सुप्रीम कोर्ट ने दो दिन पहले एक ऐसा फैसला लिया, जो भारतीय गणतंत्र के लिए गेम चेंजर साबित हो सकता है. अदालत ने कहा कि जिस रिट पिटीशन में मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों (इलेक्शन कमिश्नर) की नियुक्ति एक समिति के जरिये करने की अपील की गई है, उसकी सुनवाई पांच जजों की संवैधानिक बेंच करेगी.
चुनाव भारतीय गणतंत्र की बुनियाद हैं, जहां इलेक्शन कमीशन अंपायर है. इसलिए वह लोकतंत्र का स्तंभ है. देश में चीफ विजिलेंस कमिश्नर (सीवीसी) जैसे महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति समिति के जरिये की जा रही है, लेकिन कई अहम पदों पर नियुक्तियां अभी भी सरकार कर रही है. संवैधानिक भूमिका वाले इलेक्शन कमिश्नरों की भी.
सरकार ने नहीं सीखा सबक
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर पहले संविधान की धारा 145 (3) के तहत मिली शक्तियों के संदर्भ में जरूरी बहस नहीं हुई है. यह सवाल संवैधानिक योजनाओं और कानून के विश्लेषण से जुड़ा है, इसलिए इसे संवैधानिक बेंच के पास भेजना सही होगा.
यह मुद्दा इसलिए और महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में अटॉर्नी जनरल ने समिति के जरिये चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का कड़ा विरोध किया. वह सरकार का पक्ष रख रहे थे. पिछली यूपीए सरकार ने भी लोकपाल की नियुक्ति के प्रस्तावित सांस्थानिक ढांचे का विरोध किया था. इस पर उसकी तीखी आलोचना हुई थी. अन्ना हजारे आंदोलन की वजह से आम लोगों की नजर में वह बात आई थी. चुनाव आयुक्त को लेकर उस घटना से सरकार ने सबक नहीं सीखा है.
अटॉर्नी जनरल ने इसके विरोध में दलील देते वक्त कुछ दिग्गज मुख्य चुनाव आयुक्तों के नाम गिनाए. उन्होंने कहा कि इन लोगों ने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग नहीं किया था. उन्होंने कहा,
‘अगर कोई चीज टूटी नहीं है तो उसे ठीक करने की क्या जरूरत है?’
अटॉर्नी जनरल का यह कहना कि चुनाव आयोग में शक्तियों का दुरुपयोग नहीं हुआ है, गलत है. जब वह अपनी दलील को सही ठहराने के लिए दिग्गज मुख्य चुनाव आयुक्तों के नाम गिना रहे थे, तब उन्होंने कुछ नामों का जिक्र नहीं किया. उन्होंने टी एन शेषन, जे एम लिंग्दोह, एन गोपालास्वामी और एस एल शकदर के नाम तो बताए, लेकिन नवीन चावला और ए के ज्योति के नाम भूल गए. चावला और शकदर पर कई गंभीर आरोप लगे थे.
चुनाव आयुक्त को निष्पक्ष और न्यायपूर्ण होना चाहिए
सच तो यह है कि जिन गोपालास्वामी के शानदार मुख्य चुनाव आयुक्त होने की अटॉर्नी जनरल ने मिसाल दी, उन्होंने चावला के खिलाफ 93 पन्नों की शिकायत दर्ज कराई थी और कांग्रेस पार्टी की तरफ झुकाव दिखाने के लिए उन्हें हटाए जाने की मांग की थी. इसी तरह ज्योति का 6 महीने का कार्यकाल भी विवादों से घिरा रहा था. जब मौजूदा प्रधानमंत्री गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब ज्योति उनके प्रधान सचिव थे.
मुख्य चुनाव आयुक्त रहने के दौरान उन्होंने गुजरात में राज्य सरकार के बंगले का इस्तेमाल किया. इस पर उनकी सफाई यह थी कि वह उसका किराया दे रहे थे. उन्होंने आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों को बिना उनका पक्ष जाने अयोग्य घोषित कर दिया था.
चुनाव आयुक्त को किसी जज की तरह ना सिर्फ निष्पक्ष और न्यायपूर्ण होना चाहिए बल्कि उसे वैसा दिखना भी चाहिए. अगर आयोग यह भरोसा गंवा देगा तो लोकतंत्र पर आस्था कमजोर होगी और उससे अराजकता का जन्म हो सकता है.
इसलिए चुनाव आयुक्त के चयन के लिए एक समिति बनाई जानी चाहिए. इसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और लोकसभा अध्यक्ष सदस्य हो सकते हैं. समिति के सदस्यों के तौर पर देश के मुख्य न्यायाधीश और उपराष्ट्रपति (राज्यसभा के प्रमुख) के नाम भी जेहन में आते हैं, लेकिन उपराष्ट्रपति शायद इसमें सरकार का ही पक्ष रखेंगे.
वहीं, न्यायपालिका को उस अंपायर के सेलेक्शन प्रोसेस से दूर रहना चाहिए, जो कार्यपालिका प्रमुख चुने जाने की प्रक्रिया की निगरानी करता है. चुनाव आयुक्त के चयन का कोई परफेक्ट तरीका नहीं हो सकता, लेकिन प्रक्रिया में अधिक भागीदारी, प्रतिनिधित्व और विविधता हो, वह सरकार के किसी को चुनाव आयुक्त बनाने से तो बेहतर ही होगी.
(लेखक जाने-माने वकील हैं)
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