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मोदी को हराना है तो मोदी को भुलाना होगा,कांग्रेस-छोटे दल नहीं समझ रहे बेसिक गणित

विपक्षी दलों को तय करना है कि 2024 में एक साथ तैरेंगे या एक साथ डूबेंगे?

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हम सभी ने एक गांव के उस काल्पनिक बूढ़े की कहानी पढ़ी है, जिसने अपनी मृत्युशैय्या पर आपस में झगड़ रहे बेटों को बुलाया. हम जानते हैं कि आपस में लड़ रहे बेटे, जब डंडे की गठरी नहीं तोड़ पाए तो उन्हें किस तरह अपनी मूर्खता का अहसास हुआ और फिर उन्होंने 'एकजुट’ होने का फैसला किया. अब आज के समय में इस कहानी को लेकर दो गंभीर सवाल उठते हैं, क्या बूढ़ा अपने बेटे और बेटियों को बुलाएगा. दूसरा, ज्यादा महत्वपूर्ण, प्रश्न है कि यदि बूढ़ा जिंदगी का पाठ दिए बिना ही गुजर गया तो लड़ने वाले बेटे और बेटियों का क्या होगा ?

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आज हालात कुछ ऐसे ही लगते हैं क्योंकि भारतीय जनता पार्टी (BJP) की चार राज्यों में प्रो इनकम्बैंसी जीत ने मतदाताओं के सामने BJP के खिलाफ ‘विश्वसनीय संयुक्त मोर्चा" की जरूरत को बढ़ा दिया है. साथ ही इसे बनाने में विपक्ष की काबिलियत पर दर्जनों सवाल उठाए हैं , क्योंकि इस मजबूत BJP का नेतृत्व नरेंद्र मोदी कर रहे हैं.

पहला प्रश्न तो यही पूछना चाहिए कि– क्या अनगिनत विपक्षी पार्टियां और नेता क्या सच में संयुक्त विपक्षी ताकत बनाना चाहते हैं ? बहुतों के मन में इसको लेकर शंका है.

अगर जवाब ‘हां ‘ है तो दूसरा सवाल है कि फिर वैसा महागठबंधन कैसे बनेगा जहां भारतीय मतदाताओं को लगे कि ये, NDA से अच्छी सरकार मुहैया करा सकती है ?

क्या क्षेत्रीय दल अपना अहंकार खत्म कर सकते हैं ?

इन पंक्तियों के लेखक को पहले सवाल का जवाब ‘हां‘ में मिलने की बहुत उम्मीद नहीं है. बहुत छोटा राज्य गोवा जहां से लोकसभा के दो सदस्य हैं, वहां से इसका सबूत मिल जाएगा. साल 2017 में बीजेपी ने लगभग गोवा में जनादेश को चुरा लिया, जो कि उसके खिलाफ पड़ा था. 40 सदस्यीय विधानसभा वाले गोवा में पार्टी को 13 सीट मिली थी जबकि कांग्रेस को 17 सीटें. तब पार्टी के मुख्यमंत्री अपनी सीट भी हार गए थे. कांग्रेस को सिर्फ 3 सीटों की जरूरत थी. अन्य 10 लोग जो चुनावी जीते थे, वो भी बीजेपी विरोधी थे, बावजूद इसके ये बीजेपी ही थी जिसने राज्य में सरकार बना लिया.

गोवा का नैतिक पाठ भूलकर 2022 के नतीजों पर जल्दी से आते हैं. बीजेपी अलोकप्रिय थी और 10 साल का एंटी इनकम्बैंसी झेल रही थी. आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल और TMC की ममता बनर्जी ने अकेले चुनाव लड़ने और बिना कांग्रेस का साथ लिए बीजेपी को हराने का एलान किया.. आम आदमी पार्टी वहां कुछ साल से थी लेकिन ममता दीदी ने अचानक गोवा जाने का फैसला क्यों किया ये एक रहस्य बना रहेगा. नतीजा 40 सीटों में बीजेपी 20 जीती, तो कांग्रेस 12. बीजेपी का वोट शेयर कांग्रेस से 10 फीसदी ज्यादा था. AAP और TMC ने मिलकर एंटी इन्कम्बैंसी वाला 12 फीसदी वोट ले लिया, जो कि इनके नहीं रहने पर पक्का ही कांग्रेस को ही जाता. ये कोई रॉकेट साइंस नहीं , सिर्फ सामान्य गणित है.

महत्वकांक्षाओं का फायदा बीजेपी और मोदी कैसे उठाते हैं ?

बीजेपी 5 और विधायकों का समर्थन जुटाकर राज्य में लगातार तीसरी बार सरकार बना लेगी. अगर गोवा जैसे छोटे राज्यों में ममता बनर्जी और केजरीवाल जैसे क्षेत्रीय दल अपने अहंकार को नहीं छोड़ सकते तो फिर आप सोच सकते हैं कि दिल्ली की गद्दी की लड़ाई के लिए वो क्या करेंगे ?

केजरीवाल के सहयोगी सोचते हैं कि उन्होंने पिछले 5 साल से गोवा में काफी मेहनत की थी और अगर ममता दीदी ने अंतिम वक्त में एंट्री नहीं मारी होती तो उनका आंकड़ा राज्य में बेहतर हुआ होता.

पंजाब में AAP की जीत के बाद अब उनकी मांग को गंभीरता से लेना होगा . जब हम विश्लेषण करते हुए ये लेख लिख रहे हैं तो AAP ने औपचारिक तौर पर एलान कर दिया है कि वो पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ेंगे. अब इससे वो ममता का नुकसान वहां करेंगे या मोदी का ? क्या मोदी और बीजेपी इसका फायदा नहीं उठाएगी ..और वो उनके अहंकार को बढ़ाएगी ताकि 2024 में लोकसभा में भी लगातार तीसरी बार वो जीतकर सरकार बना सकें ?

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कांग्रेस के बिना यूनाइटेड फ्रंट नहीं

अवश्य, बीजेपी ने जो वर्चस्व इन चुनाव नतीजों में दिखाया है वो विपक्षियों के लिए वेक-अप कॉल होगा और ये एक अलार्म की तरह ही होगा जहां उन्हें सोचना चाहिए ‘हम 2024 में एक साथ तैरेंगे या एक साथ डूबेंगे ?

चूंकि राजनीति में कुछ भी संभव है- यहां एक हफ्ता भी बहुत लंबा वक्ता होता है. बस ये मानकर चलिए कि सभी विपक्षी पार्टियां विपक्ष के अनऑफिशियल पैट्रियार्क शरद पवार की बात सुनते हैं, जो कि ये कहते रहे हैं कि कांग्रेस के साथ मिलकर एक विपक्षी मोर्चा बनाना 2024 में NDA को हराने के लिए न्यूनतम शर्त है. जब भी ममता और KCR उनसे मिलते हैं तो वो यही बात कहते हैं.

एक वक्त में देश का प्रधानमंत्री बनने की चाहत रखने वाले (जब 1991 में कांग्रेस ने ज्यादा सेफ पी वी नरसिम्हा राव को चुना) सियासी चाल के माहिर ग्रैंडमास्टर शरद पवार बहुत सही बात कहते हैं कि. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि विधानसभा चुनावों में कौन सी पार्टी कितनी बड़ी जीत हासिल करती है , केंद्रीय स्तर पर बीजेपी से लड़ने और मोदी को चोट पहुंचाने के लिए बिना कांग्रेस को साथ लिए लड़ने का ख्याल भ्रामक है और जो ऐसा सोचते हैं उनको साल 2024 में कुछ भी हासिल नहीं होगा. याद रखिए इसी तरह का लचर ‘यूनाइटेड फ्रंट’ साल 2009 में बीजेपी ने भी UPA के खिलाफ खड़ा किया था , नतीजा ये हुआ कि विनम्र मनमोहन सिंह जैसे नेता ने भी कांग्रेस को 145 से बढ़ाकर 206 सीटों पर ले गए. मनमोहन सिंह के कट्टर प्रशंसक भी मानते हैं मनमोहन सिंह करिश्माई नेता नहीं थे, और चुनावी जादूगर तो बिल्कुल ही नहीं. अब जरा सोचिए करिश्माई मोदी क्या कुछ कर सकते हैं.

ये बुनियादी गणित है

किसी भी तरह से ये प्राइमरी स्कूल स्तर का अकंगणित है, कांग्रेस अभी राष्ट्रीय पार्टी है और इसका वोट बेस 20% है. हम कैसे इसे मृत मानकर आगे बढ़ सकते हैं और 2024 के निर्णायक लड़ाई में सभी एक साथ लड़ने इंकार कर सकते हैं ?

कांग्रेस अभी भी बीजेपी से लोकसभा की 195 सीटों पर सीधी टक्कर में है, अगर इसमें केरल के 20 सीटों को भी जोड़ लें जहां बराबरी की लड़ाई हो तो आंकड़ा 215 पर पहुंच जाता है, जहां मुकाबले में कांग्रेस या तो नंबर वन रह सकती है या फिर नंबर टू.

अब जरा, यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस शासित राज्य झारखंड, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, जहां कांग्रेस जूनियर पार्टनर है, की 101 सीटों को देखें , इसमें बिहार के तेजस्वी यादव को हमने नहीं शामिल किया है क्योंकि वो पहले ही कांग्रेस से नाता तोड़ चुके हैं. इसलिए, व्यवहारिक तौर पर कांग्रेस और मौजदा UPA सहयोगी 316 लोकसभा सीटों पर कांग्रेस , बीजेपी से सीधी टक्कर में है. क्या क्षत्रप जो बची हुई 227 सीटों पर बीजेपी को पूरी तरह से हराकर प्रधानमंत्री बनने का सपना देखते हैं ? लोकसभा चुनाव में अगर ये सभी 227 सीटें जीत भी जाएं तो जरूरी बहुमत से 45 सीटें ये पीछे रह जाएंगे क्योंकि बहुमत के लिए 272 का जादुई आंकड़ा चाहिए. या फिर वो ये उम्मीद करते हैं कि बीजेपी 272 से कम सीटें 2024 में जीतेगी और कांग्रेस सरकार बनाने में उन्हें मदद करेगी ?

और क्यों कांग्रेस ऐसा करेगी जबकि ममता के पास 42 सीटें ही हैं (अगर ये भी मान लें कि वो सभी 42 सीटें जीत जाएंगी) और अरविंद केजरीवाल के पास 20 सीटें है (अगर ये भी मान लें कि वो दिल्ली और पंजाब की सभी सीटें जीत जाएंगे). इसमें के चंद्रशेखर राव को हैदराबाद से सभी 17 सीटें भी दे दें.
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सभी दल वंशवादी हैं

साथ ही , सिर्फ कांग्रेस को क्यों वंशवाद के लिए जिम्मेदार ठहराएं जबकि विपक्ष की लगभग सभी पार्टियां यही कर रही हैं . समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, राष्ट्रीय जनता दल, झारखंड मुक्ति मोर्चा, इंडियन नेशनल लोकदल, बीजू जनता दल, द्रविड़ मुनेत्र कषगम DMK, तेलंगाना राष्ट्र समिति, , शिवसेना, राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी, और शिरोमणि अकाली दल. और नेशनल कॉन्फ्रेंस. पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, TMC. सभी पार्टी के भीतर वंशवादी शासन ही चला रहे हैं. अभी तक सिर्फ आम आदमी पार्टी और लेफ्ट पार्टियां एक अपवाद हैं. मोदी ये जानते हैं और इसलिए उन्होंने इस चुनावी कैंपेन में विपक्ष के वंशवाद का मसला खूब उछाला. लेकिन वंशवादी होने के चलते कांग्रेस को नरेंद्र मोदी ने बहुत तरजीह नहीं दी तो फिर मतदाताओं के लिए भी ये बड़ा मसला क्यों होगा ?

UPA में और प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश रखने वाले सिर्फ एक शरद पवार ही ऐसे हैं जो चुनावी गणित और समीकरण को ठीक से समझते हैं. वो यूं ही नहीं कहते रहते कि कांग्रेस के बिना कोई भी बीजेपी विरोधी मोर्चा परवान नहीं चढ़ सकता ?

क्या वंशवादी अब थोड़ा नीचे उतरकर देख सकते हैं ?

स्पष्ट तौर पर क्षेत्रीय दलों को अब थोड़ा झुकना पड़ेगा और नीचे उतरकर जमीनी हकीकत समझनी होगी. लेकिन निश्चित तौर पर नेहरू-गांधी परिवार को कुछ ज्यादा ही नीचे उतरकर पानी नापना होगा. ममता बनर्जी , के चंद्रेशेखर राव और अरविंद केजरीवाल मोदी को साल 2024 में चुनाव में जीतता हुआ देख सकते हैं और कुछ दिन और अपने अपने गढ़ों में सरकार चलाकर संतुष्ट रह सकते हैं लेकिन वो राहुल गांधी को विपक्ष के नेता के तौर पर नहीं मानेंगे.

लेकिन उन्हें क्यों ऐसा करना चाहिए ? हम यहां उनके अहंकार नहीं सियासी समझ की बात कर रहे हैं. यह संदेहास्पद है कि भारत के किसी अन्य दूसरे राजनेता का इतना खराब चुनावी ट्रैक रिकॉर्ड रहा हो और इसके बाद भी वो पार्टी के लिए आधिकारिक रूप से अध्यक्ष या गैर-अध्यक्ष के तौर पर निर्णय लेना जारी रखता हो.

गांधी परिवार को यह स्वीकार करना होगा कि उनके गौरवशाली दिन बीत चुके हैं और अब उन्हें अवश्य नीचे उतरकर पानी की गहराई आंकनी चाहिए. और एक गैर कांग्रेसी और पूर्व कांग्रेसी नेता शरद पवार को एक राष्ट्रीय वैकल्पिक नेता के तौर पर मंजूर कर लेना चाहिए. संक्षेप में, यदि वे गंभीर हैं, तो उन्हें यूपीए का हिस्सा बने रहना चाहिए लेकिन इसे चलाने के लिए इसे एक कुशल ड्राइवर को सौंप देना चाहिए. इसके अलावा कांग्रेस भी गैर गांधी नाम के नेता के साथ अच्छा कर सकती है. चुनावी तौर पर अगर देखें तो इसका वोट शेयर 2009 में गांधी नाम के साथ 28 फीसदी पर रहा था जबकि 1996 में पी वी नरसिम्हा राव के समय ये 29 फीसदी पर था. सोनिया की अगुवाई में बहुत ज्यादा जोर शोर से मनाई जाने वाली 2004 की हकीकत में सीताराम केसरी की अगुवाई में 1998 में कांग्रेस की जीत का ही दोहराव था. सोनिया गांधी 27 फीसदी वोट शेयर के साथ 145 सीटें हासिल जबकि सीताराम केसरी ने 1998 में 26 फीसदी वोट के साथ 141 सीटों पर जीत हासिल की थी.

गांधी परिवार ने कांग्रेस की इतनी किस्मत गढ़ी और इतना फर्क बढ़ा उस टॉयलेट तख्ता पलट से. अब जरा इसकी तुलना राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस से करिए तो आप सही संदर्भों और नजरिए के साथ नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी के ग्रैंड सक्सेस को समझ पाएंगे.

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आखिरी मील की चुनौती

आगे क्या होगा यदि 'वंशवादी’ सच को स्वीकार कर विनम्रतापूर्वक BJP के खिलाफ एक 'संयुक्त मोर्चा' पेश करते हैं , जहां वे सामने से या पर्दे के पीछे से ऑटोमैटिक लीडर नहीं हैं?

ऐसा होने की संभावना काफी कम है पर ये मान लें क्योंकि राजनीति में भी कुछ भी होने की संभावना रहती है. अगर यूनाइटेड फ्रंट मोदी को हराने को लेकर गंभीर है तो इन्हें सबसे पहले मोदी को भूलना होगा..इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि विपक्षा का साझा नेता कौन है.. अगर किसी को मोदी के सामने विकल्प के तौर पर लड़ाया जाता है तो उनकी हार पक्की होगी. ये बेकार है.

क्या अति-महत्वाकांक्षी और अहंकार से प्रेरित क्षत्रपों का समूह और खास "शाही" परिवार, यह सब दो साल से भी कम समय में कर सकता है और 2024 के लिए एक साथ चुनाव प्रचार शुरू कर सकता है? खैर, राजनीति में एक सप्ताह एक लंबा वक्त होता है और बहुत विचित्र चीजें हुई हैं , जैसे रेत पर बने महल भी तेज हवा के खिलाफ टिके रहते हैं.

कई समझदार और बुद्धिमान विश्लेषक 2019 से पहले से ही कहते आ रहे हैं कि मोदी खुद को ही लोकसभा चुनाव के दौरान मुद्दा बनाए रखेंगे. अब इस हथियार की एक ही काट है.. रोजी रोटी के मुद्दे पर बीजेपी (बड़ा नंबर BJP शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की है) सरकार की नाकामी और उसकी घेराबंदी. विपक्ष को जनता को लगातार ये बात बतानी होगी कि उनको एक बेहतर भविष्य और सरकार की दरकार है . विपक्ष के पास उम्मीद तभी है जब मतदाता साल 2024 में अपना वोट उसी तरह डाले जैसे कि नगरपालिका चुनाव या फिर विधानसभा चुनाव में बडे स्थानीय मुद्दों पर डाले जाते हैं, ना कि एक बड़े राष्ट्रीय चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों पर.

सभी व्यावहारिक लक्ष्यों के लिए असल में देखें तो भारत में मतदाता संसदीय प्रणाली के बजाय राष्ट्रपति प्रणाली के रूप में मतदान करते रहे हैं. लंबे समय तक इसका फायदा कांग्रेस को मिलता रहा, लेकिन अब बाजी पलट गई है. अब ऐसे में ‘लोकल पहले’, विकेंद्रित चुनाव और फर्स्ट पास्ट दो पोस्ट जैसी मूल बातों पर जाने के बाद ही मोदी-समर्थक/मोदी-विरोधी जनादेश से ऊपर हटकर वोट करने के लिए मतदाताओं से कह सकते हैं.

मोदी को हराने के लिए ‘मोदी हराने’ से हटकर देखना होगा

जब तक विपक्ष लोगों से मोदी को हराने के लिए कहता रहेगा, नतीजे हमेशा मोदी के पक्ष में रहेंगे. अगर वे मोदी विरोधी नैरेटिव पर अपना अभियान जारी रखते हैं, तो मोदी, चर्चा का केंद्र बने रहेंगे. जितना अधिक वो जीतते हैं, उतना ही उनके खिलाफ कैंपेन बढ़ता है.

आप जितना भी उनके खिलाफ कैंपेन करेंगे वो और बड़ा जनादेश लेकर आएंगे. यह एक ऐसी बात है कि जो उनके पक्ष में बहुत ताकत से काम करती है और विपक्ष को जीत की परिधि से बाहर धकेलती है.

पूरा विपक्ष (और उनसे सहानुभूति रखने वाला मीडिया) हर हार के बाद इस चक्र को तेजी से घुमाता है. जैसा कि साल 2020 में इंडियन फिल्म छलांग में कहा गया है ‘टेकनीक ही गलत है तुम्हारी’ .

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