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संडे व्यू: चुनाव नतीजों पर आंखें, जीडीपी के आंकड़े खुशनुमा लेकिन नाजुक

इस रविवार पढ़ें पी चिदंबरम, करन थापर, टीएन नाइनन, श्याम शरण और संजय बारू के लेखों का सार.

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महंगाई-बेरोजगारी के साए में हुए चुनाव, नतीजों पर आंखें

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के दौरान महंगाई और बेरोजगारी की लंबी छाया चुनावों पर पड़ी है. मोदी ने दोनों से परहेज किया लेकिन कांग्रेस ने दोनों ही विषयों को लेकर कड़ा प्रहार किया. कर्नाटक में आजमाए गये सफल मॉडल के बाद कांग्रेस की गारंटी शक्तिशाली हथियार बन गये थे. जाति सर्वेक्षण के वादे ने बिल्ली के गले में घंटी बांध दी. मोदी का एकमात्र मुद्दा भ्रष्टाचार था. कांग्रेस के शासनकाल में छत्तीसगढ़ में प्रति व्यक्ति आय 2018 में 88,793 रुपये से बढ़कर 1,33,897 रुपये (2023) हुआ, 40 लाख लोग गरीबी से बाहर आए. बीजेपी मोदी के चेहरे पर चुनाव में उतरी.

चिदंबरम लिखते हैं कि मध्यप्रदेश में मौजूदा शिवराज सिंह सरकार व्यापक रूप से दलबदल कराने वाली सरकार माना जाता है. बीजेपी का नेतृत्व अब चौहान पर भरोसा नहीं करता. कई केंद्रीय मंत्री और सांसद मैदान में उतरे. सत्ता के खिलाफ असंतोष कम करने की कोशिशें हुईं.

यहां शिवराज सिंह चौहान का 14 साल का कार्यकाल बनाम लाडली बहना योजना की स्थिति है. कमलनाथ पर कांग्रेस को जीत दिलाने का भरोसा है. वहीं, राजस्थान पहेली है. 1993 के बाद से अदल-बदल कर बीजेपी और कांग्रेस सरकारें आती रही हैं. निर्दलीय यहां दोनों के ‘गुप्त हथियार’ हैं. कोई भी पार्टी अपने दम पर आंकड़ा नहीं पा सकती.

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तेलंगाना के लिए संघर्ष करने वाले के चंद्रशेखर राव को अब ‘फार्महाउस मुख्यमंत्री’ कहा जाता है. एक परिवार द्वारा सरकार चलायी जा रही है. यही बीआरएस की ताकत और कमजोरी दोनों है. रेवंत रेड्डी के नेतृत्व में कांग्रेस ने उल्लेखनीय बढ़त हासिल की है और बीआरएस को पुरजोर चुनौती दे रही है. अगर कांग्रेस बीआरएस को हराती है तो यह ग्रामीण और युवा वोटों के कारण होगा.

मिजोरम में एमएनएफ और जेडपीएम दोनों ने जोमोस और कुकी के बीच भाईचारे के बंधन को भुनाया. लोगो के गुस्से को भांपते हुए मोदी ने मिजोरम का अपना प्रचार दौरा रद्द कर दिया.

यहां एमएनएफ और जेडपीएम के बीच की लड़ाई है. जो भी जीतेगा, उससे उम्मीद की जाती है कि वह केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी का समर्थन करेगा. पांच राज्यों के चुनाव इस सवाल पर निर्णायक होंगे कि 2024 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी के लिए प्रमुख चुनौती कौन होगा. यह उन मुद्दों को भी सामने लाएगा जो लोगों के लिए सबसे अधिक चिंता का विषय है.

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जीडीपी के आंकड़े खुशनुमा, पर नाजुक

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि भारत की जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़े खुश करने वाले हैं मगर भ्रामक नहीं है. एक चेतावनी भी आनी चाहिए थी. नाजुक, एहतियात बरतें! जुलाई-सितंबर तिमाही के लिए 7.6 फीसदी जीडीपी वृद्धि बताने वाले आंकड़ों पर नजर डालिए. विनिर्माण क्षेत्र में पिछले साल की समान तिमाही के मुकाबले 13.9 फीसदी वृद्धि दिखी है जो चौंकाने वाली है. आंकड़ा इतना चढ़ा इसलिए है कि जुलाई-सितंबर तिमाही में विनिर्माण की दर सबको सदमे में डालते हुए 3.8 फीसदी घट गयी थी. इस तरह

इस बार तुलना करने के लिए आधार बहुत नीचे था. इस तिमाही और साल भर पहले की तिमाही के आंकड़े लीजिए तो आपको 10.1 फीसदी वृद्धि ही नज़र आएगी.

नाइनन लिखते हैं कि हिसाब-किताब लगाने पर 13.9 फीसदी का आंकड़ा अगर 5 फीसदी रह जाता है तो हालिया तिमाही में जीडीपी वृद्धि भी 7.6% से घटकर करीब 6% रह जाएगी. जीडीपी आंकड़ों में मुद्रास्फीति का भी ख्याल रखने के लिए लेखक आगाह करते हैं.

आंकड़े कभी एकतरफा नहीं होते. यदि किसी एक अवधि के आंकड़े बढ़ा-चढ़ा दिए जाते हैं तो किसी दूसरी अवधि के आंकड़े अपने आप कम हो जाते हैं. वृद्धि दर में बढ़ोतरी की उम्मीद का कारण निजी निवेश है. निजी खपत में कमतर वृद्धि और व्यक्तिगत ऋण में तेज रफ्तार उल्लेखनीय है. जिन उपभोक्ताओं ने कर्ज लिए हैं वे आगे की तिमाहियों में कर्ज चुकाएंगे, खर्च नहीं करेंगे. इस तरह खपत में लगातार वृद्धि होने के कारण जीडीपी के आंकड़े नीचे आएंगे और निवेश भी रुकेगा. फिर भी भारतीय अर्थव्यवस्था वैश्विक अर्थव्यवस्था के मुकाबले दोगुनी रफ्तार से बढ़ रही है.

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फिलीस्तीनी अधिकारों की अनदेखी

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि अगर इजरायल और फिलीस्तीन के बीच गहरी होती खाई को समझना हो तो इस बात को जानना जरूरी है कि 20 लाख फिलीस्तीनियों के साथ इजरायली क्या बर्ताव कर रहे हैं. ये लोग वेस्ट बैंक में रहते हैं जहां 1967 से अवैध कब्जा है. इजरायल में लोकतंत्र है लेकिन केवल यहूदियों के लिए. इजरायलियों को स्वदेश वापसी का अधिकार है लेकिन फिलीस्तीनियो को नहीं. यह यूएन रिजोल्यूशन 194 का उल्लंघन है जिसमें हर फिलीस्तीनी को वतन वापसी का अधिकार है. इजरायल में बिना किसी कारण के किसी भी फिलिस्तीनी को गिरफ्तार किया जा सकता है. युद्धविराम के दौरान अगर 240 लोग रिहा के गये हैं तो 310 लोग हिरासत में ले गये हैं.

थापर लिखते हैं कि 1967 में 7.5 लाख इजरायली वेस्ट बैंक में बस गये और वहां रह रहे लोगों को भगा दिया. इजरायली सेना ने उनका साथ दिया. फिलीस्तीनियों की रक्षा नहीं की. युद्ध विराम के बाद इजरायली मंसूबे भी संदिग्ध लग रहे हैं.

20 लाख गाजा निवासियों को दक्षिणी गाजा के अल मवासी में शरण देने की तैयारी चल रही है जो महज 2 किमी लंबा और 4 किमी चौड़ा है. इस तरह 1948 के बाद एक बार फिर गाजा के लोग रिफ्यूजी हो जाएंगे. यूएन एजेंसी के हवाले से लेखक बताते हैं कि यहां बालू और नारियल के पेड़ों के अलावा कुछ भी नहीं है. बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर तक नहीं हैं. डब्ल्यूएचओ के डायरेक्टर जनरल ने अल मवासी प्रस्ताव को विध्वंसक करार दिया है. लेखक आगाह करते हैं कि जल्द ही इजरायल को रंगभेद सरकार के तौर पर पहचाना जाएगा.

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दुबई से उम्मीद ना रखे दिल्ली

श्याम शरण ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि दिल्ली को दुबई से बहुत उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. फिर भी ऊर्जा के क्षेत्र में बदलाव के लिए हम तत्पर हैं. कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (COP28) का 28वां सम्मेलन 30 नवंबर और 12 दिसंबर के दरम्यान जारी है. गंभीर रूप से बंटे विश्व में गंभीर वैश्विक और सामूहिक प्रयास बहुत मुश्किल हो गया है. यूक्रेन और गाजा के दो युद्धों को हम देख रहे हैं.

इन युद्धों ने दुनिया को इस तरह ध्रुवीकृत कर दिया है कि ऐसा शीतयुद्ध के समय भी नहीं देखा गया था. वर्तमान में फॉसिल फ्यूएल्स पर निर्भरता से ऊपर उठकर तेजी से हमें रिन्यूएबल एनर्जी की ओर बढ़ना होगा. इसके लिए बड़े पैमाने पर संसाधनों की आवश्यकता होगी. युद्ध के कारण यह पश्चिम देशों के लिए भी मुश्किल हो गया है.

श्याम शरण लिखते हैं कि इस बात के संकेत हैं कि कोयला, तेल और गैस जैसे फॉसिल फ्यूएल को फेज आऊट करने के कोई संकेत सम्मेलन से उभरते नहीं दिख रहे हैं. 60 फीसदी उत्सर्जन तो तेल और गैस के उपयोग के कारण हो रहा है.

इस पर भारी निवेश जारी है जबकि सारा दबाव कोयले को लेकर है. भारत जैसे देशों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. भारत प्रति व्यक्ति जितना ग्रीन हाऊस गैस का उत्सर्जन करता है वह वैश्विक औसत के आधे से भी कम है. लेकिन हमारा समग्र उत्सर्जन वैश्विक उत्सर्जन का 7 फीसदी है. “भारत कैसे क्लाइमेट चेंज के लिए महत्वपूर्ण देश साबित होगा”- इस विषय पर टाइम मैगजीन ने 12 जनवरी 2023 को कवर स्टोरी प्रकाशित की थी. चीन की तर्ज पर एमिशन को लेकर लक्ष्य हासिल करने के लिए भारत पर खासा दबाव है. ऐसे में सीओपी 28 से हमें कम ही उम्मीद रखनी चाहिए.

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वैश्विक गुरू प्रोपेगेंडा का खुद शिकार हुआ भारत

संजय बारू ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि भारत को वैश्विक शक्ति के रूप में बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने का खामियाजा देश को भुगतना पड़ रहा है. हाल में तेजस की उड़ान के बाद ‘स्वदेशी क्षमता’ को लेकर दावे किए गये. वास्तव में तेजस स्वदेशी एअरक्राफ्ट तो है लेकिन दशकों पहले बना है. यह सबको पता है कि भारतीय सशस्त्र बल आयात पर निर्भर है. सरकार को श्रेय जरूर जाता है कि उसने इसके बावजूद आत्मनिर्भरता को प्रमोट करने में कामयाबी हासिल की है.

कई बार राजनीतिक नेतृत्व अपने ही प्रोपेगेंडा पर भरोसा करने लग जाता है. बहुत कुछ ऐसा ही हुआ है कि अमेरिका और कनाडा में हत्या की कथित साजिश रचने के मामले में. संजय बारू सवाल उठाते हैं कि

  • क्या भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा प्रबंधकों ने वाकई ऐसा सोचा कि वे इससे बच निकलेंगे?

  • क्या यह राजनीतिक नेतृत्व को पता था?

  • क्या यह बुरी सलाह थी?

संजय बारू लिखते हैं कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की हाल की बैठक इतना बताने के लिए काफी है कि जियो पॉलिटिकल स्पेस में भारत के लिए जगह वास्तव में कम होती चली गयी है.

भारत ने कई तरह की शक्तियां अर्जित की है लेकिन कभी मूल्यों से समझौता नहीं किया. अमेरिकी जियो पॉलिटिकल एनालिस्ट के हवाले से लेखक ने बताया है कि हाल में एक भारतीय सरकारी अधिकारी ने अमेरिकी नागरिक पर इस्तेमाल के मकसद से बंदूक किराए पर ली थी. अमेरिका इस पर इसलिए चुप नहीं रह सकता कि उसे चीन को संतुलित करना है. यह पहला मौका नहीं है जब देश की ताकत और प्रभाव को लेकर राजनीतिक नेतृत्व भ्रम का शिकार हुआ है.

ऐसा 1962 में भी हो चुका है जब जवाहरलाल नेहरू ने बतौर प्रधानमंत्री भारत की क्षमताओं को बढ़ा-चढ़ाकर आंका था. निस्संदेह भारत आज उभरती शक्ति है. जल्द ही भारत मल्टी पोलर ग्लोबल पावर सिस्टम में महत्वपूर्ण ध्रुव होगा. हम अमृतकाल में पहले से हैं और दुनिया हमारी तरफ देख रही है.

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