लगभग 6 साल पहले एक युवा रिपोर्टर (मैंने एक महीने पहले ही उसे रिक्रूट किया था) मेरे पास आया- उसके चेहरे पर दुख था और हाथ में उसकी सैलरी स्लिप. हमने उसे अच्छी खासी पे हाइक दी थी लेकिन पिछले चैनल में उसे जितनी सैलरी मिलती थी, यहां उसकी टेक होम सैलरी उससे कम थी.
मैंने उसके सैलरी स्टेटमेंट पर नजर दौड़ाई और उसे बताया कि ऐसा क्यों हुआ है. पहले वाले चैनल में वह कॉन्ट्रैक्ट पर था, लेकिन हमारे यहां वह एक रेगुलर कर्मचारी था. इसका मतलब यह था कि उसके वेतन का एक बड़ा हिस्सा उसके ईपीएफ (कर्मचारी प्रॉविडेंट फंड) या प्रॉविडेंट फंड खाते में जमा हो रहा था.
''दुखी मत हो'', मैंने उससे कहा, ''यह अच्छी बात है. ईपीएफओ (EPFO) पैसा रखने की अच्छी जगह है. ये फोर्स्ड सेविंग्स हैं और इस पर अच्छा ब्याज मिलता है.''
लेकिन उस नौजवान ने मेरी बात पर भरोसा नहीं किया.
उसने जवाब दिया, ‘’मुझे यह हक होना चाहिए कि मैं अपने पैसे के साथ क्या करना चाहता हूं- यह मैं खुद तय करूं. सरकार को क्यों यह तय करना चाहिए कि मुझे बचत करनी है, अगर मैं खुद बचत नहीं करना चाहता?’’
उसकी बात में दम था. अथॉरिटीज आपको बताती हैं कि पीएफ कटौती आपके अपने फायदे के लिए है लेकिन असल में इसका मकसद सरकार के लिए कैप्टिव पब्लिक सेविंग्स को इकट्ठा करना है और वो भी पूरी वर्किंग लाइफ के लिए लॉक इन होता है.
हमें जिन प्रॉविडेंट फंड खातों में पैसा रखने के लिए मजबूर किया जाता है, उसका इस्तेमाल कौन करता है?
इसका करीब आधा हिस्सा विभिन्न सरकारी सिक्योरिटीज के जरिए लोन्स में बदल दिया जाता है. एक बड़ा हिस्सा लिस्टेड बॉन्ड्स में निवेश किया जाता है जिसे कॉरपोरेट्स, बैंक और दूसरे वित्तीय संस्थान जारी करते हैं.
मुख्यधारा के अर्थाशास्त्री अक्सर यह कहा करते हैं कि टैक्सपेयर के पैसे से ईपीएफ निवेशकों को लाड़ लड़ाया जाता है.
इसमें ज्यादा रिटर्न की गारंटी होती है, तब भी जब लंबे समय में ब्याज दरें गिर जाती हैं. इन अर्थशास्त्रियों का कहना है कि ईपीएफओ (कर्मचारी प्रॉविडेंट फंड संगठन) की ब्याज दरों को मार्केट लिंक्ड होना चाहिए. गारंटीशुदा ब्याज दर से एक्सचेकर पर व्यर्थ का दबाव पड़ता है. वैसे यह तर्क बेसिर-पैर का है और इसके दो कारण हैं-
- पहला, जैसा कि उस रिपोर्टर ने कहा था, ईपीएफ प्रणाली नियमित कर्मचारियों की सैलरी से जबरदस्ती पैसा खींचती है, भले ही वे ऐसा करना चाहें, या न चाहें.
- दूसरा, इसे ऐसे लोगों के रिटायरमेंट के बाद के फायदे के तौर पर देखा जाता है जिन्हें पेंशन नहीं मिलती. इसलिए यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वो इस पर अच्छा रिटर्न दे और ‘मार्केट फोर्स’ के दबाव का बहाना न बनाए.
मगर हर सरकार ने ऐसे पिंक पेपर पंडितों के भाषण सुने हैं और वादे के मुताबिक ब्याज दर चुकाने की जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाने की कोशिश की है. इस तर्क का इस्तेमाल करके ईपीएफ फंड्स को स्टॉक मार्केट में लगाया गया है. दावा किया गया है कि सिर्फ कर्ज में निवेश करने से अच्छा रिटर्न नहीं मिल सकता. इसका सिर्फ एक ही तरीका है कि स्टॉक और शेयर में भी निवेश किया जाए.
कर्मचारी संघ और राजनीतिक दल लगातार इस बात का विरोध करते रहे हैं लेकिन 2015 में ईपीएफओ ने अपनी कुल राशि का एक छोटा हिस्सा बाजार में लगा ही दिया. COVID-19 के भारत पहुंचने से पहले ईपीएफओ लगभग एक लाख करोड़ रुपए एक्सचेंज ट्रेडेड फंड्स या ईएफटी में निवेश कर चुका था. ईटीएफ निफ्टी और सेंसेक्स की तरह मुख्य सूचकांकों के उतार-चढ़ाव से प्रभावित होता है.
और अब यह दांव उलटा पड़ गया है.
8.5 प्रतिशत रिटर्न देने में आनाकानी
इक्विटी पर अच्छा रिटर्न तो मिला नहीं, ईटीएफ के साथ कर्मचारी प्रॉविडेंट फंड संगठन के पांच साला प्रयोग का नतीजा यह हुआ कि 2019-20 के अंत में उसे 8.3 प्रतिशत का नुकसान हो गया. यह एक समग्र आंकड़ा है. कुछ फंड्स के मामले में तो नुकसान 25 प्रतिशत तक हुआ है.
यह नुकसान खराब मनी मैनेजमेंट का परिणाम है लेकिन ईपीएफओ 8.5 प्रतिशत का ब्याज देने में आनाकानी कर रहा है, जबकि उसने इसी दर का वादा किया था. वह यह तय नहीं कर पा रहा कि पूरा ब्याज एक साथ चुकाए या दो किस्तों में.
अब मान लीजिए कि आपकी उम्र 25 साल है और अभी आपको 35 साल और काम करना है- यानी आपकी सैलरी से 35 साल और ईपीएफ की कटौतियां होनी हैं तो इस छोटे से नुकसान का आप पर असर नहीं होगा. लेकिन उन लोगों के बारे में सोचिए जो रिटायर होने वाले हैं.
ऐसा नहीं था कि ईपीएफओ ने बाजार में इन लोगों की बचत को लगाने से पहले उनसे राय ली थी. तो भला वे लोग ईपीएफओ के बुरे, या यूं कहें बदतर मैनेजमेंट का नुकसान क्यों उठाएं?
न सिर्फ नेता और यूनियंस, बल्कि कई अर्थशास्त्रियों ने भी सरकार को चेताया था कि लोगों का पैसा बाजार में न लगाए. उनका कहना था कि शेयर की कीमतें घटती बढ़ती रहती हैं जिससे ईपीएफओ अपनी नियमित प्रतिबद्धताओं को पूरा नहीं कर पाएगा- न तो वो सभी निवेशकों को देय ब्याज चुका पाएगा और न ही हर साल रिटायर होने वाले लाखों लोगों को देय अंतिम राशि का भुगतान कर पाएगा.
ईपीएफओ और मोदी सरकार ने इस संकट को खड़ा क्यों होने दिया?
सरकार ने विरोधियों की आशंकाओं पर यह जवाब दिया था कि बाजार हमेशा लंबे समय में फायदा देता है. लेकिन COVID-19 के हाहाकार के बीच लंबे समय की बात कौन करना चाहेगा? जिन लोगों के पास काफी पैसा है, वे लोग अपनी बचत पर रिस्क ले सकते हैं. लेकिन जिनके पास सीमित पैसा है, वे चाहेंगे कि उसमें धीमी-धीमी ही सही, लेकिन सुरक्षित बढ़ोतरी हो.
ईपीएफओ और मोदी सरकार ने इस संकट को पैदा होने दिया, यह निहायत बेशर्मी की बात है. सवाल यह है कि
- इसकी निगरानी क्यों नहीं की गई?
- अगर फंड मैनेजर्स ने ऐसे निराशाजनक नतीजे दिए तो उनकी जांच क्यों नहीं की गई और उन्हें हटाया क्यों नहीं गया?
इससे भी ज्यादा बेशर्मी की बात यह है कि साधारण मध्य वर्ग से जो बचत जबरदस्ती कराई जाती है, उससे बाजार को संभालने की कोशिश की गई. उसमें एक लाख करोड़ रुपये डाले गए. स्टॉक मार्केट में सरकारी स्टेरॉइड्ज का किसे फायदा होता है? बेशक, इसका फायदा उन दौलतमंदों को होता है जो और दौलत कमाने के लिए बाजार से खेलते हैं. क्योंकि हम जानते हैं कि बाजार में ‘रीटेल’ भागीदारी बढ़ने के बावजूद भारत में सिर्फ करीब 4 करोड़ डीपी खाते हैं और उनमें से 75 प्रतिशत निष्क्रिय हैं.
ईपीएफओ के इक्विटी निवेश के सबक
- ईपीएफओ ने इक्विटी निवेश में जो नुकसान उठाया, उससे हमें कई सबक सीखने को मिलते हैं.
- सबसे अहम बात यह है कि इसके लिए लगातार निगरानी और रेगुलेशन की जरूरत है. दूसरा, ईपीएफओ के व्यक्तिगत अंशदाताओं को यह चुनने का विकल्प दिया जाना चाहिए कि वे अपना पैसा कहां लगाना चाहते हैं, जैसे कि म्यूचुअल फंड्स में विकल्प दिया जाता है.
- अगर कोई इक्विटी का बड़ा अनुपात चाहता है तो उसके पोर्टफोलियो को वैसे सुनियोजित किया जाना चाहिए.
- लेकिन उसी समय दूसरों को यह विकल्प दिया जाना चाहिए कि उनका एक भी रुपया स्टॉक मार्केट में नहीं लगाया जाएगा.
- आखिर में सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जो लोग निवेश का सबसे परंपरागत तरीका चुनते हैं, उन्हें फिक्स्ड डिपॉजिट के रिटर्न से भी अच्छा रिटर्न मिले. या तो ईपीएफ को वैकल्पिक बना दिया जाए.
यह उचित नहीं है कि पहले आप जबदस्ती लोगों से उनका पैसा लें और फिर उनसे कहें- माफ कीजिए- आपका पैसा डूब गया है, इसलिए हम आपको आपका ही पैसा वापस नहीं लौटा सकते.
(लेखक एनडीटीवी इंडिया और एनडीटीवी प्रॉफिट के सीनियर मैनेजिंग एडिटर रहे हैं. वह इस समय स्वतंत्र यूट्यूब चैनल ‘देसी डेमोक्रेसी’ चलाते हैं. उनका ट्विटर हैंडल @AunindyoC है. इस लेख में दिए गए विचार लेखक के अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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