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Ayushmann Khurrana की नई फिल्म Doctor G पर एक डॉक्टर का रिव्यू

Doctor G: एक गाइनाकोलॉजिस्ट के तौर पर मुझे ये फिल्म मजाकिया और दिल को छू लेने वाली लगी

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बॉलीवुड एक्टर आयुष्मान खुराना हमेशा अतरंगी और दिलचस्प थीम्स चुना करते हैं. 'विक्की डोनर' से लेकर 'शुभ मंगल सावधान' तक. इसीलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि बतौर मेनस्ट्रीम एक्टर, वह बहुत ही हिम्मती हैं, क्योंकि वह लीक से हटकर किरदार करने की कोशिश करते हैं. एक गायनाकोलॉजिस्ट के तौर पर मुझे लगता है कि आयुष्मान की नई फिल्म 'डॉक्टर जी' (Docter G) एक बहुत ही अनोखी थीम है- जिस पर बॉलीवुड आम तौर पर चर्चा करने से कतराता है.

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फिल्म एक नौजवान मेडिकल ग्रैजुएट डॉ. उदय के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसे आयुष्मान ने निभाया है. वह ऑर्थोपियाडिक्स में स्पेशलाइज करना चाहता है कि लेकिन किस्मत उसे गायनाकोलॉजी में ला पटकती है. फिल्म की निर्देशक अनुभूति कश्यप हैं और यह भोपाल की कहानी है. यह डॉ. जी की दुर्दशा से शुरू होती है, जिसमें एक मर्द, एक ‘औरतों वाले प्रोफेशन’ में फंसा हुआ है.  

फिल्म की निर्देशक अनुभूति कश्यप हैं और यह भोपाल की कहानी है. यह डॉ. जी की दुर्दशा से शुरू होती है जिसमें एक मर्द, एक ‘औरतों वाले प्रोफेशन’ में फंसा हुआ है. फिल्म की शुरुआत ऐसे होती है कि एक महत्वाकांक्षी मेडिको एक खास स्पेशिएलिटी को हासिल करना चाहता है. एमबीबीएस पूरा करने के बाद ज्यादातर मेडिकल स्टूडेंट्स का फोकस, किसी क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल करने पर होता है.

डॉ. उदय भी आर्थोपेडिक्स में स्पेशलाइजेशन हासिल करना चाहता है, लेकिन ऐसा नहीं होता. चूंकि उसकी किस्मत में गायनाकोलॉजी के बैच का अकेला मर्द स्टूडेंट बनना लिखा था. इसके बाद उदय की कायापलट हो जाती है. औरतों की सेहत को लेकर उसकी संकीर्ण सोच का दायरा बढ़ता है, और धीरे-धीरे उस स्पेशलिटी में पारंगत और उसके प्रति भावुकता से भर जाता है. यह कैसे होता है? इसके लिए उसके इर्द-गिर्द की मजबूत महिला कैरेक्टर्स को धन्यवाद दिया जाना चाहिए, जो उसके सोचने के तरीके को बदलती हैं.

बदलती सोच

फिल्म की शुरुआत में उदय लगातार इस बात को सही ठहराता है कि महिलाएं पुरुष डॉक्टर से अपना इलाज नहीं कराना चाहतीं. 'जो चीज मेरे पास है ही नहीं, उसका इलाज कैसे करूं', यह डायलॉग, इस पेशे के प्रति उसके रूढ़िवादी नजरिये को दर्शाता है. चूंकि उसकी सोशल कंडीशनिंग ही ऐसी है. इसी के चलते वह अपने मरीजों का इलाज नहीं करता.  

असल में, एक डॉक्टर यह वजह नहीं दे सकता. उदय का कैरेक्टर स्टीरियोटाइप्स का शिकार है. उसे लगता है कि क्रिकेट पुरुषों के लिए है और बैडमिंटन महिलाओं के लिए. वह जेंडर के आधार पर सामाजिक भूमिकाओं को परिभाषित करता है और कहता है कि इन धारणाओं को तोड़ना चुनौतीपूर्ण है.

लेकिन जैसे ही आप फिल्म देखते हैं, आप इस पर सवाल उठाने लगते हैं. उदय के लिए यह अज्ञानता है या चुनौती? तभी शेफाली शाह बनी डॉ. नंदिनी का कैरेक्टर मंच पर आता है, और उदय को जरूरी सबक सिखाता है.
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शेफाली का कैरेक्टर भी, फिल्म में आयुष्मान सरीखा मुख्य किरदार है. वह उदय को सामाजिक रूढ़ियों को कंधे से उतार फेंकने और अपनी मानसिकता बदलने को उकसाती हैं. "मेल फीमेल क्या होता है, डॉक्टर डॉक्टर होता है", जैसा कि वह कहती है. असल दुनिया में यही सच है. कुछ बेस्ट गायानाकोलॉजिस्ट्स पुरुष हैं और मरीज खासतौर से फीमेल गायनाकोलॉजिस्ट्स की तलाश नहीं करते हैं.

उन्हें बस एक डॉक्टर की जरूरत होती है, जो उन्हें समझ सके और उनका अच्छा इलाज कर सके. जेंडर तो सिर्फ एक सामाजिक खांचा है. एक डॉक्टर का एक्सपरटाइज और मरीज के लिए उसका नजरिया जेंडर से तय नहीं होता. यह फिल्म बताती है कि अलग-अलग जेंडर्स का एक दूसरे पर क्या असर होता है और कैसे उनकी भावनात्मक जटिलताओं को समझने की जरूरत है.

मेरे लिए फिल्म की हाइलाइट उसके तमाम महिला कैरेक्टर्स हैं, रकुलप्रीत से लेकर शीबा चड्ढा तक. इनमें से हरेक कैरेक्टर अपनी तरह से मजबूत कैरेक्टर है और मर्दांनगी और ख्वाहिशों के गैर जरूरी सामाजिक पैमानों को तोड़ते चलते हैं. आखिर में वे उदय की उस आदिमकालीन सोच को चकनाचूर कर देती हैं कि आदमियों को क्या करना चाहिए और इस तरह न सिर्फ आयुष्मान के कैरेक्टर को, बल्कि दर्शकों को भी पैगाम देती हैं.
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स्पेशलाइजेशन पर पैशन हावी

मेडिकल ग्रैजुएट के दिमाग में सिर्फ एक ही बात होती है, किसी डिपार्टमेंट में स्पेशलाइजेशन. लेकिन जब वे किसी विषय में डूबते हैं तो स्पेशलिटी बेमायने हो जाती है. वे लोग अपने मरीजों, और विषय पर ध्यान देने लगते हैं. डॉक्टर जैसे-जैसे विकसित होते जाते हैं, मरीजों के लिए उनकी संलग्नता बढ़ती जाती है. विशेषज्ञता के लिए उनका आग्रह कहीं गुम हो जाता है. फिल्म में उदय के कैरेक्टर में बदलाव के जरिए इस बात को बहुत खूबसूरती से पेश किया गया है.

हालांकि फिल्म में कई मेडिकल त्रुटियां हैं. लेकिन यह मेडिकल प्रोफेशन में जेंडर स्टीरियोटाइपिंग को बहुत अच्छी तरह से पेश करती है. यह देखना भी अच्छा है कि ‘वजाइना’ जैसे शब्दों को बिना किसी मास्किंग के फिल्म में खुलकर इस्तेमाल किया गया है. मेडिकल त्रुटियों के आधार पर फिल्म को जज करना सही नहीं है, बल्कि इस बात की तारीफ की जानी चाहिए कि उसमें भावनात्मक बारीकियों को बखूबी दिखाया गया है.

एक गायनाकोलॉजिस्ट के तौर पर मुझे यह फिल्म मजाकिया और दिल को छूने वाली लगी. तो क्या यह पुरुषों को बैडमिंटन खेलने के लिए प्रेरित करती है? यह जानने के लिए फिल्म देख आइए.

(डॉ, स्मिता एक गायनाकोलॉजिस्ट और इंटरप्रेन्योर हैं. वह प्रोएक्टिव फॉर हर के जरिए महिला स्वास्थ्य की दिशा में काम कर रही हैं, और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के ग्लोबल हेल्थकेयर लीडरशिप प्रोग्राम का भी हिस्सा हैं. यह एक ओपनियन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के हैं. द क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं, न ही वह इसके लिए जिम्मेदार है)

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