातचीत इसलिए करना चाहती थीं कि क्षेत्रीय बीजेपी से उन्हें समस्या थी.
लगता है कि वे पीएम से मिलकर कुछ बीजेपी मंत्रियों के बारे में खुद बात करना चाहती थीं, जिन्होंने उनके पिता मुफ्ती मुहम्मद सईद के मुख्यमंत्री रहते समय सांप्रदायिक कहे जाने का खतरा मोल लेते हुए भी प्रो-जम्मू रवैया अपनाते हुए उन्हें कई बार मुश्किल में डाला था.
वह उन्हें काबू में लेना चाहती थीं और उन्हें लगा कि यह वे सिर्फ प्रधानमंत्री को ही बता सकती हैं. बैठक के बाद महबूबा के बयान को सुनने के बाद मालूम होता है कि मोदी ने इस मुद्दे पर उन्हें जरूरी भरोसा दिलाया है.
जब आप प्रधानमंत्री से मिलते हैं, तो समस्याओं के समाधान के रास्ते और आसान हो जाते हैं.
अगले सप्ताह तक महबूबा मुख्यमंत्री बन जाएंगी, लेकिन उनकी सरकार की उम्र कितनी है, ये दो बातों पर निर्भर करता है: पहली बात ये कि वे एक मुश्किल गठबंधन को कितनी कुशलता के साथ निभा पाती हैं. दूसरा, गठबंधन में होते हुए अपने निर्णय लेने की स्वतंत्रता. मोदी ने जो दूरदर्शिता इस गठबंधन को बनाए रखने के लिए दिखाई है, वही दूरदर्शिता उन्हें आने वाले दिनों में भी दिखानी होगी.
(लेखिका दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार हैं.)
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