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ओपिनियन: क्या भारत में मुसलमानों का वाकई कोई वोट बैंक है?

सियासी पार्टियों का मुसलमान वोटर्स का पूरा फॉर्मूलेशन पहचान, मुद्दे और उम्मीदों पर टिका हुआ है.

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भारत में मुसलमान वोटर जिस तरह से वोटिंग करता है, उसे मुस्लिम वोट बैंक के चश्‍मे से देखा जाता है. चुनावी राजनीति में मुस्लिम वोट बैंक बेहद निर्णायक माना जाता है, क्योंकि इससे किसी सीट पर उम्मीदवार के जीतने की संभावना जुड़ी होती है.

साथ ही राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर किसी राजनीतिक गठबंधन के टिके रहने का जटिल गणित भी इससे जुड़ा हुआ है. हालांकि मुस्लिम वोट बैंक जैसे सिद्धांत की यह कहकर आलोचना की जाती है कि यह एक काल्पनिक चीज है. फिर भी भारतीय राजनीति में मुसलमानों के व्यवहार को समझने के लिए सबसे ज्यादा मुस्लिम वोट बैंक जैसे तय ढर्रे का ही इस्तेमाल होता है.

मोटे तौर पर मुस्लिम वोट बैंक जैसी धारणा इस मजबूत विश्वास पर टिकी है कि एक राजनीतिक समुदाय के तौर पर मुस्लिम मतदाता अपने राजनीतिक हितों और कानूनी अधिकारों के प्रति पूरी तरह सजग है. लिहाजा वह अपने राजनीतिक कदम को लेकर गंभीर है. मुस्लिमों की राजनीतिक पहचान को इस तरह से देखा जाना भारतीय मुसलमानों की वास्तविक सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना के खिलाफ जाता है.

मुस्‍लि‍म समाज भी बंटा हुआ है

भारत में मुस्लिम अन्य सामाजिक समूहों की तरह ही जाति, भाषा, क्षेत्र, वर्ग और यहां तक धार्मिक आधार पर बंटे हुए हैं. यह आंतरिक विविधता ही यह तय करती है कि अलग-अलग स्तर पर मुस्लिमों का राजनीतिक तौर-तरीका कैसा होगा. उदाहरण के तौर पर केरल के राजनीतिक दलों के प्रति मुसलमानों के रुख की यूपी की मुस्लिम राजनीति से तुलना नहीं की जा सकती.

कुछ हद तक इसकी वजह इन राज्यों की अलग-अलग राजनीतिक और सांस्कृतिक बुनावट है, तो कुछ हद तक यह राज्य केंद्रित राजनीति पर निर्भर करती है. फिर भी अलग-अलग दायरे के मुस्लिमों का राजनीतिक व्यवहार पूरी तरह उनकी सामाजिक विविधता पर निर्भर नहीं है.

दरअसल यह पूरी चर्चा तीन अलग-अलग फॉर्मूलेशन के इर्द-गिर्द टिकी है.

1. पहचान

भारतीय संविधान मुस्लिम समुदाय की पहचान धार्मिक अल्पसंख्यक के तौर पर करता है. लिहाजा, कानूनी और राजनीतिक तौर पर भारतीय मुसलमानों को एक जैसा दिखने वाला समूह कहना वाजिब होगा. हर राजनीतिक दल मुस्लिमों को इसी तरह देखता है. यहां तक कि बीजेपी (जो सभी समुदायों के लिए एक कानून की बात करती है और धार्मिक अल्पसंख्यकों को किसी विशेष सुविधा के खिलाफ है) और वामपंथी पार्टियां (जो वर्ग सिद्धांत को तवज्जो देते हैं) भी मुस्लिमों को बंद समुदाय के तौर पर देखती हैं.

2. मुद्दे

देशभर के मुसलमानों के कुछ ऐसे खास मुद्दे हैं, जिन्हें या तो चुनावी वादों में तब्दील किया जा सकता है या फिर उन्हें मुस्लिम तुष्टिकरण की बातें कर खारिज किया जा सकता है. दरअसल यह फॉर्मूलेशन लगातार कई सालों के दौरान उभरा है. 1950 के मध्य में नेहरू ने मुस्लिमों को बार-बार यह विश्वास दिलाया कि भारतीय राजनीति में उनका भी उतना ही हक बनता है, जितना किसी और समुदाय का. गैर कांग्रेस दलों, जिनमें जनसंघ (बीजेपी का पूर्व अवतार) भी शामिल था, की ओर से 1960 के आखिर और 1970 के दशक में गैर कांग्रेसवाद के नाम पर मुस्लिम दलित और पिछड़ों के गठबंधन की अपील भी इस फॉर्मूलेशन को तैयार करने की जिम्मेदार रही है.

1980 के आखिर और 1990 के शुरुआती दशक में शाह बानो और बाबरी मस्जिद विवाद के संदर्भ में राजनीति के सेक्यूलर धड़ों का उभार और फिर यूपीए 1 और यूपीए 2 की ओर से मुस्लिम रिजर्वेशन की पेशकश ने कुछ मुस्लिम मुद्दों को खड़ा करने में योगदान दिया है.

3. उम्मीदें

भारतीय मुसलमान इन कॉमन मुद्दों से काफी हद तक वास्ता रखते हैं. एक धार्मिक अल्पसंख्यक के तौर पर जो मुद्दे उन्हें प्रभावित करते हैं, उनके प्रति वे सजग हैं. लिहाजा वोट देने का उनका तरीका इस तरह के मुस्लिम मुद्दों की पैकेजिंग पर निर्भर करता है.

राजनीति से मुस्लिमों की उम्मीदों से जुड़े इन तर्कों का ठोस आधार है. राजनीतिक दल और उनके माध्यम के तौर पर काम करने वाले संस्थान एक संतुलन बनाने की कोशिश करते हैं. लगभग सभी राजनीतिक दलों में कुछ मुस्लिम चेहरों का होना इस तर्क का एक बेहतरीन उदाहण है. इस तरह हम देखते हैं कि मुस्लिम वोट बैंक की यह तस्वीर किस तरह इन तीन फॉर्मूलेशन का नतीजे के तौर पर सामने आती है.

राजनीतिक पाटियां अपनी पेशकश (राजनीतिक) के लिए मुसलमानों को दी गई संवैधानिक पहचान को उभारते हैं. मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा, पिछड़ापन और रिजर्वेशन जैसे प्रशासनिक विमर्श से वास्ता रखने वाले मुद्दे साफ तौर पर राजनीतिक मुद्दे बन जाते हैं. आखिरकार मुस्लिमों का मतदान राजनीतिक सौदेबाजी का सामान बन जाता है.

बहरहाल, इस देश में मुस्लिम मतदाता जिस तरह से वोटिंग करते हैं, उससे यह साफ दिखता है कि मुस्लिम वोट बैंक जैसी कोई चीज नहीं है. चुनावी राजनीति में मुस्लिमों की भागीदारी मुख्य तौर पर रोजगार और शिक्षा जैसे मुद्दों पर ही टिकी है.

कब तक जिंदा रहेगा मुस्‍ल‍िम वोट बैंक का मुद्दा?

लेकिन राजनीतिक दल इस सच को पहचानने के लिए तैयार नहीं है. बीजेपी मुस्लिमों को भारतीय के तौर पर वोट देने को कहती है, जैसे उनकी पहचान सिर्फ मुस्लिम और भारतीय के तौर पर ही हो. बीएसपी पसमांदा मुस्लिम राजनीति में दिलचस्पी नहीं रखती है, जैसे कि मुसलमानों में जाति का सवाल सिर्फ राजनीतिक मामला हो.

वामपंथी दलों ने अब तक मुस्लिमों में कारीगर वर्गों का सवाल नहीं उठाया है, क्योंकि वे मानते हैं कि उन्हें सिर्फ धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वोट देना चाहिए और कांग्रेस और समाजवादी पार्टी उन्हें ओबीसी रिजर्वेशन के मुद्दे पर उलझा रही है, जैसे कि इस देश में आरक्षण जाति के आधार पर मिल रहा हो.

ऐसा लगता है कि देश में मुस्लिम वोट बैंक की जो धारणा बनी है, वह तब तक बनी रहेगी, जब तक कि मुस्लिम बहुलता को राजनीतिक सच्चाई के तौर पर स्वीकार नहीं किया जाता.

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