जब मैं बड़ा हो रहा था या सयाना होने के काफी बाद तक मुझे लगता था कि मीडिया झूठा नहीं हो सकता, खासतौर पर प्रिंट मीडिया. 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान खबरें सुनने पर मुझे पहली बार खबरों के झूठे होने का अहसास हुआ. दरअसल, जिस युद्ध को हमने जीता था, पाकिस्तान उसमें खुद के सफल होने का दावा कर रहा था. तब मुझे पता चला कि मीडिया की दुनिया इतनी भी सच्ची नहीं है.
2009 में तो एक झूठी खबर से मैं दंग रह गया था. यह खबर इस्लामाबाद डेली मेल में छपी थी. 11 सितंबर 2009 को छपी इस खबर की हेडलाइन थी, ‘रॉ ने भारतीय सेना के पास वेश्याएं भेजीं.’ इसमें ब्लर्ब दिया गया था, ‘भारतीय सेना वेश्याओं को कब्जे वाले कश्मीर में महिला बटालियन के तौर पर तैनात करेगी.’ खबर पाकिस्तानी अखबार के काल्पनिक रिपोर्टर्स ने लिखी थी. कथित तौर पर उन्होंने रिपोर्ट दिल्ली से फाइल की थी, जबकि इन रिपोर्टर्स का वजूद तक नहीं था.
फेक न्यूज और राष्ट्रीय सुरक्षा
फेक न्यूज नई चीज नहीं है. गुमराह करने के लिए गलत सूचनाएं फैलाने की रणनीति बहुत पुरानी है, जो समय के साथ साइकोलॉजिकल ऑपरेशंस में बदल गई है. यह एक तरह का माइंड गेम है, जिसमें दुश्मन के दिमाग और उसकी लीडरशिप को निशाना बनाया जाता है. हालांकि, सारी फेक न्यूज सोच-समझकर नहीं फैलाई जातीं. ना ही वे साइंटिफिक होती हैं. अचानक कई ऐसी झूठी खबरें आ जाती हैं, जिनके असर का गुमान तक नहीं होता.
इनका मकसद भ्रम फैलाना, विरोध को बढ़ावा देना, कुछ वर्गों के खिलाफ नफरत भड़काना, राजनीतिक बदला या निजी दुश्मनी हो सकता है. मिलिट्री ऑपरेशंस को लेकर भी ऐसे फेक न्यूज आ रहे हैं, जिनसे राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा हो सकता है.
सोशल मीडिया से मिल रही है मदद
सोशल मीडिया के साथ फेक न्यूज का प्रसार बढ़ा है. प्रिंट मीडिया में खबर कहां से मिल रही है, इसका ख्याल रखा जाता है. हालांकि, यह पब्लिकेशन की साख पर निर्भर करता है. अखबार में छपी एक छोटी न्यूज रिपोर्ट को रीडर्स इग्नोर कर सकते हैं, लेकिन अगर वही खबर सोशल मीडिया पर सर्कुलेट की जाए तो उसमें लोगों की दिलचस्पी काफी बढ़ सकती है.
उपद्रव वाले इलाकों में आर्मी के खिलाफ लोगों को भड़काना आजमाई हुई रणनीति रही है. वहां गलत सूचनाओं के जरिये कथित मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों के बहाने लोगों को भड़काने की कोशिश होती है.
‘फॉरवर्डेड एज रिसीव्ड’
सोशल मीडिया पर फेक न्यूज के प्रसार के लिए वीडियो फॉर्मेट का सबसे अधिक सहारा लिया जाता है. छोटे क्लिप बनाकर वॉट्सऐप के जरिये फेक न्यूज को आसानी से सर्कुलेट किया जा सकता है.
फेक न्यूज के लिए वॉट्सऐप सबसे बदनाम भी है. इस पर वीडियो मैसेज पोस्ट करते वक्त अक्सर लिखा जाता है कि जैसे मिला, वैसे ही आगे बढ़ा दिया. इससे पोस्ट डालने वाले का अपराधबोध कम होता है, लेकिन उसके ऐसा करने से फेक न्यूज की आग तेजी से फैलती है.
भारत के खिलाफ दुष्प्रचार की पाकिस्तान की स्ट्रैटेजी का सबूत एक हालिया फेक न्यूज है. दो मिनट के इस वीडियो से भारतीय मुसलमानों को गुमराह करने की कोशिश की गई है. इसमें बताया गया है कि 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध से पहले भारतीय सेना में एक मुस्लिम रेजिमेंट थी, जिसने पाकिस्तान से युद्ध करने से इनकार कर दिया था. वीडियो में दावा किया गया है कि इस रेजिमेंट को बाद में भंग कर दिया गया और उसके बाद भारत की तरफ से किसी भी मुस्लिम को बॉर्डर पर लड़ने की इजाजत नहीं दी गई है.
इस फेक वीडियो के साथ 2010 में पाकिस्तानी मीडिया का एक आर्टिकल भी दिखता है, जिसमें भारतीय सेना में मुसलमानों की कम संख्या पर सवाल खड़ा किया गया है. इसमें कहा गया है कि इसे गलत साबित करने वाले आंकड़े कभी पेश नहीं किए गए. इस बकवास खबर से लोगों के गुमराह होने का डर है.
फेक न्यूज से निपटने के उपाय
राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए फेक न्यूज इसी तरह से खतरा पैदा कर सकता है. यह नेताओं को शर्मसार करने या बदला लेने की कोशिश नहीं है बल्कि यहां झूठी खबर से एक समुदाय को भड़काया जा रहा है. फेक न्यूज से कैसे निपटा जाए? डिजिटल लिटरेसी इसका आदर्श जवाब है, लेकिन इसमें काफी समय लगेगा. लोग अक्सर हेडलाइन देखते हैं. उन्हें आज और पहले की घटनाओं के बारे में पूरी जानकारी नहीं होती.
ज्यादातर लोगों को तो यह तक नहीं पता कि खबरें झूठी भी होती हैं. भारत के विविधता भरे समाज में दरार डालने के लिए पाकिस्तान इनका सहारा ले रहा है. इस चुनौती से निपटने के लिए भारत सिर्फ खुफिया एजेंसियों के भरोसे नहीं रह सकता. हमें प्रोफेशनल संस्थान बनाने होंगे, जिनमें एक्सपर्ट्स हों या शायद कोई संवैधानिक संस्था या कम्युनिकेशन स्ट्रैटेजी बनाई जा सकती है, जो फेक न्यूज की समस्या से निपट सके.
(लेखक, आर्मी के 15 कोर के एक पूर्व जीओसी हैं. वे अभी विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन एंड इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज से जुड़े हैं. उन तक @atahasnain53 के जरिए ट्विटर पर संपर्क किया जा सकता है.यहां व्यक्त विचार उनके अपने विचार हैं. द क्विंट न तो इनका समर्थन करता है, न ही किसी तरह इसके लिए उत्तरदायी है.)
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