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हिंदी सिनेमा के पर्दे पर शान से जगह बना रहे हैं छोटे शहर

खांटी हिंदी पट्टी के शहरों से आये फिल्मकारों ने विदेशों में भी हमारे शहरों जैसी संवेदनाएं ढूंढ़ निकाली.

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इस साल हमने कितनी ही बार फिल्मी पर्दे पर रंग-बिरंगा हिंदुस्तान देखा है. फिल्लौरी में नया पंजाब दिखा, तो मुक्तिभवन में नया बनारस, जाॅली एलएलबी 2 में नया लखनऊ नजर आया, तो हिंदी मीडियम में एक नयी तरह की दिल्ली. अभी बरेली की बर्फी का स्वाद ताजा है. इसकी निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी की पहली फिल्म थी, निल बटे सन्नाटा. वह आगरा की कहानी थी. मुंबई में पैदा हुई अश्विनी ने अपनी फिल्मों की कहानी के लिए जिन शहरों को चुना वे यूपी के शहर हैं. वही यूपी, जहां के लोगों को मुंबई में भैया कहते हैं.

इसे हम एक फेनाॅमिना के रूप में देख सकते हैं कि बड़े शहरों में पैदा हुए, पले-बढ़े फिल्मकार भी कहानियों के लिए छोटे शहरों का रुख कर रहे हैं. जाहिर है, हिंदुस्तान के जिस हिस्से की कहानी अब तक बहुत कम कही गयी है, वहां नए कथा-रंगों की अथाह संभावनाएं हैं.

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खैर, हम इस साल सबसे अधिक कमाई करने वाली पहली दस फिल्मों को गिनते हैं. बाहुबली 2- द कनक्लूजन, रईस, टाॅयलेट एक प्रेमकथा, ट्यूबलाइट, काबिल, जाॅली एलएलबी 2, बद्रीनाथ की दुल्हनिया, जब हैरी मेट सेजल, हिंदी मीडियम और हाफ गर्लफ्रेंड.

इनमें जब हैरी मेट सेजल है, जो भारत के बाहर की दुनिया में घूमती है. बद्रीनाथ की दुल्हनिया थोड़े समय के लिए सिंगापुर जाती है लेकिन ज्यादातर वो झांसी में ही रहती है. बाकी फिल्मों में भारत के अलग-अलग हिस्से हैं. यह एक ट्रेंड है, जो बताता है कि लंदन-पेरिस न जाकर भी हमारी फिल्में बेहतर कमाई कर सकती हैं.

कुछ साल पहले तक ऐसा नहीं था. तब लगता था कि हिंदी के मुख्‍यधारा सिनेमा के पास एक दूसरा भारत है. करण जौहर की फिल्में हिंदुस्तानी शहरों को जिस भव्यता से परोसती रही हैं, वे तीसरी दुनिया के शहरों की फिल्में लगती ही नहीं हैं. अब्बास मस्तान से लेकर अनीश बज्मी तक, सब अपनी फिल्मों में हिंदुस्तान की असल सच्चाइयों से बहुत दूर खड़े नजर आते हैं. समांतर सिनेमा के दौर में जरूर कुछ क्रांतिकारी प्रयोग हुए, लेकिन वे बाजार की चुनौतियों से खुद को जोड़ नहीं पाये. वह खैरात का सिनेमा था- हालांकि फिल्मों की उस पूरी श्रृंखला ने श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, गौतम घोष और उत्पलेंदु चक्रवर्ती जैसे बड़े फिल्मकार दिये.

नकली भारत दिखाने वाली फिल्‍मों की रोशनी से अलग हिंदी सिनेमा का एक नया संसार उभर रहा है, जो हमारे जाने-पहचाने भारत को समझने और कहने की कोशिश कर रहा है. ये फिल्में तथाकथित मुख्यधारा सिनेमा के बाजार से भी होड़ ले रही हैं. अब तो कई फिल्‍में हैं, जिसने सीमित लेकिन लाभप्रद कारोबार से बेहतर सिनेमा की गुंजाइश साबित की है.

आपको याद होगा कुछ साल पहले रजत कपूर की एक फिल्म आयी थी, आंखों देखी. पुरानी दिल्ली के मोहल्ले में रची गयी उसकी कहानी में बेहद आम किरदार थे. इस फिल्म से दृश्यम फिल्म्स ने बाॅलीवुड में अपनी नींव रखी.

इस प्रोडक्शन की दूसरी फिल्म थी, मसान. यह नीरज घायवन की पहली फिल्म थी और बनारस में मणिकर्णिका घाट के आसपास की दुनिया में रची गयी एक कमाल की प्रेमकथा थी. 2015 के कांस फिल्म फेस्टिवल में इस फिल्म को दो अवाॅर्ड मिले.

खांटी हिंदी पट्टी के शहरों से आये फिल्मकारों ने विदेशों में भी हमारे शहरों जैसी संवेदनाएं ढूंढ़ निकाली. विकास बहल की क्‍वीन याद कीजिए. क्‍वीन में राजौरी गार्डन की एक लड़की के जरिये पहली दुनिया के शहरों का जैसा चित्र उकेरा गया, वो पहले किसी और फिल्म में नहीं देखा गया.
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बहरहाल नये भारत की कथा में मुंबई भी नये ढंग से रचा जा रहा है. सुधीर मिश्रा ने 1992 में धारावी के जरिये एक नया मुंबई दिखाने की कोशिश की थी, लेकिन वह सिलसिला टूट गया. क्योंकि इस नयेपन में तब दर्शकों ने भरोसा नहीं दिखाया था.

2008 में स्लमडाॅग मिलेनियर में एक बार फिर मुंबई धारावी वाले रंग में दिखा. इससे पहले अपराध और रोमांस की सतही गलियों में ही मुंबई को दिखाये जाने की रवायत रही. हां, हंसल मेहता की दो फिल्मों का जिक्र करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि ये दोनों ही फिल्में मुंबई जैसे महानगर में जीवन की त्रासदी और न्याय के भ्रम को पूरी सच्चाई से पेश करती हैं. इन फिल्मों के नाम हैं सिटी लाइट्स और शाहिद.

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हम कह सकते हैं कि आज की फिल्‍मों में हमारा शहर है और हमारे समय की कथा है. अपने समय के सच को अपने ही शहरों में खोजना सभी कला-माध्‍यमों की नैतिक जिम्‍मेदारी है. दूसरे कला-माध्‍यमों में कारोबारी जोखिम नहीं है, इसलिए वे ये जिम्‍मेदारी लेते हैं. हिंदी सिनेमा इस जिम्‍मेदारी से इसलिए बच रहा था, क्‍योंकि उसके निर्माताओं को लगता रहा है कि दर्शक जब खुद गैरजिम्‍मेदार है, तो प्रासंगिक शहरी सिनेमा का एकतरफा दायित्‍व सिर्फ उनके हिस्‍से में क्‍यों आये?

जाहिर है, हिंदी सिनेमा “पल्‍प फिक्‍शन” या कॉमिक्‍स-कथानक के कीचड़ में लिथड़ा हुआ रहा है. यह मान लिया गया था कि हम एक प्रतिनिधि भारतीय दर्शक के तौर पर सिनेमा में असली भारत की जगह काल्‍पनिक भारत देखना चाहते हैं, सतही मनोरंजन ही हमारे विवेक की सीमा है. लेकिन इधर के फिल्मकारों ने इस धारणा को खंडित किया है.
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जब हम हिंदी सिनेमा में नये इलाकों की बात करते हैं, तो उसमें स्थानीय भाषाओं के साथ होने वाले बर्ताव पर भी बात करनी चाहिए. एक समय था, जब महमूद अपनी हिंदी में दक्षिण की छौंक लेकर आते थे, तो असित सेन बंगाल का भाषाई स्वाद लेकर आते थे. अमिताभ बच्चन ने अपनी कई फिल्मों में यूपी की हिंदी का इस्तेमाल किया है. पर ये सारे प्रयोग एकरंगी थे और लगभग मजाक की तरह क्षेत्रीय भाषाएं हमारे सामने होती थीं.

लेकिन अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स आॅफ वासेपुर के तमाम किरदार और आनंद एल राय की फिल्म तनु वेड्स मनु रिटर्न्स की कुसुम सांगवान ने मिथ को तोड़ा. मैंने अपनी फिल्म अनारकली आॅफ आरा में भी स्थानीय भाषा की स्वाभाविकता बनाये रखने की कोशिश की. यूपी-बिहार या हरियाणा के किरदारों को हम भोपाल और मेरठ की हिंदी नहीं दे सकते.

हालांकि स्थानीयता के नाम पर अब भी भाषाओं के साथ बुरा बर्ताव होता है, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण है आमिर खान की पीके. लेकिन अब फिल्म समीक्षक भी भाषा को अलग से रेखांकित करने लगे हैं, इसलिए भाषा को लेकर नये फिल्मकारों की सजगता हिंदी सिनेमा के लिए अच्छा संकेत है.
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भाषा की तरह ही स्थानीय लोगों के चित्रण में भी हमारा सिनेमा न्यायप्रिय नहीं रहा है. मैं जिस बिहार प्रदेश से आता हूं, वहां अक्सर लोग ये सवाल पूछते हैं कि क्या बिहार में सिर्फ हिंसा ही है? मेरे पास कोई जवाब नहीं होता, क्योंकि प्रकाश झा की बिहार केंद्रित सीरीज ने बिहार की नकारात्मक छवि ही पेश की है. 1999 में आयी ई निवास की फिल्म शूल में बिहार का एक भयावह नजारा था. एक समय तक उत्तर प्रदेश के साथ भी हिंदी सिनेमा का यही बर्ताव था.

लेकिन पिछले कुछ सालों में हिंदी सिनेमा का यूपी के शहरों को लेकर नजरिया बदला है. इसकी एक बड़ी वजह यूपी सरकार की फिल्म पाॅलिसी भी रही, जिसने फिल्मकारों और निर्माताओं को यूपी में फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया. ऐसी ही पाॅलिसी अभी झारखंड ने भी बनायी है - लिहाजा आने वाले समय में ये राज्य भी फिल्मी परदे पर दिखाई देगा, जिसकी एक भी कहानी हिंदी सिनेमा के पास नहीं है.

दरअसल इंटरनेट के जरिये अब पूरी दुनिया हमारे सामने है. इसलिए अब विदेशी आबोहवा में घूमने के बजाय स्थानीयता का रंग ही हमारे सिनेमा को एक नयी ऊंचाई दे सकता है.

(पेशे से पत्रकार रहे अविनाश दास ने "अनारकली ऑफ आरा" के साथ अपनी दूसरी पारी फिल्म निर्देशक के रूप में शुरू की है.)

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