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सफलता की राह और गलतियों का सबक...हर बायोग्राफी कुछ कहती है 

खिलाड़ियों की ही तरह बॉलीवुड के लोगों की आत्मकथाएं इसलिए दिलचस्प लगती हैं

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अभी हाल ही में मैं एक किताब के विमोचन में गया था. यह विमोचन भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर वीवाई रेड्डी की आत्मकथा का था. इस दौरान जब मैं वहां मौजूद था तो मुझे याद आया कि वर्षों पहले एक दोस्त ने सलाह देते हुए कहा था कि मैं लोगों की जीवनी और आत्मकथाएं पढ़ना शुरू करूं. उसने कहा था, 'अगर इन्हें पढ़कर कुछ भी नहीं हुआ तो इतना तो जरूर हो जाएगा कि तुम अपने बारे में सच जान जाओगे.' ये उसका तरीका था मुझे बताने का कि मैंने अपने जीवन में कुछ भी नहीं किया है, कम से कम उस वक्त तक.

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लेकिन मैं हमेशा से ही इस बात को इस डर से टालता रहा कि अगर आत्मकथाएं पढ़ने लगूंगा तो मुझे यह पता चल जाएगा कि कितने लोगों ने जीवन में मुझसे बेहतर किया है. आखिरकार चार साल पहले मैंने आत्मकथाएं पढ़ने का मन बनाया. आत्मकथाएं पढ़ने का मेरा फैसला बहुत ही सुखद रहा है. मैंने पत्रकारिता से जुड़ी आत्मकथाएं नहीं पढ़ीं जो 'इतिहास के पहले मसौदे' के बारे में बताती हैं.

अलग-अलग शैलियां

मैंने नौकरशाहों कि आत्मकथाओं से शुरुआत की. वो बहुत ही जटिल तरीके से लिखते हैं और खुद के लिए हमेशा खेद व्यक्त करते रहते हैं. उनकी किताबों में एक ये बात हमेशा निहित रहती है कि उन्होंने समाज के लिए इतने अच्छे काम किए जिसके लिए उन्हें कभी प्रशंसा नहीं मिली. लेकिन वो इस बात की उम्मीद जरूर रखते हैं कि इतिहास उनके बेहतरीन कामों के लिए शायद उन्हें याद रखे. इन किताबों को पढ़ने में बहुत मजा नहीं आता है लेकिन आपको यह जरूर समझ आता है कि आखिर में हुआ क्या था. उदाहरण के तौर पर कोयला घोटाले पर पीसी प्रकाश की किताब और आईबी पर टीवी राजेश्वर की किताब.

मुझे यहां इस बात का उल्लेख करना चाहिए कि मैंने 15 साल पहले बीएन टंडन की डायरी का हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद किया था. वो 1969-76 के बीच पीएमओ में कार्यरत थे. उनके संस्करणों को पढ़ने पर समझ आता है कि देश में आखिर किन हालातों में आपातकाल लगाया गया था. इसके बाद मैंने जजों की आत्मकथाएं पढ़ना शुरू कीं. इनमें से अधिकतर में दंभ का भाव साफ झलकता था. लेकिन इन सभी किताबों ने मुझे निष्पक्षता, न्याय और सरकार की जिम्मेदारी के बारे में बताया. इन किताबों को पढ़ना मतलब अपने आसपास की दुनिया को देखने का एक अलग ही नजरिये से देखना.

इसके बाद मैंने रुख किया नेताओं की तरफ. उनकी आत्मकथाएं अधिकतर दो हिस्सों में बांटी जा सकती हैं. या तो वो पूरी आत्मकथा में इसी बात की शिकायत करते रहते हैं कि उनके साथ उन्हीं की पार्टी ने अच्छा व्यवहार नहीं किया या फिर वो ऐसा दर्शाते हैं कि अगर वो नहीं होते तो भारत कब का मिट्टी में मिल चुका होता. लेकिन कई बार ऐसा भी होता है जब वो कई घटनाओं का खुलासा भी करते हैं.

इसके बाद मैं खिलाड़ियों और कारोबारियों पर आधारित आत्मकथाओं की तरफ बढ़ा. यह आत्मकथाएं काफी सरल और तथ्य आधारित होती हैं. ऐसा इसलिए भी क्योंकि उनकी उपलब्धियां आंकना बहुत आसान होता है. मैंने खिलाड़ियों और कारोबारियों पर आधारित 30 से भी ज्यादा आत्मकथाएं पढ़ी होंगी और सभी को पढ़ने में बहुत मजा आया.

बॉलीवुड

पिछले कुछ महीनों से मैं बॉलीवुड से जुड़े लोगों की आत्मकथाएं पढ़ रहा हूं. अभी तक मैं दस ऐसी किताबें पढ़ चुका हूं लेकिन इनमें से मुझे सबसे ज्यादा नसीरुद्दीन शाह, ऋषि कपूर और करन जोहर की आत्मकथाएं पसंद आईं. खिलाड़ियों की ही तरह बॉलीवुड के लोगों की आत्मकथाएं इसलिए दिलचस्प लगती हैं क्योंकि वो ऐसे लोगों की बात करती हैं जिन्हें हम चेहरे, आवाज या फिर दोनों के जरिए पहचानते हैं और साथ ही ये काफी खुलकर बात करते हैं. उनका इस तरह के लेखन से मैं काफी अचंभित थी, वो इसलिए क्योंकि कोई भी जज, नेता या नौकरशाह अपनी आत्मकथा में अपने समकक्षों के लिए इस तरह खुलकर बात नहीं करता है.

उदाहरण के तौर पर ऋषि कपूर जिस तरह से जावेद अख्तर से लड़ बैठे, जब अख्तर ने एक टीवी शो पर शैलेंद्र की अकाल मृत्यु के लिए राज कपूर को जिम्मेदार ठहराया था. यहां तक कि ऋषि कपूर ने जावेद अख्तर से अपने उस बयान के लिए माफी मांगने को भी कहा था.

वहीं नसीरुद्दीन शाह ने खुलकर अपने परिवार से अपने रिश्तों के बारे में बात की है तो वहीं करन जोहर ने अपनी किताब में साफ लिखा है कि वो किन लोगों को इंडस्ट्री में पसंद नहीं करते हैं. साथ ही ये लोग अपनी असफलताओं के बारे में भी बात करने से नहीं हिचकते और ये भी बताते हैं कि असफल होने पर उनकी प्रतिक्रिया क्या थी.

मेरे लिए दूसरी हैरत भरी बात थी उनकी बुद्धि और सामाजिक विषयों को लेकर उनकी समझ. हम जिस तरह से उनके बारे में राय बना लेते हैं कि वो 'सिर्फ एक्टर' हैं, ये बहुत ही गलत है. उनकी किताबें इस बात की पूरी तरह से तस्दीक करती हैं. ठीक यही बात मैं खिलाड़ियों के लिए भी कह सकता हूं.

मुझे तो लगता है कि इन लोगों को टीवी पर आने वाले चैट शो पर नियमित रूप से आना चाहिए, केवल तब नहीं जब जलीकट्टू पर चर्चा करनी हो या फिर जब संजय लीला भंसाली पर कोई हमला हो. मुझे लगता है कि बजट जैसे मुद्दे पर भी उनके विचार सुनना काफी मजेदार होगा. मेरे अनुसार तो कुछ चैनलों को इन लोगों के साथ नियमित तौर पर कार्यक्रम शुरू करने चाहिए जो मुख्य तौर पर राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों से जुड़े हों. शायद इस पोर्टल को भी इन लोगों को निमंत्रण देकर उनसे वर्तमान मुद्दों पर लेख लिखवाने चाहिए. मुझे पूरा यकीन है कि उसका परिणाम काफी शिक्षाप्रद होगा.

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