राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कहते हैं वो भारत दौरे को लेकर काफी ‘उत्साहित’ हैं, और उन्हें होना भी चाहिए, चाहे ट्रेड डील हो या ना हो. दुनिया में और कहां लाखों की तादाद में लोग उनका स्वागत करेंगे?
एक बुद्धिमान आदमी ने ताना मारा, जरा एक बार पाकिस्तान जाकर, ‘सलाम, ट्रंप’ करके भी देख लीजिए आखिर होता क्या है. लेकिन ‘नमस्ते, ट्रंप’ दुनिया के सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम में होने वाला है, जहां झुग्गियों के आसपास दीवारें खड़ी कर दी गई हैं, और सवा लाख की भीड़ जुटने की उम्मीद है.
अमेरिका के नीतिकार जानते हैं कि उनके राष्ट्रपति पश्चिमी यूरोप, लैटिन अमेरिका और एशिया के बड़े हिस्सों में गहरी भावनाएं पैदा कर देते हैं.
जर्मनी, फ्रांस, स्पेन और नीदरलैंड के चार में से तीन लोग उन पर यकीन नहीं करते. मेक्सिको की 89% फीसदी आबादी किसी ना किसी वजह से उन्हें नापसंद करती है. 2016 में मेक्सिको के लोगों पर ट्रंप के शुरुआती हमलों ने सब कुछ धराशायी कर दिया.
ट्रंप और मोदी दोनों यात्रा को लेकर सकारात्मक हैं
दूसरी तरफ भारत ट्रंप के लिए उम्मीदें लेकर आया है, जहां 56% लोग उन पर भरोसा करते हैं. हालांकि हिंदुस्तान में फिलीपींस (77%) और इजरायल (71%) के लोगों की तरह ट्रंप के लिए मोहब्बत नहीं है, लेकिन वो उनके हैरान करने वाले व्यक्तित्व और बिना थके विरोधियों पर हमला करने की ताकत के लिए - चाहे वो विदेशी नेता हों, पुराने साथी हों, या ट्विटर पर टकराने वाला कोई भी इंसान हो - उन्हें पसंद करते हैं.
हालांकि, जैसा कि ट्रंप ने मंगलवार को कहा था कि वो प्रधानमंत्री मोदी को बहुत पसंद करते हैं. ट्रंप-मोदी ‘भाई-भाई‘ का नारा 3 नवंबर को अमेरिकी भारतीयों के वोट में जरूर तब्दील हो सकता है, जब अमेरिकी जनता ये फैसला करेगी कि क्या ट्रंप को ही दोबारा चुना जाए या फिर किसी डेमोक्रेट को आजमाया जाए. इतनी लंबी हवाई यात्रा से अगर इतना फायदा हो जाए तो क्या बुरा है.
इधर मोदी के लिए इससे बड़ी बात क्या हो सकती है कि दुनिया का सबसे ताकतवर इंसान उनसे मिलने आ रहा है, वो भी ऐसे समय में जब दोबारा चुनाव जीतकर आने के बाद ध्रवीकरण की राजनीति का जाल बुनने के लिए उनकी पश्चिमी देशों में जमकर आलोचना हो रही है.
ट्रंप खास तौर पर इस वक्त सकारात्मकता पर जोर दे रहे हैं और नकारात्मकता को दरकिनार कर रहे हैं. उनका ध्यान पूरी तरह 24-25 फरवरी के दौरे पर है. इसलिए उन्होंने दोनों देशों के बीच ट्रेड डील को खुद ही अंडरप्ले कर दिया है. जिस इंसान पर व्यापार, फायदा और पैसा जैसी बातों का जुनून सवार हो उसके लिए व्यापारिक समझौता ही एक ऐसी चीज थी जिससे जोश दोगुना हो जाए. ट्रंप के लिए हाथ से निकलते ऐसे समझौते को दरकिनार करना बड़ी बात थी.
ट्रेड डील का मामला क्या है
इसके बदले ट्रंप ने कहा: ‘मैं एक बहुत बड़ी डील करूंगा लेकिन फिर कभी. हम हिंदुस्तान के साथ बहुत बड़ा समझौता करने वाले हैं.’ ट्रंप ने संकेत दिया ये डील अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के बाद होगी, और एक झटके में पूरी संभावनाओं को ही खत्म कर दिया.
हालांकि उन्होंने साथ में ये जरूर कहा, ‘भारत ने हमारे साथ अच्छा सलूक नहीं किया.’ जिसका अर्थ ये हुआ कि असली डील के लिए अभी और वक्त ले लो, लेकिन ‘टैरिफ किंग’ वाली बात मैं भूलुंगा नहीं. अमेरिकी जानकार कहते हैं कि अगर दोनों देशों में कोई मामूली डील भी नहीं हो पाई तो दौरे का पूरा मजा खराब हो जाएगा.
अब ये ट्रेड डील क्यों नहीं हो पाई ये तो आरोप-प्रत्यारोप में कहीं दब गया है और दोनों मध्यस्थ ही जानें इसकी असली कहानी क्या है.
भारत और अमेरिका दोनों देशों के अधिकारी एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं कि बार-बार गोल पोस्ट बदली जा रही है और नामुमकिन सी मांगें रखी जा रही है. डील पक्की करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, चाहे वो मनोवैज्ञानिक तरीके से तोड़ने वाली गेम्समैनशिप (खेल जीतने की कला) हो या फिर डिप्लोमेसी में खतरनाक हद तक जाने वाली ब्रिंकमैनशिप (अस्थिरता) की रणनीति हो.
ट्रंप प्रशासन ने कई देशों को कुछ ऐसे ही तरीकों से ट्रेड डील के लिए मजूबर किया है – चाहे वो कनाडा, जापान और साउथ कोरिया हो या फिर कुछ हद तक चीन ही क्यों ना हो. अमेरिकी तो किसी मासूम की तरह पूछते हैं ‘आप बताओ मुश्किलें कौन खड़ी कर रहा है.’
ये एक सच है कि कारोबार के लिए मोलजोल में कुछ भी मासूम नहीं होता और लोकतंत्र की राजनीति में घरेलू वोटर ही मायने रखता है. ट्रंप और मोदी दोनों अपने-अपने वोट बैंक को बचाना चाहते हैं चाहे इसके तहत लिए गए फैसले अर्थशास्त्र के हिसाब से जायज हों या ना हों.
क्या जैसे-को-तैसा की व्यापार नीति कूटनीतिक रिश्तों पर असर डालेगी?
अमेरिका के दूसरे राष्ट्रपतियों और ट्रंप में यही फर्क है कि ट्रंप दोस्त और दुश्मन दोनों पर उतने ही आक्रामक तरीके से हमला बोलते हैं. ट्रंप के टफ मैन, अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लाइथिजर ने सबसे पहले तो भारत की ‘ड्यूटी फ्री’ की रियायत छीन ली और फिर पिछले हफ्ते भारत को एक विकसित देश घोषित कर दिया, जिससे दोबारा पुरानी सुविधा बहाल कराना बिलकुल नामुमकिन हो जाए.
अगर आगे भी ‘जैसे को तैसा’ के तेवर से चीजें बिगड़ती हैं, तो अंदाजा लगाइए इस टैरिफ वॉर में नुकसान किसका होगा? भारत सरकार को इसका जवाब अच्छी तरह से पता है लेकिन उनके पास कोई और चारा नहीं है, खासतौर पर तब अर्थव्यवस्था में सुस्ती हो और लोगों में बेचैनी छाई हो.
ट्रंप काल में जिंदगी कुछ ऐसी ही बन गई है. मोदी एंड कंपनी को इसके साथ जीना होगा और इसके बीच ही कोई रास्ता निकालना होगा. बड़ा सवाल ये है क्या व्यापार के मसले पर निराशा और थकान का असर कूटनीतिक मसलों पर भी पड़ेगा, जो कि पू्र्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के समय से दोनों देशों के बीच रिश्तों की जान बन चुकी है, जिसने पूरे खेल को ‘भारत-पाकिस्तान’ से बदलकर ‘भारत-भारत’ कर दिया था.
कभी भारत और अमेरिका एक दूसरे को झेल नहीं पाते थे, लेकिन अब..
भारत और अमेरिका उस समय को काफी पीछे छोड़ चुके हैं जब दोनों देश एक दूसरे की हेकड़ी, तिरस्कार या दंभ हजम नहीं कर पाते थे – अमेरिकी का रवैया सुपरपावर का था तो भारतीय पर नई-नई मिली आजादी से सजगता का खुमार था. आज दोनों देश एक दूसरे से बातें करते हैं.
असल में ये कहा जा सकता है कि भारत के संबंधों ने अमेरिकी राजनयिकों को नया सलीका सिखाया है कि बड़े, प्रभावशाली और स्वतंत्र-मानसिकता वाले देश से दोस्ताना व्यवहार कैसे रखना है, जो कि कोई मित्र देश भी नहीं है जिसे किसी आपसी सहमति के रूल-बुक के हिसाब से चलाया जा सके.
इस सिलसिले में कुछ अहम बातें समझना जरूरी है: ट्रंप ‘इकलौती’ यात्रा पर हैं, मतलब वो पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की तरह ही भारत के साथ किसी दूसरे पड़ोसी देश नहीं जा रहे हैं. भारत के पहले दौरे के वक्त पाकिस्तान उनके नक्शे पर नहीं है.
ये यात्रा भी उस परंपरा का हिस्सा बन गई है – बिल क्लिंटन के बाद सभी अमेरिकी राष्ट्रपति भारत का दौरा कर दोनों देशों के बीच बढ़ती कूटनीतिक समझ और साझेदारी को जरूर उजागर करते हैं. इस बदलाव में भारतीय अमेरिकी की अहमियत को नकारा नहीं जा सकता.
भारत-अमेरिका रिश्ते में ‘सी’ शब्द
भारत और अमेरिका के बीच किसी दूसरे मित्र राष्ट्रों की तरह कोई सैन्य संबंध नहीं हैं लेकिन चीन आज के समय का एक ऐसा Geo-political मसला है जो दोनों देशों के बीच साझा सरोकार की बड़ी वजह बन चुका है.
चीन के बढ़ते कद को संभालना और उससे निपटना, ताकि विश्व की मौजूदा स्थिति एक सीमा से ज्यादा ना बिगड़े, भारत और अमेरिका दोनों देशों के लिए सिरदर्द, या कहें माइग्रेन है. ऑस्ट्रेलिया, जापान, फ्रांस और दूसरे देशों के साथ भी ऐसा ही है.
दुनिया का कोई देश चीन के मॉडल को पसंद नहीं करता, सिवाय इसके कैश पेमेंट की काबिलियत के. ब्रिटेन के बोरिस जॉनसन चीन की Huawei को जगह देते हुए इसकी माली-ताकत की पूरी व्याख्या कर चुके है.
ट्रंप प्रशासन चीन के मंसूबों पर खुल कर सामने आ चुका है, कैसे चीन अमेरिका लैब, स्कूल, यूनिवर्सिटी, कम्यूनिटी सेंटर, थिंक टैंक, खुफिया एजेंसियों में सेंध मारकर दूसरों पर धाक जमाने की योजना बना रहा है. रोज नए लोगों पर आरोप लगाए जा रहे हैं, लगातार गिरफ्तारियां हो रहीं हैं.
Huawei के उपकरणों को मंजूरी मिले या नहीं इस पर भारत भविष्य में जो भी फैसला लेगा उसका असर अमेरिका के साथ इसके रिश्तों पर भी पड़ेगा, चाहे आने वाले समय में White House में ट्रंप रहें या फिर कोई दूसरा राष्ट्रपति हो, क्योंकि अमेरिकी प्रशासन इस बात पर पूरी तरह आश्वस्त है कि Huawei एक ट्रोजन हॉर्स है.
एक परिपूर्ण यात्रा?
बड़ी बातों पर गौर करें तो भारत और अमेरिका एक दूसरे के प्रति अपनी रणनीतियों को बहुत हद तक साध चुके हैं, भारत Quad पर खुलकर आगे आ चुका है और अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया से मंत्री स्तर की मुलाकातें शुरू हो चुकी हैं. अमेरिका के साथ कम्यूनिकेशन टेक्नॉलोजी की साझेदारी और interoperability को लेकर भारत ने लगभग सभी मूलभूत समझौतों पर हस्ताक्षर कर दिया है.
ट्रंप के छोटे दौरे में भारत अमेरिका के साथ लॉकहीड मार्टिन के 24 सीहॉक हेलीकॉप्टर खरीदने के लिए 2.6 बिलियन डॉलर की डील करने जा रहा है. इससे ट्रेड डील ना होने की निराशा को दूर किया जा सकता है.
हेलीकॉप्टर और अहमदाबाद में जुटने वाली भीड़, दोनों मिलकर इसे एक परिपूर्ण यात्रा बना सकते हैं.
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