जुलाई 2014 में राहुल गांधी के ‘सूटबूट की सरकार’ के तंज ने मोदी सरकार को हिला दिया था. इसके बाद के पांच साल में नरेंद्र मोदी ने वो सारे काम किए, जिससे उनकी सरकार अमीरों की सरकार न मानी जाए.
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आज मोदी खुद को भारत का निर्विवाद नेता साबित कर चुके हैं, लेकिन एक चुनौती उनके सामने बनी हुई है. यह चुनौती उनका दिमाग है, जिसका झुकाव वामपंथी नीतियों की तरफ हो गया है. उन्हें दिमाग से यह बात निकालनी होगी कि सरकार को पूंजी को बढ़ावा देते हुए नहीं दिखना चाहिए.
मोदी के दूसरे कार्यकाल की सफलता इसी पर निर्भर करेगी, क्योंकि यह बात सबको पता है कि गरीबी कम करने के लिए देश में भारी निवेश की जरूरत है. हम यह भी जानते हैं कि यह काम निजी क्षेत्र के निवेश से ही हो सकता है, क्योंकि भारत में पूंजी सीमित है और निजी क्षेत्र (कुछ अपवादों को छोड़कर) इसका कहीं असरदार ढंग से इस्तेमाल करता है.
मोदी को ‘प्रो-कैपिटल पॉलिसी’ को बढ़ावा देना चाहिए. उन्हें याद रखना चाहिए कि प्रो-कैपिटल होने का मतलब प्रो-कैपिटलिस्ट (पूंजीवाद समर्थक) होना नहीं है.
काफी पहले पब्लिक इनवेस्टमेंट के लिए प्राइवेट कैपिटल को दबाया जाता था और पब्लिक सेक्टर की कीमत पर चहेते पूंजीवादियों को बढ़ावा दिया जाता था.
अधिक निवेश वाले मॉडल की तरफ बढ़ना होगा
दुनिया का आर्थिक इतिहास बताता है कि जिन सरकारों ने निजी पूंजी को बढ़ावा दिया, उन्होंने तेज ग्रोथ हासिल की. इसलिए हमें ऐसे कानून की जरूरत है, जो पूंजी से भेदभाव न करता हो. निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा देने के लिए यह बेहद जरूरी है. चीन ने भी ऐसा ही किया है.
1970 के बाद भारत इस मामले में बुरी तरह नाकाम रहा है. इससे पहले निजी क्षेत्र से निवेश को बढ़ावा देने के मामले में उसका प्रदर्शन बढ़िया रहा था.
1970 के बाद सरकारी नीतियों के जरिये राजनीतिक हित साधे जाने लगे. निवेश और ग्रोथ की कीमत पर लेफ्ट से प्रेरित होकर सरकारी संपत्ति के बंटवारे पर अधिक जोर दिया जाने लगा.
इशर अहलूवालिया की 1983 में लिखी किताब में इसे बड़े करीने से समझाया गया है.
मोदी ने पहले कार्यकाल में इन नीतियों को खत्म नहीं किया, क्योंकि वह दोबारा सत्ता में आना चाहते थे. इंडिया शाइनिंग कैंपेन की वजह से अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को जो हश्र हुआ था, मोदी उससे बचना चाहते थे.
दोबारा सत्ता में आने का मकसद वह हासिल कर चुके हैं. इसलिए उन्हें देश को इस मामले में एक बदलाव के साथ नेहरू के दौर के अधिक निवेश वाले मॉडल की तरफ ले जाना होगा. नेहरू को सरकारी निवेश इसलिए बढ़ाना पड़ा था, क्योंकि निजी क्षेत्र यह काम नहीं कर रहा था. अब ऐसी स्थिति नहीं है. मोदी को पहल करके इसके लिए निजी क्षेत्र की मदद करनी होगी. नेहरू ने सरकारी निवेश बढ़ाने के लिए बढ़-चढ़कर पहल की थी.
पब्लिक सेक्टर अभिशाप है...
नेहरू के मॉडल से यह मोदी का अलग और अपना रास्ता होगा. उन्हें टैक्स, इंपोर्ट, इंटरेस्ट रेट और एक्सचेंज रेट जैसी सारी पॉलिसी निजी क्षेत्र के हितों को ध्यान में रखकर बनानी चाहिए. पब्लिक सेक्टर को खत्म करना होगा. यह एक अभिशाप है.
मैं यह नहीं कह रहा कि पब्लिक इनवेस्टमेंट बंद कर दिया जाए, लेकिन सरकार सिर्फ ट्रांसपोर्ट और सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश करे, जैसा कि चीन ने किया है. यहां तक कि पावर सेक्टर का भी निजीकरण कर देना चाहिए, जिसे कांग्रेस इंफ्रास्ट्रक्चर मानती है.
पावर सेक्टर की वजह से राज्य सरकारों की वित्तीय स्थिति खराब हो रही है. इसके लिए पैसा बड़े पैमाने पर निजी क्षेत्र को सरकारी जमीन बेचकर जुटाया जाना चाहिए, जैसा कि चीन ने किया है. रियल एस्टेट सेक्टर में उतार-चढ़ाव के बावजूद ऑफिस और आवासीय योजनाओं के लिए जमीन की असीमित मांग है.
कांग्रेस की नकल बंद करनी होगी
एक लाइन में कहूं तो मोदी को अब कांग्रेस की नकल बंद कर देनी चाहिए. उन्हें कांग्रेसी मॉडल से पीछा छुड़ाकर निजी पूंजी को पुरजोर समर्थन देना चाहिए. आरएसएस के साथ रिश्ते में उनका पलड़ा भारी है. इससे निजी पूंजी को बढ़ावा देने का रास्ता तैयार हो गया है.
दरअसल, कांग्रेस और सीपीएम की तरह आरएसएस भी यथास्थितिवादी है. मोदी को भारत को सच्चे अर्थों में निजी क्षेत्र पर आधारित अर्थव्यवस्था में बदलने का सपना सच करना होगा
2014 में उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान विकास को आधार बनाया था. हालांकि पहले कार्यकाल में वह अपने दिमाग के समाजवादी जालों को साफ नहीं कर पाए. इसलिए वह पूंजी के असरदार इस्तेमाल की राह पर आगे नहीं बढ़े. 2019 में उन्हें इसी वजह से राष्ट्रवाद के आधार पर चुनाव लड़ना पड़ा.
मोदी का समर्थन करने वाले ग्रुप को रोजगार और काम की जरूरत है. अगर वह इस वादे पर खरा नहीं उतरे, तो 2024 में वह क्या करेंगे? उन्हें प्राइवेट सेक्टर को राजनीतिक तौर पर अपनाना होगा. अगर वह एक बार इसका मन बना लेते हैं तो बाकी चीजें अपने आप होती जाएंगी.
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