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इमैनुएल मैक्रों जीत तो गए लेकिन पता चल गया कि फ्रांस बहुत बंट चुका है

Emmanuel Macron जानते हैं कि ये वोट उनके लिए नहीं, Le Pen के विरोध में था

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पिछले 20 सालों में इमैनुएल मैक्रों पहले ऐसे फ्रांसीसी राष्ट्रपति हैं जिन्हें दूसरी बार चुना गया है और उनके दूसरी बार चुने जाने के साथ ही लोगों में ये लोकप्रिय भावना है कि फ्रांस, यूरोप और दुनिया के लिए उम्मीदें अभी बाकी हैं.

हालांकि भले ही उन्होंने यूरोप की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए अगले 5 साल सुरक्षित कर लिए हैं और अपनी धुर दक्षिण पंथी प्रतिद्वंद्वी Marine Le Pen को हराया है, लेकिन एक ऐसे देश में जहां ध्रुवीकरण तेजी से बढ़ रहा है, वहां जीत का इतना कम अंतर ये इशारा भी कर रहा है कि मैक्रों के लिए आने वाले 5 साल मुश्किल रहेंगे. यहां ये नहीं भूलना चाहिए कि उनकी सफलता के उत्साह को पिछली आधी शताब्दी में दिखे सबसे कम वोटर टर्नआउट ने फीका किया है.

हालांकि ये सबकुछ अभी खत्म नहीं हुआ है. जून में नेशनल असेंबली के चुनाव होने वाले हैं. मैक्रों के लिए जरूरी कि वो युवाओं, वोटिंग से दूर रहने वालों और ले पेन के वोटरों के पास पहुंचें. अगर उनके पास स्पष्ट जीत नहीं होगी तो फ्रांस अगले 5 सालों के लिए अस्थिर हो सकता है.

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साल 2017 में मैक्रों इस वादे के साथ सत्ता में आए थे कि वह फ्रांस की राजनीति को एक नया आकार देंगे. लेकिन पिछले 5 सालों में पूरे देश में बड़े स्तर पर प्रदर्शन हुए. इन प्रदर्शनों का नेतृत्व करने वाले लोगों के एक बड़े समूह का मानना था कि मैक्रों ने उनके हितों का प्रतिनिधित्व नहीं किया. मैक्रों का रवैया वोटरों को अहंकार से भरा हुआ लगा और वो लोग उनसे खासे नाराज दिखाई दिए जिन्होंने उनका विरोध किया था. यहां यलो वेस्ट्स के Gillet Jaunes को नहीं भूलना चाहिए.

चुनाव में जीत मैक्रों के लिए मौका है कि वो चीजों को सही कर सकें. मुझे लगता है कि उन्होंने अपने खिलाफ लोगों के गुस्से को पहचान लिया है और ये भी समझ लिया है कि ये वोट उनके लिए उतना नहीं था, जितना कि ले पेन के खिलाफ था.

उन्होंने ये बात स्वीकार भी की, जब अपनी एक्सेपटेंस स्पीच में उन्होंने कहा, मैं जानता हूं कि बड़ी संख्या में फ्रांस के लोगों ने आज मेरे लिए वोट किया है, लेकिन उनका ये वोट मेरे विचारों के समर्थन में नहीं है, बल्कि धुर दक्षिण विचारों को रोकने के लिए है. इसके साथ ही उन्होंने अपने समर्थकों से अपील की, कि वो सभी के साथ उदार और सम्मानपूर्ण तरीके से रहें क्योंकि, देश बहुत ज्यादा संशय और बहुत अधिक मतभेद से विभाजित है.

उन्होंने आगे कहा, मैं किसी एक कैम्प का उम्मीदवार नहीं रहा हूं, बल्कि अब सभी का राष्ट्रपति हूं.
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कैम्पेनिंग के अंतिम दो हफ्तों के दौरान मैक्रों ने बहुत ज्यादा कोशिश की वह अपने ऊपर से अमीर लोगों के राष्ट्रपति होने का टैग हटा दें. उन्होंने वादा किया कि अगले पांच साल वो फ्रांस में पूर्ण रोजगार को वापस लाने में समर्पित कर देंगे और देश में दशकों से चली आ रही बेरोजगारी की स्थिति का अंत करेंगे.

उन्होंने ये भी वादा किया कि उनके कानूनों के नए पैकेज में कॉस्ट ऑफ लिविंग के संकट और रिटायरमेंट की उम्र को बढ़ाने के सवाल को ध्यान में रखा जाएगा. हालांकि जैसे जैसे चुनाव नजदीक आए, उन्होंने अपने ही घोषणापत्र पर कम ध्यान देना शुरू कर दिया और उनका सारा ध्यान इस पर था कि कैसे धुर दक्षिण पंथी, एंटी—इमिग्रेशन विचारों के ले पेन के नेतृत्व वाले फ्रांस को बनने से रोका जाए. ये सोचा नहीं जा सकता था, उस फ्रांस के लिए जो यूरोप की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और एक परमाणु शक्ति संपन्न देश भी है.

जीत की मार्जिन घटी

मध्यवादी मैक्रों को चुनाव में 58.4% वोट मिले जबकि उनकी धुर दक्षिण पंथी प्रतिद्वंद्वी ले पेन को 41.46% वोट मिले. वहीं साल 2017 की बात करें तो जब इन दोनों राजनीतिज्ञों ने फ्रांस के राष्ट्रपति का दूसरे राउंड का चुनाव लड़ा था, तब मैक्रों को 66.1% वोट मिले थे, जबकि ले पेन को 33.9% मिले थे.

हालांकि हाल के चुनाव नतीजों की भविष्यवाणी विश्लेषकों ने पहले ही कर दी थी. लेकिन जीत का कम अंतर मैक्रों के लिए चिंता की बात है और ये बिल्कुल हैरान नहीं करता कि लेन पेन ने भी अपनी हार को स्वीकार करते हुए भी ये कहा कि फिर भी ये हमारी जीत है.

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फ्रांसीसी समाज में खुला विभाजन है. ले पेन को अपने रवैये को बदलने से फायदा हुआ है. वह पहले से ज्यादा नरम हुई हैं और माइग्रेशन, हेड स्कार्फ पर प्रतिबंध और यूरोप के एकीकरण विरोध जैसे संवेदनशील मुद्दों पर बोलने से बचती हैं.

इसके बदले वह महंगाई और आम आदमी की कमजोर होती क्रय शक्ति पर बात करती हैं. ये मध्यमार्गी दक्षिण पंथ और धुर दक्षिण पंथ के बीच की लड़ाई थी और वाम पंथी धड़ा अभी भी पीछे है.

लेकिन अभी जिन तात्कालिक चुनौतियों का मैक्रों सामना कर रहे हैं, वह हैं, जून में नेशनल असेंबली के लिए होने वाले संसदीय चुनाव. इन चुनावों के नतीजे दिखाएंगे कि क्या मैक्रों आसानी से नए कानूनों को पास करा पाते हैं या उन्हें अपने pro-business और pro-European Union (EU) एजेंडे में भारी अड़चनों का सामना करना पड़ता है.

ले पेन के लिए ये लगातार तीसरा चुनाव है जिसे वो हार गई हैं. साल 2011 में उन्होंने अपने पिता Jean-Marie Le Pen से पार्टी की कमान संभाली थी, तब इस पार्टी का नाम नेशनल फ्रंट था. उनके पिता Jean-Marie Le Pen ही इस पार्टी के फाउंडर हैं. ले पेन ने इस प्रयास के साथ पार्टी की कमान अपने हाथ में ली थी वो इसे चुनाव में जीत दिलाएंगी. इसके बाद साल 2012, 2017 और 2022 में उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव लड़ा और पिछले दो चुनावों में वह दूसरे नंबर पर रही हैं.

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फ्रांस में कई राजनीतिक विश्लेषकों की ये राय है कि शायद वो अगले 5 सालों तक खुद को धुर दक्षिण पंथी नेता के तौर पर बनाकर न रख पाएं क्योंकि उन्हें और उनकी पार्टी को धुर दक्षिण पंथी Eric Zemmour और उनकी खुद की भतीजी Marion Maréchal से कड़ी चुनौती मिल रही है.

ले पेन हार गईं लेकिन असर छोड़ गईं

ले पेन ने फ्रांस की राजनीति को बांट दिया है और इससे समाज में खतरनाक ढंग से एक गहरा विभाजन पैदा कर दिया है. अगर आप दूसरे राउंड के चुनावों को देखें तो सबसे बड़ा समर्थन 18 से 34 आयु वर्ग के समूह से मिलता हुआ नजर आएगा. खास तौर से ऐसी महिलाओं का समर्थन जो सेमी स्किल्ड, स्किल्ड और अनस्किल्ड नौकरियां कर रही हैं और खुद को वैश्वीकरण और ऑटोमेशन के गलत तरफ पाती हैं. इसलिए कड़े इमिग्रेशन को लेकर ले पेन की बातों ने इन महिलाओं को अपनी तरफ खींचा है.

दरअसल, कैम्पेनिंग के अंतिम दिनों में ले पेन ने हेडस्कार्फ पर प्रतिबंध के बारे में बोलना भी छोड़ दिया था और खुद को अपने anti-Eurozone वाले बयानों से अलग कर लिया था.

दूसरी तरफ रूस—यूक्रेन युद्ध के बीच मैक्रों की जीत का जोरदार तरीके से स्वागत किया गया है. यूरोपियन काउंसिल के अध्यक्ष Charles Michel ने ट्विटर पर कहा, शाबाश इमैनुएल, इस कठिन और अशांत समय में हमें एक मजबूत यूरोप और एक ऐसे फ्रांस की जरूरत है, जो और अधिक संप्रभु और पहले से ज्यादा कूटनीतिक यूरोपियन यूनियन के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध हो.

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दूसरी तरफ रूस—यूक्रेन युद्ध के बीच मैक्रों की जीत का जोरदार तरीके से स्वागत किया गया है. यूरोपियन काउंसिल के अध्यक्ष Charles Michel ने ट्विटर पर कहा, शाबाश इमैनुएल, इस कठिन और अशांत समय में हमें एक मजबूत यूरोप और एक ऐसे फ्रांस की जरूरत है, जो और अधिक संप्रभु और पहले से ज्यादा कूटनीतिक यूरोपियन यूनियन के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध हो.

फ्रेसिडेंसी ऑफ द कांउसिल ऑफ यूरोप को संभाल रहे मैक्रों ने अपनी महत्वाकांक्षाओं को जाहिर करने में कभी संकोच नहीं किया है और हर उस अवसर का इस्तेमाल किया है जो यूरोपियन प्रोजेक्ट के लिए जरूरी एकता और लोकतंत्र को लेकर आए.

ऐसे समय में जब यूरोप पहले से कहीं ज्यादा संगठित है. चुनाव में मैक्रों की जीत उन्हें यूरोप को अपने जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर और तकनीकों पर भरोसा दिलाने और अपने आप में एक मिलिट्री पावर बनाने की लंबे समय से चली आ रही उनकी योजनाओं को गति देने में मददगार होगी.

उन्होंने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन के साथ बातचीत की थी और ये जीत उन्हें अपने उन प्रयासों को लेकर और ज्यादा आत्मविश्वास देगी कि वो पुतिन को अपनी दिशा बदलने के लिए मना सकें.

इससे अलग रूस समर्थक रवैये के साथ ले पेन की जीत का मतलब होता, यूरोपियन यूनियन और नाटो के साथ फ्रांस के संबंधों में बड़ा बदलाव. फ्रांस यूरोपियन यूनियन की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और इसके पास परमाणु हथियार भी हैं.

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जलवायु को लेकर फ्रांस के एक्शन और लेफ्ट की उम्मीदें

पेरिस जलवायु समझौते के लक्ष्यों के प्रति अपनी वचनबद्धता को लेकर फ्रांस जांच के दायरे में रहा है. वहीं सबसे बड़ा तथ्य ये है कि उग्र वामपंथी धड़े के Jean-Luc Mélenchon जो जरा से अंतर से फाइनल तक पहुंचने से रह गए, उनके वोटरों की एक महत्वपूर्ण संख्या 7.7 मिलियन फर्स्ट राउंड वोटर्स ने कहा कि उन्हें लगा कि वो या तो वोटिंग से दूर रहें या Le Pen को दूर रखने के लिए वोट करें.

कैम्पेनिंग के अंतिम दिनों में मैक्रों ने वामपंथी वोटरों से अपील करने की कोशिश की. उन्होंने पर्यावरण से जुड़ी नीतियों को विस्तार देने का वादा किया, साथ ही जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कार्रवाई को तेज करने की भी बात की. दोबारा राष्ट्रपति चुने जाने के बाद उनका पहला टास्क होगा एक नए प्रधानमंत्री को नियुक्त करना, जिसे लेकर उन्होंने पहले ही वादा किया है कि नए प्रधानमंत्री खास तौर पर जलवायु संकट के समाधान को लेकर समर्पित रहेंगे.

हालांकि, कट्टर वामपंथी समूह मैक्रों के दोबारा चुने जाने और Le Pen के स्कोर के खिलाफ कई फ्रांसीसी शहरों में प्रदर्शन कर रहे हैं. फ्रांसीसी समाज साफ तौर पर गहरे तक बंटा हुआ है और मैक्रों ये बात जानते हैं. उन्होंने वादा किया है कि वो दोबारा उनसे संबंधों को ठीक करेंगे, जिन्होंने वोटिंग से दूर रहना तय किया या जिन्होंने उनके लिए नहीं, बल्कि ले पेन के खिलाफ वोट किया. उन्होंने वचन दिया है कि वह बंटे हुए फ्रांस को एक साथ लेकर आएंगे. उन्हें ये वादा पूरा करना होगा. उन्हें ये साबित करना होगा कि वह सभी के राष्ट्रपति हैं.

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